वैसे तो आज के दौर में ये तय करना मुश्किल है कि सांड़ आध्यात्मिक विषय है या फिर सियासी... और अब तो इस विषय को फि़ल्मी भी कहा जा रहा है। अब आप कहेंगे चुनाव के बीच फिल्मी बातों का क्या मतलब, तो हम कहेंगे भैया यही तो हो रहा है। मनमोहन सिंह से लेकर नरेंद्र मोदी तक पर बायोपिक बन चुकी है। रोज-रोज तरह-तरह के नेताओं की बायोपिक की घोषणा हो रही है। सनी देओल से लेकर उर्मिला मातोंडकर तक चुनाव मैदान में कूद चुके हैं। निरहुवा से लेकर रविकिशन तक गांव-गांव, गली-गली वोट के लिए घूम रहे हैं। अक्षय कुमार प्रधानमंत्री का इंटरव्यू ले रहे हैं। समाजवादी पार्टी शत्रुघ्न सिन्हा की बीवी को चुनाव लड़वा दे रही है, तो फिर सांड़ पर फिल्मी चर्चा पर आपत्ति क्यों?
वैसे सियासत के बुखार में फिल्मी चर्चा हुई ही है तो बता दें कि फिल्म ‘सांड़ की आंख’ की शूटिंग पूरी हो चुकी है। फिल्म की अभिनेत्री तापसी पन्नू ने भूमि पेडनेकर के साथ अपनी तस्वीर ट्वीट कर ‘सांड़ की आंख’ जानकारी दी तो हमको भी इस फिलिम का पता चला। इस आधार पर तो सांड़ भी फिल्मी भी हुआ न। और सियासत का हाल ये है कि वहां ये तय ही नहीं हो पाया कि सांड़ पे साहित्य बांचना या फिर बैल पर बात करनी है। यह कहना तो गलत ही होगा न कि गांव-किसान की राजनीति करने वाले ये नेता सांड़ और बैल में फर्क नहीं जानते होंगे।
अपने उद्भव के साथ ही भाजपा गो संरक्षण की बात करती रही है तो आजादी के बाद 1952 में हुए पहले चुनाव में कांग्रेस पार्टी का चुनाव चिह्न ही ‘दो बैलों की जोड़ी’ था। फिर जब कांग्रेस का विभाजन हुआ तो इंदिरा गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस को चुनाव चिह्न मिला ‘गाय और बछड़ा’। अब इसके कुछ और मायने निकाल लिए जाएं तो चुनाव चिह्न क्या करे। 1977 में चुनाव के दौरान विपक्ष ने इसे मुद्दा बना लिया और भाषणों में इंदिरा को गाय तथा संजय को बछड़ा संबोधित करते थे। चौधरी चरण सिंह की अगुवाई वाला लोकदल ‘खेत जोतता हुआ किसान’ चुनाव चिह्न पर लड़ता था। तो कम से कम हम ये तो कह ही नहीं सकते कि ये नेता सांड़ और बैल में फर्क नहीं जानते। लेकिन भैया जब भरी सियासी महफिल में सांड़ घुस जाएं और संसद से भी ज़्यादा हंगामा काट दें तो चर्चा होगी ही। अब बताइए जिस कन्नौज से धर्मपत्नी चुनाव लड़ रही हों वहां हैलीपैड में सांड़ घुस जाए और कईयों को पटक दे तो अखिलेश यादव मुद्दा उठाएंगे ही। फिर गोरक्षक मुख्यमंत्री होने का दावा करने वाले योगी आदित्यनाथ का भी जवाब बनता है। उन्होंने भी शाहजहांपुर में कह डाला कि कन्नौज में नंदी बाबा ने अपना रौद्र रूप इसलिए दिखाया कि उन्हें पता चल गया था कि रैली कसाईयों का समर्थन करने वालों की हो रही है।
अब नेताओं की बात तो नेता ही जानें, हम तो कुछ मुहावरों छुट्टा सांड़, कोल्हू के बैल से ज्यादा कुछ नहीं जानते। अब आप ये न समझ लीजियेगा कि हम दिग्विजय सिंह, मणिशंकर अय्यर, आजम खां, गिरिराज सिंह, नरेश अग्रवाल, कैलाश विजयवर्गीय, अनंत हेगड़े और न जाने कौन-कौन को छुट्टा सांड़ कह रहे हैं। क्योंकि भैया हम ऐसा बिलकुल नहीं कह रहे। हां, कभी-कभी आम कार्यकर्ता जरूर हमें कोल्हू के बैल जैसे लगते हैं। जैसे गुरुदासपुर, मुंबई नार्थ, पूर्वी दिल्ली, चांदनी चौक, वाराणसी, देवरिया, गोरखपुर, आजमगढ़ सहित सैकड़ों सीटों पर हजारों कार्यकर्ता कोल्हू के बैल की तरह मेहनत इस उम्मीद से करते हैं कि कभी तो चांस लगेगा लेकिन अक्सर कोई बड़ा नेता, कलाकार, क्रिकेटर झपट्टा मार लेता है। अब इससे ज़्यादा नहीं बोलूंगा, नहीं तो आप कहेंगे कि मैं ‘आ बैल मुझे मार’ वाला काम कर रहा हूं।