कठघरे में सरकार: हाईकोर्ट की फटकार के बाद बढ़े मौत के सरकारी आंकड़े, मानी लापरवाही

अदालत ने मुख्य सचिव से पूछा कि सरकारी व निजी अस्पतालों में डेंगू के मरीजों के इलाज की क्या प्रक्रिया है। अदालत ने सुनवाई के दौरान फिर सख्त टिप्पणी की कि सरकार में डेंगू पर नियंत्रण करने की इच्छाशक्ति की कमी है और जनता का स्वास्थ्य दांव पर है।

Update:2016-10-28 17:35 IST

अनुराग शुक्ला

लखनऊ: लखनऊ में डेंगू से हुई सैकड़ों मौतों के आंकड़ों में लीपापोती पर उच्च न्यायालय के तल्ख तेवर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने का संदेश दे रहे थे। सरकार की ओर से मरने वालों के आंकड़े का हलफनामा ही गलत पेश किया गया था। नतीजतन कोर्ट को डेथ आडिट करना पड़ा। वह इसलिए कि सरकार ने अपने आंकड़ों में डेंगू से मरने वालों की संख्या मात्र 1 बताई थी जो अदालती डांट के बाद अचानक 17 हो गयी। सरकार पर अदालत की तल्ख टिप्पणी भले ही अब तक की सबसे कड़ी प्रतिक्रिया हो पर हकीकत यह है कि शायद ही ऐसा कोई हफ्ता बीता होगा जिसमें अदालत में इस सरकार के खिलाफ कमोबेश इस तरह की तल्ख टिप्पणी न हुई हो। या अदालत ने सरकार को कठघरे में न खड़ा किया हो।

न्याय विभाग जिम्मेदार

अगर सिर्फ एक महकमे को सरकार की असफलता का जिम्मा देना अनिवार्य बना दिया जाए तो वह न्याय विभाग ही होगा और इसके तहत जुड़े महाधिवक्ता, उनकी टीम और मातहत ही होंगे। दिलचस्प यह है कि उत्तर प्रदेश की दो पीठों, इलाहाबाद और लखनऊ में बंटे, इलाहाबाद हाईकोर्ट में करीब 1100 सरकारी वकील हैं। इसमें लखनऊ में 350 और इलाहाबाद में करीब 750 सरकारी वकील हैं। इनमें सबसे कम पैसा ब्रीफ होल्डर्स को मिलता है। इनकी संख्या करीब 500 है और धनराशि है 2000 रुपए प्रति दिन। इसके बाद अपर स्थायी अधिवक्ता और अपर शासकीय अधिवक्ता को मिलने वाली धनराशि करीब 30 हजार प्रतिमाह बैठती है। वहीं स्थायी अधिवक्ता और अपर शासकीय अधिवक्ता प्रथम पर प्रतिमाह कम से कम 45000 रुपए सरकार खर्च करती है। अपर महाधिवक्ता के मासिक बिल करीब 10 लाख से 20 लाख के बीच होते हैं वहीं महाधिवक्ता के बिल हर महीने करीब 50- 60 लाख रुपए के होते हैं।

सरकार के इस भारी भरकम खर्च के बावजूद कोई ऐसा बड़ा मुकदमा नहीं हुआ होगा जिसमें बाहरी और नामी वकील को न रखना पड़ा हो। इसमें कुछ वकीलों को तो 10 से 20 लाख रुपए प्रति सुनवाई तक देने पड़ते हैं।

भारी भरकम अमला ही पड़ रहा भारी

कठघरे में सरकार के खड़े होने की स्थिति प्राय: सरकार के भारी भरकम अमले के चलते ही होती है। इस सरकार में हद यह हुई कि नाक के सवाल का सरकार का कोई भी मुकदमा जीतना तो मुश्किल, विवाद का सबब जरूर बन गया। यह संयोग नहीं कहा जा सकता कि इस सरकार में महाधिवक्ता और प्रमुख सचिव न्याय ताश की तरह फेंटे गए। सरकार बनी तो एससी गुप्ता को महाधिवक्ता बनाया गया। वह बहुत बुजुर्ग और नामचीन वकील हुआ करते थे। लेकिन अदालतें सिर्फ इसलिए नाराज रहती थीं कि वह बहस करने के साथ यह कहना नहीं भूलते थे कि जितनी मी-लार्ड की उम्र हुई उससे अधिक उनका कॅरियर है। यह बयान सरकार पर कई बार भारी पड़ा।

दूसरी ओर, विनय चंद्र मिश्र को उनके पैड के दुरुपयोग के आरोप में कैबिनेट बाई सर्कुलेशन से हटा दिया गया था। इसे मिश्र ने अपमानजनक बताया था। इसके बाद समाजवादी पार्टी से राज्यसभा अथवा लोकसभा का टिकट मांगने आए बसपा के पूर्व सांसद विजय बहादुर सिंह को महाधिवक्ता बना दिया गया। प्रमुख सचिव न्याय के पद को लेकर भी वाद-विवाद और वितंडा रहा। एसके पांडेय प्रमुख सचिव न्याय बनाए गए पर उनके काम करने के तरीके से अदालत नाराज थी। नतीजतन, उन्हें हटाकर शाहिद हसन को कार्यकारी प्रमुख सचिव बनाया गया। अनिरुद्ध सिंह इसके बाद इस पद पर आए। उन्होंने लोकायुक्त एक्ट में एक ऐसे बदलाव में सरकार की मदद की जिसमें इस चयन समिति से मुख्य न्यायाधीश को बाहर कर दिया गया। नतीजतन, इन्हें एक दिन में ही कार्यमुक्त करने का आदेश हो गया। लंबे समय तक यह पद खाली रहा और विवाद के बाद जब हाईकोर्ट ने तत्कालीन मुख्य सचिव आलोक रंजन पर इतनी नाराजगी जताई कि उनके व्यक्तिगत दंड झेलने की नौबत आ गयी तो रंगनाथ पांडेय को नियुक्त किया गया।

‘हां, सरकार का रवैया सुस्त रहा’

27 अक्टूबर को शाम चार बजे । राहुल भटनागर ने सरकार द्वारा बनायी गयी योजनाओं के बारे में भी अदालत को बताया। अदालत ने मुख्य सचिव से पूछा कि सरकारी व निजी अस्पतालों में डेंगू के मरीजों के इलाज की क्या प्रक्रिया है। अदालत ने सुनवाई के दौरान फिर सख्त टिप्पणी की कि सरकार में डेंगू पर नियंत्रण करने की इच्छाशक्ति की कमी है और जनता का स्वास्थ्य दांव पर है। बहरहाल, मुख्य सचिव के आग्रह पर हाईकोर्ट ने राज्य में ‘संवैधानिक विफलता’ पर जोर नहीं दिया। अब सुनवाई की अगली तारीख 16 नवम्बर तय की गयी है।

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