Mayawati Political History: क्या मायावती फिर पा सकेंगी खोई हुई शान, देखें Yogesh Mishra की ये Video रिपोर्ट
Mayawati Ka Rajnitik Itihas: उत्तर प्रदेश में भी विधानसभा की केवल एक सीट मायावती के पास है...;
Mayawati Political History: देश की सियासत में पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को एक गूढ़ राजनेता माना जाता है। वे कोई किताब नहीं पढ़ते थे। केवल पांडुलिपियाँ पढ़ा करते थे। उन्होंने कांग्रेस की अल्पमत की सरकार पूरे पांच साल चला कर दिखा दिया। अयोध्या के विवादित ढाँचा कहे जाने वाली इमारत के ज़मींदोज़ होने में उनकी गूढता के संदेश आज तक पढ़े जा रहे हैं। खैर इस पर बात कभी आगे बात करेंगें। आज नरसिंहा राव का ज़िक्र हमने महज़ इसलिए किया क्योंकि उन्होंने एक समय बसपा सुप्रीमो मायावती को राजनीति का चमत्कार कहा था। उनके इस कहने में दम भी था। मायावती अपने दौर की इकलौती ऐसी नेता रही हैं, जो अपना वोट बैंक जिसे चाहतीं, जब चाहतीं ट्रांसफ़र कराने की हैसियत रखती थीं। यह हुनर किसी और राजनेता में देखा और सुना ही नहीं गया। पर आज चमत्कार करने वाली राजनेता का जनाधार लगातार सिमटता जा रहा हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा को छोड़ दें तो देश के किसी भी सदन में उनका कोई नुमाइंदा नहीं है। उत्तर प्रदेश में भी विधानसभा की केवल एक सीट मायावती के पास है। पर उनके इकलौते विधायक उमाशंकर सिंह की विजय की वजह केवल मायावती नहीं बल्कि खुद उमाशंकर सिंह भी हैं । उमाशंकर सिंह एक बड़े ठेकेदार हैं। उनके विजय का कारण समझने के लिए इतना ही पर्याप्त है कि वह मायावती के जितने प्रिय हैं। उससे कम प्रिय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के नहीं हैं।
खैर अगर मायावती के पार्टी के परफारमेंस की बात करें तो अब इनका दल ज़मानत ज़ब्त कराने वाले दलों की श्रेणी में आ गया है। अभी हाल के दिल्ली के विधानसभा चुनाव के नतीजे बताते हैं कि मायावती सभी सीटों पर लड़ीं। पर ज़मानत हर सीट पर ज़ब्त कराई। केवल आधा फ़ीसदी वोट उनके हाथ लग पाये। वह भी तब जब मायावती देश के सबसे बड़े सूबे की चार बार मुख्यमंत्री रही हैं। उनकी पार्टी एक समय देश की राष्ट्रीय पार्टी मानी जाती थी। वह भाजपा, सपा, कांग्रेस सभी दलों के साथ मिलकर सियासी पारी खेल चुकी हैं। हर दल के साथ खेली गई पारी में उन्होंने हर दल से कुछ न कुछ ताक़त अवशोषित की । तब जाकर वह स्पष्ट बहुमत की सरकार खड़ी कर सकीं। यही नही, इसके लिए उन्होंने अपनी सियासी चालों में भी कई बदलाव किये। मसलन, तिलक तराज़ू और तलवार … वाले अपने नारे को छोड़ा। उन्होंने पार्टी को बहुजन की पटरी से उतार कर सर्वजन के ट्रैक पर दौड़ाया। तिलक को गले लगाया। तिलक तराज़ू .. वाले स्लोगन को कुछ इस तरह बदल दिया- और कहने लगीं, ‘ ब्राह्मण शंख बजायेगा। हाथी दिल्ली जायेगा ।’ पर अपनी बहुमत की सरकार के बाद से ही मायावती निस्तेज पड़ती चली गयीं। निस्तेज पड़ने का सिलसिला यहां तक पहुँचा कि आज लोग मायावती को भाजपा की बी टीम कहने लगे हैं। लोगों में मायावती के टिकट को लेकर आकर्षण ख़त्म हो गया है। वह भी तब जब एक समय मायावती के टिकटों के दाम आसमान छूते थें। बावजूद इसके जिसके हाथ मायावती का टिकट लग जाता था, वह बहन जी का शुक्रगुज़ार होता था। मायावती के टिकटों के सबसे बेहतर स्ट्राइक रेट की वजह से उत्तर प्रदेश में तमाम ठेकेदार, धनबली, बाहुबली और माफिया माननीय बनने में कामयाब हो गये। पर यह मायावती का ही हुनर था कि वह इनके भी नकेल कसने में कामयाब होती रही। कभी उन्होंने ऐसे तत्वों को उनके हिसाब से काम करने की अनुमति नहीं दी।
