सांस्कृतिक नगरी में संस्कृत विद्यालयों की हालत खराब, स्कूलों में शिक्षकों का टोटा
आशुतोष सिंह
वाराणसी। वाराणसी को सर्व विद्या और सर्व ज्ञान की राजधानी यूं ही नहीं कहा जाता है। शहर का जितना धर्म और संस्कृति से गहरा नाता रहा है, उतना ही संस्कृत भाषा से भी है। एक वक्त था जब संस्कृत सीखने के लिए देश के कोने-कोने से छात्र वाराणसी आते थे। गंगा किनारे बने आश्रम और मठों में सुबह-शाम संस्कृत के श्लोक सुनाई देते थे। शास्त्रार्थ करते विद्वानों की टोली गली-गली दिखाई देती थी,लेकिन अब ये बातें गुजर जमाने की हो गई हैं। अब ना तो आपको वेदमंत्रों की ऋचाएं सुनाई देंगी और न श्लोक पढ़ते बटुक दिखाई देंगे। सांस्कृतिक शहर के रूप में विख्यात काशी में संस्कृत भाषा दम तोड़ रही है। शहर में बने संस्कृत माध्यमिक विद्यालयों पर ताला लटकाने की नौबत आ गई है।
विद्यालयों में ना तो छात्र हैं और ना ही शिक्षक। शिक्षा विभाग ने जिले के 17 ऐसे संस्कृत विद्यालयों को चिन्हित किया है, जहां पर छात्रों की संख्या 100 से कम है। यही नहीं यहां के विश्वप्रसिद्ध संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थिति भी बेहद खराब है। टीचर और बुनियादी सुविधाओं से जूझ रहे इस विश्वविद्यालय से छात्रों का मोहभंग होने लगा है। छात्र अब संपूर्णानंद के बजाय देश के दूसरे संस्कृति केंद्रों और संस्थानों का रुख कर रहे हैं। ये हालात तब हैं जब वाराणसी के सांसद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। अब सवाल यह है कि सांस्कृतिक नगरी में संस्कृत की इस उपेक्षा के लिए कौन जिम्मेदार है? आखिर क्यों छात्र संस्कृत से दूर होते जा रहे हैं?
संस्कृत विद्यालयों की हालत बेहद खराब
सांस्कृतिक नगरी में संस्कृत पढऩे वालों की संख्या कम हुई है तो इसके पीछे कई वजहें हैं। इन विद्यालयों के पास बुनियादी तौर पर ऐसी कोई सुविधा मौजूद नहीं है, जिससे आकर्षित होकर कोई छात्र यहां एडमिशन लें। कहीं विद्यालय की स्थिति जर्जर है तो कहीं पूरा विद्यालय ही एक या दो कमरों में चल रहा है। लिहाजा पढ़ाई करने वाले छात्रों की संख्या भी बेहद कम हो गई है। यही नहीं यहां पर मानकों का भी पालन नहीं हो रहा है। फिलहाल माध्यमिक शिक्षा निदेशक के निर्देश पर डीआईओएस डॉक्टर वीपी सिंह ने संस्कृत विद्यालयों से छात्र संख्या मांगी है। प्रारंभिक तौर पर जिल के17 विद्यालयों को चिन्हित किया गया है। इन विद्यालयों में छात्रों की संख्या 100 से भी कम है। ऐसे में यहां पर पढऩे वाले बच्चों को शासन दूसरे विद्यालयों में समायोजित करने की तैयारी में है। वहीं शिक्षकों को ऐसे पाठशालाओं में भेजा जाएगा जहां विद्यार्थी अधिक और शिक्षक कम हैं।
स्कूलों में शिक्षकों का टोटा
बदहाली का आलम हर स्तर पर देखने को मिल रहा है। कमी सिर्फ छात्रों और बुनियादी सुविधाओं को लेकर ही नहीं है बल्कि संस्कृत विद्यालयों में शिक्षकों का भी घोर अभाव है। कई विद्यालय तो बगैर प्रिंसिपल के ही चल रहे हैं। मसलन वाराणसी में प्रधानाचार्य के 20 पद खाली हैं तो शिक्षकों के 80 पद। इसी तरह गाजीपुर में प्रधानाचार्य के सात और शिक्षकों के 18 पद खाली हैं। जौनपुर की स्थिति भी कुछ बेहतर नहीं है। यहां पर प्रधानाचार्य के 11 पद तो शिक्षक के 23 पद रिक्त हैं। मिर्जापुर और भदोही में प्रधानाचार्य के क्रमश: 5 और आठ पद तो वहीं शिक्षकों के 12 और 18 पद खाली हैं। चंदौली की स्थिति कुछ हद तक ठीक है। यहां पर प्रधानाचार्य का एक और शिक्षक के छह पद रिक्त हैं।
