UP Election 2022: उत्तर प्रदेश में मंत्री तक बने है निर्दलीय विधायक, अब हो रहा है जीत का आंकड़ा कम

UP Election 2022: उत्तर प्रदेश में चुनावी बिगुल बजने के बाद राजनीतिक दल सत्ता हासिल करने के लिए एक बार फिर एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। पर इन सबके बीच इस बार निर्दलियों का चुनाव के प्रति आकर्षण नहीं दिख रहा है।

Published By :  Vidushi Mishra
Update: 2022-01-20 05:39 GMT

उत्तर प्रदेश चुनाव 2022 

UP Election 2022: देश के सबसे बडे़ सूबे उत्तर प्रदेश में चुनावी बिगुल बजने के बाद राजनीतिक दल सत्ता हासिल करने के लिए एक बार फिर एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। पर इन सबके बीच इस बार निर्दलियों का चुनाव के प्रति आकर्षण नहीं दिख रहा है। सात चरणों के होने वाले चुनाव में कितने निर्दलीय प्रत्याशियों ने अपनी किस्मत आजमाई पर पिछले दो तीन चुनावों को देखा जाए तो निर्दलीय प्रत्याशियों की जीत का आंकडा लगातार कम होता जा रहा है।

सन् 1997 में जब कल्याण सिह की सरकार अल्पमत में आ गयी, तो निर्दलीय विधायकों ने समर्थन देकर राज्य सरकार को बचाने का काम किया था। यह बात अलग है कि इन निर्दलियों ने इसकी कीमत भी जमकर वसूली थी। कई निर्दलीय मंत्री तक बन गए थें।

अब तक का सबसे बड़ा रिकार्ड

आजादी के बाद 1952 के विधानसभा चुनावों में राजनीतिक दलों के अलावा 1005 निर्दलियों ने भी अपनी किस्मत आजमाई, तो इनमें 14 को जीत हासिल हुई। 1957 के विधानसभा चुनाव में 662 में से 74 निर्दलियों ने विधानसभा की चैखट पर अपनी दस्तक दी थी। वह अब तक का सबसे बड़ा रिकार्ड है। जबकि सबसे कम  1974 के विधानसभा चुनाव में जीते थें। इस चुनाव में केवल पांच निर्दलीय प्रत्याशी  ही चुनाव जीत सके थें जबकि 1522 निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरे थे।

इससे पहले 16वीं विधानसभा में केवल छह निर्दलीय प्रत्याशी ही चुनाव जीत सके थें। इसी तरह 1962 के विधानसभा चुनाव में  694 में 31, 1967 के विधानसभा चुनाव में 1237 में से 37, 1969 के चुनाव में 674 में 18, 1974 के चुनाव में 1522 में से 5, 1977 के चुनाव में 1976 में 16 निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव जीते थें।

इसी तरह वर्ष 1980 में 2221 में 16, 1985 में 3674 में 25, 1989 के चुनाव में 3579 में 40, 1991 के चुनाव में 4,898 में 7, 1993 के चुनाव में 6537 में 8, 1996 के चुनाव में 2031 में 13, 2002 के चुनाव में 2353 में 16, 2007 के चुनाव में 2581 में 9, तथा 2012 के चुनाव में 1780 में से 6 निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव जीत कर आए थें।

इससे पहले 15वीं विधानसभा चुनाव में केवल 9 प्रत्याशी  ही चुनाव जीत सके थें। इनमें अखिलेश  सिंह (रायबरेली सदर), राजपाल त्यागी (गाजियाबाद), मुख्तार अंसारी (मऊ), अषोक यादव (फिरोजाबाद), अजय राय (वाराणसी), इमरान मसूद (सहारनपुर),यशपाल  सिंह रावत (गोरखपुर),रामप्रकाश यादव (फिरोजाबाद),रघुराज प्रताप सिंह (कुंडा) शामिल  थें। हालांकि बाद में इनमें से कुछ विधायकों ने किसी न किसी दल का दामन थाम लिया।

नई सदी के  पहले 2002  में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजों पर नजर ड़ाले तो देखेंगे कि यूपी के 403  विधानसभा क्षेत्रों में से 14  में निर्दलीयों का परचम फहराया था। इनमें कैराना से मदन भैय्या, अनूपशहर से होशियार सिंह, सिकन्दराऊ से अमर सिंह यादव, फर्रूखाबाद से विजय सिह. राजपुर से महेश चन्द्रा, रारी से धनंजय सिंह, मऊ से मुख्तार अंसारी, बरहज से दुर्गा प्रसाद मिश्रा, पिपराइच से जितेन्द्र जायसवाल, मोहनलालगंज से आरके चौधरी, मलिहाबाद से कौशल किशोर, बरेली से शहजिल इस्लाम, पुवांया से मिथलेश कुमार और हसनपुर से देवेन्द्र नागपाल जीते थे।

निर्दलीय विधायकों की संख्या कम

2007 के विधानसभा चुनाव में आठ निर्दलीय विधायक बने।  इनमें रायबरेली से अखिलेश सिंह कुंड़ा से रघुराज प्रताप सिंह बिहार (सु) से विनोद कुमार सहजनवा से यशपाल सिंह शिकोहाबाद से अशोक यादव जसराना से राम प्रकाश यादव मुरादनगर से राजपाल त्यागी और मुजफ्फराबाद से इमरान मसूद चुनाव जीते।

इसके  बाद हुए 2012 के विधानसभा चुनाव मे जब बसपा की सरकार बनी तो निर्दलीय विधायकों की संख्या और कम हो गयी। इस विधानसभा में छह निर्दलीय ही विधानसभा तक पहुंच सके। जिनमें  फर्रूखाबाद से विजय सिंह बाबागंज से विनोद कुमार कुंड़ा से रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया सकलडीहा से सुशील सिंह सैयदराजा से मनोज कुमार व दुद्धी से रूबी प्रसाद ने जीत हासिल की।  

जबकि पिछले विधानसभा चुनाव में जब प्रदेश  में 325 विधायकों की संख्या लेकर भाजपा की सरकार बनी तो तीन निर्दलीय प्रत्याशी ही विधायक बन सके।  इस चुनाव में कुंड़ा से रघुराज प्रताप सिंह बाबागंज (सु) से विनोद कुमार और गोरखपुर के नौतनवां से अमनमणि त्रिपाठी ही निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव जीत पाये थे।

यूपी की राजनीति में कभी निर्दलियों का जलवा हुआ करता था लेकिन राजनीतिक जागरुकता के कारण पिछले कुछ चुनावों से जीतने वाले निर्दलियों की संख्या में गिरावट आई है। इसलिए अब जिन विधायकों को उनके दल से टिकट नहीं मिलता वह निर्दलीय लड़ने की बजाए किसी छोटे दल में शामिल  होकर चुनाव मैदान में उतरना ज्यादा बेहतर समझते हैं।

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