अब मायावती और उनके दल के उत्थान से पतन और फ़र्श से अर्श की यात्रा पर नज़र डालते हैं। बसपा की स्थापना 1984 में कांशीराम जी ने की थी। पार्टी को हाथी चुनाव चिन्ह हाथ लग गया।
बहुजन समाज पार्टी ने उत्तर प्रदेश में अपना पहला विधानसभा चुनाव 1989 में लड़ा। इस चुनाव में पार्टी ने 206 सीटों पर उम्मीदवार उतारे और कुल 9.41% वोट शेयर हासिल हुए। पर खाता ही नहीं खुल पाया।
बसपा ने दूसरा चुनाव उत्तर प्रदेश में 1991 में लड़ा। इस चुनाव में पार्टी ने फिर 164 सीटों पर ही उम्मीदवार उतारे। उसे 9.44 फीसदी वोट हासिल हुए। बसपा 12 सीटें जीतने में कामयाब हो गयी।
मायावती की पार्टी ने उत्तर प्रदेश में अपना तीसरा विधानसभा चुनाव 1993 में लड़ा। इस चुनाव में पार्टी ने फिर केवल 164 सीटों पर ही उम्मीदवार उतारें। उसे 11.12% वोट हासिल हुए। पर वह 67 सीटें जीतने में कामयाब हुई। यह बहुजन समाज पार्टी की सबसे बड़ी उपलब्धि उस समय की थी।
इस चुनाव से पहले ही बसपा और समाजवादी पार्टी (सपा) का गठबंधन हो गया था। मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने। हालांकि, यह सरकार ज्यादा समय तक नहीं चली। बाद में बसपा ने भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाई।
1996 में विधानसभा चुनाव हुए।
• बसपा ने 298 सीटों पर चुनाव लड़ा।पार्टी को 19.64% वोट मिला।और फिर वह 67 सीटें जीतने में कामयाब हो गयी। भाजपा के समर्थन से पहली बार मायावती मुख्यमंत्री बनीं। लेकिन मायावती की यह सरकार सिर्फ 4 महीने चली।
2002 के विधानसभा चुनाव आये।
• बसपा ने इस विधानसभा चुनाव में 403 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किये।
• 23.06% वोट हासिल हुए। और उसे 98 सीटें फिर मिल गईं।
• भाजपा के साथ गठबंधन कर मायावती तीसरी बार मुख्यमंत्री बनीं। लेकिन यह गठबंधन भी कुछ ही महीनों में टूट गया।
2007 के विधानसभा चुनाव आये। जिसमें बसपा ने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया।
• बसपा ने 403 उम्मीदवार उतारे। जिसमें 206 सीटें जीतने में कामयाब रही। स्पष्ट बहुमत अपने बलबूते पर हासिल किया।
• 30.43% वोट उसके हाथ लगे।
• पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनी और मायावती 5 साल तक मुख्यमंत्री रहीं।
2012 के विधानसभा चुनाव आये।
• बसपा को 80 सीटें हाथ लगीं।
• 25.91% वोट मिला।
• समाजवादी पार्टी (सपा) ने चुनाव जीतकर अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाया।
2017 विधानसभा चुनाव आये।
• बसपा को सिर्फ 19 सीटें हाथ लगीं।
• वोट शेयर उसका केवल 22.23% रह गया।
• भाजपा ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई । योगी आदित्य नाथ को मुख्यमंत्री बनाया।
2022 के चुनाव में बसपा केवल 1 सीट जीत पाई। वोट शेयर उसका गिरकर 12.83% ही रह गया।
अब बहुजन समाज पार्टी के लोकसभा में प्रदर्शन पर भी चर्चा ज़रूरी हो जाती है।
• 2004: के लोकसभा चुनाव में बसपा ने 24.67 फ़ीसदी वोट के साथ 19 सीटें जीतीं।