मतलब वाराणसी और मिर्जापुर मंडल को जोड़ दिया जाए तो संस्कृत विद्यालयों में प्रधानाचार्य के 47 पद और शिक्षक क 160 पद खाली पड़े हैं। यही नहीं कई ऐसे विद्यालय हैं जहां एक भी शिक्षक नहीं हैं। शिक्षकों की कमी को दूर करने के लिए यूपी बोर्ड की तर्ज पर अब संस्कृत बोर्ड भी शिक्षकों की कमी पूल टीचर से पूरी करने पर विचार कर रहा है यानी रिटायर्ड हो चुके टीचरों को मानदेय पर पढ़ाने के लिए नियुक्त किया जाएगा।
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संपूर्णानंद संस्कृत विवि में भी छात्रों का टोटा
एक वक्त था जब संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में देश के कोने-कोने से छात्र पढऩे आते थे, लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। अधिकांश विभाग और संकायों में नाममात्र के छात्रों ने एडमिशन लिया है। संस्कृत को लेकर छात्रों की बेरुखी साल-दर-साल घटती जा रही है। इसके पीछे जो बड़ी वजहें है, उनमें सबसे बड़ा कारण है विश्वविद्यालय में टीचरों की कमी। लगभग सभी विभागों में टीचरों की कमी देखने को मिल रही है, जिसके चलते छात्रों का टोटा पड़ता जा रहा है। विश्वविद्यालय से जुड़े रहे बृजेश कुमार त्रिपाठी कहते हैं कि संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालयसे जुड़ी 542 शाखाएं हैं, जो देशभर में फैली हैं।
वर्तमान में विश्वविद्यालय में 78 शिक्षकों की कमी छात्रों की पढ़ाई में बाधा बन रही है। जब तक यूनिवर्सिटी में रिक्त पदों को नहीं भरा जाएगा, संस्कृत का संवर्धन नहीं होगा। शिक्षकों की कमी के चलते अध्यन-अध्यापन के स्तर में कमी आई है। हालांकि विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर रविशंकर पांडेय इस तरह की खबरों को नकार रहे हैं। उनके मुताबिक हाल के दिनों में संस्कृत से जुड़े बच्चों की गुणवत्ता में काफी विकास हुआ है। उनके मुताबिक संस्कृत के छात्रों की संख्या घटी नहीं है बल्कि अब वर्तमान समय में संस्कृत के कई इंस्टीट्यूट खुल गए। अब आईआईटी बीएचयू, खडग़पुर और कानपुर में संस्कृत छात्रों की डिमांड बढ़ी है। लेकिन ये संख्या बेहद सीमित है। इसके अलावा जगह-जगह संस्कृत विज्ञान संस्थान खुल गए हैं, जिसकी वजह से अब यूनिवर्सिटी में छात्रों की संख्या कम हो रही है। उनके मुताबिक सरकार संस्कृत को रोजगारपरक बनाने में कामयाब नहीं रही है, जिसकी वजह से छात्रों का संस्कृत से तेजी से मोहभंग हो रहा है।
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विश्वविद्यालय में बुनियादी सुविधाएं नहीं
मौजूदा समय में केंद्र और राज्य दोनों ही जगहों पर बीजेपी की सरकार है। बीजेपी खुद को संस्कृति और अध्यात्म की सबसे बड़ा झंडाबरदार कहलाना पसंद करती है। लेकिन इसकी हकीकत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में दिखाई पड़ती है। यहां के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में सुविधाओं का घोर अभाव है। यूनिवर्सिटी से छात्र क्यों दूर हो रहे हैं, इसका पता यहां आने से लगता है। क्लास रूम से लेकर हॉस्टल तक अव्यवस्था और बदहाली का आलम दिखाई पड़ता है। छात्र टूटी-फूटी बेंचों पर पढऩे पर मजबूर हैं। वहीं हॉस्टल में बने कमरों में आखिरी बार कब रंगरोगन हुआ, किसी को याद नहीं। कमरों की छतों से प्लास्ट टूट-टूटकर गिर रहे हैं। शौचालयों के बारे में पूछिए ही नहीं। अधिकांश शौचालय में दरवाजे ही नहीं हैं। छात्र जैसे-तैसे रहने को मजबूर हैं। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह बजट है।
कर्मचारियों ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि विश्वविद्यालय का बजट 40 करोड़ रुपए हैं, लेकिन मिलता है सिर्फ 10.5 करोड़ रुपए। ऐसे में काम करना बेहद मुश्किल हो गया है। संविदा पर रखे गए टीचरों, कर्मचारियों, गार्ड और सफाई कर्मचारियों की सैलरी तीन से चार महीने की देरी से आती है। विश्वविद्यालय में काम कराने वाले ठेकेदारों को सालों से भुगतान नहीं हो पाया है। करोड़ों रुपए लगाकर ठेकेदार फंसे हुए हैं। विश्वविद्यालय के पास आय का कोई ठोस स्रोत नहीं है। लिहाजा भुगतान के लिए पैसे ही नहीं है। ठेकेदारकहते हैं कि यहां पर आठ से दस महीने पर हमारे काम का भुगतान होता है। उसकी भी गारंटी नहीं होती है कि कितना मिलेगा। सालभर से पीएफ कहां जा रहा है, उसका भी पता नहीं है। सरकार की उदासीनता की वजह से विश्वविदयालय उपेक्षित है। यूनिवर्सिटी का बजट बहुत कम है। बजट कम होने के कारण विकास कार्य रुके हुए हैं। हालात यहां तक खराब है कि एक भी टोटी बदलने के लिए विश्वविद्यालय के पास धन नहीं रहता।
कितनी कारगर होगी सरकार की कवायद
संस्कृत भाषा का ये हाल तब है जब सरकार बेहद संजिदा है। केंद्र और राज्य दोनों ही जगहों पर भगवाधारियों का कब्जा है। हिंदुत्व और संस्कृत सरकार के एजेंडे में हैं। एक तरफ विद्यालयों से छात्र गायब हो रहे हैं तो दूसरी ओर भारतीय ज्ञान परंपरा को बढ़ावा देने का दावा करते हुए अब संस्कृत भाषा में स्कूली शिक्षा देगी। इसके तहत पहली से आठवीं तक की पढ़ाई संस्कृत में होगी। इसके विषय राष्ट्रीय पाठ्यक्रम की रूपरेखा के तहत होंगे। इसमें भाषा, गणित और पर्यावरण विषय मुख्य रूप से शामिल रहते हैं। संस्कृत पाठ्यक्रम में भाषा के स्थान पर संस्कृत पढ़ाई जाएगी। गणित के स्थान पर वैदिक गणित और पर्यावरण विषय के स्थान पर वेदों में पर्यावरण से जुड़े पाठ पढ़ाए जाएंगे।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय से जुड़ी संस्था राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयी शिक्षा संस्थान (एनआरओएस) ने लंबी कवायद के बाद यह नया पाठ्यक्रम तैयार किया है। इसमें सितंबर से बच्चों को प्रवेश देने का काम भी शुरू हो जाएगा। इसे लेकर तेजी इसलिए भी दिखाई जा रही है क्योंकि यह सरकार और एनआरओएस के सौ दिनों के एजेंडे में भी शामिल है। एनआरओएस ने देश भर के गुरुकुलों में पढऩे वाले बच्चों को भी लक्ष्य किया है। इसके तहत इन बच्चों को भी अब स्कूली शिक्षा से जोड़ा जाएगा जिसके बाद वह आगे की भी पढ़ाई जारी रख सकेंगे। अभी तक गुरुकुलों में पढऩे वाले बच्चों को कोई मान्यता नहीं दी जाती है। मौजूदा समय में देशभर में छह हजार से ज्यादा गुरुकुल संचालित है। फिलहाल एनआरओएस सभी गुरुकुलों से संपर्क करने में जुटा है।