• 2009: के चुनाव में 27.42 फ़ीसदी वोट उसे हासिल हुए। और 20 सीटें जीतने में कामयाब हो गयी।
• 2014: के चुनाव में बसपा खाता नहीं खोल पायी। लेकिन उसे तकरीबन बीस फीसदी वोट हाथ लग गये।
• 2019: के चुनाव में समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ गठबंधन के बाद, बसपा का वोट शेयर बढ़कर 22.43 फीसदी हुआ।और उसके 10 सांसद जीतने में कामयाब हुए।
• 2024: में बसपा का प्रदर्शन बहुत ख़राब हुआ। उसके 50 से ज्यादा उम्मीदवार ऐसे थे, जो 1,000 वोट भी जुटा पाने में कामयाब नहीं हुए।
बसपा ने लंबी पारी गठबंधन की भी खेली है।इसलिए गठबंधन की सियासत का ज़िक्र भी ज़रूरी है।
• 1993: में सपा के साथ गठबंधन में बसपा को 67 सीटें मिलीं।
• 1996: में कांग्रेस के साथ गठबंधन में भी इतनी ही सीटें मिलीं।
• सपा के साथ 2019: के गठबंधन में 10 लोकसभा सीटें मिलीं।
• 1975 में मायावती ने दिल्ली विश्वविद्यालय के कालिंदी कॉलेज से कला में स्नातक की डिग्री हासिल की।
• 1976 में उन्होंने मेरठ विश्वविद्यालय से बी.एड. किया। 1983 में दिल्ली विश्वविद्यालय से एल.एल.बी. की उपाधि हासिल की।
• कांशीराम जी के संपर्क में आने के बाद मायावती ने राजनीति की डगर पकड़ी। और राजनीति की राह चढ़ती चली गईं।
• 1989 में मायावती पहली बार लोकसभा में पहुंचने में कामयाब हो गयी थीं।
• मायावती चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं। तीन बार वो गठबंधन की सरकारों के साथ मुख्यमंत्री रहीं। एक बार अपने बलबूते स्पष्ट बहुमत की सरकार उन्होंने बनाया।
उसी मायावती की आज यह हालत हो गयी है कि वह अपनी पार्टी की नैया डूबती हुई देख रही हैं। पर कोई फैसला नहीं ले पा रही हैं। एक कदम आगे तो दो कदम पीछे चलने पर मजबूर हो रही हैं।
बात करते हैं 7 मई ,2024 की। जब मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद पर गाज गिरा दी थी। सीतापुर में दिये गये एक बयान के बाद उन्हें अपरिपक्व बताते हुए अपना उत्तराधिकारी बनाने का फैसला वापस ले लिया था।
लेकिन 47 दिन बाद 2 जून, 2024/को अपना फैसला पलटते हुए आकाश आनंद को उन्होंने फिर से अपना उत्तराधिकारी बना दिया। 2 मार्च ,2025 को मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को पार्टी की सभी जिम्मेदारियों से हटा दिया और स्पष्ट किया कि कोई उनका उत्तराधिकारी नहीं होगा। कहा जा रहा है कि इस फ़ैसले के बाद पार्टी में मायावती ने व्यक्तिगत नियंत्रण को और मजबूत करने की कोशिश में अपने कदम बढ़ाये हैं।
पर आकाश आनंद पर गिरी गाज यह बताती है कि पार्टी के अंदर सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। बहुजन हिताय बहुजन सुखाय का नारा देने वाले हर बसपा कार्यकर्ता के दिलोदिमाग़ में पार्टी और अपनी बहन जी को लेकर बहुत कुछ घूम रहा है। मायावती के समर्थको और कार्यकर्ताओं के लिए मायावती का माया लोक समझ से परे हो रहा है।
हाल के वर्षों में बसपा का वोट शेयर और सीटें लगातार घटती चली जा रही हैं। पार्टी को अपनी रणनीति, नेतृत्व और संगठनात्मक ढांचे में सुधार की जरूरत है। दलित वोट बैंक में सेंध और अन्य पार्टियों के उभरते प्रभाव को देखते हुए, बसपा के लिए अपने आधार को पुनः स्थापित करना चुनौतीपूर्ण है।
भाजपा के प्रति मायावती का नरम रुख पार्टी के नेताओं को पसंद नहीं आ रहा है, जिससे मुस्लिम नेता बसपा का साथ छोड़ रहे हैं। यह भी कहा जाता है कि वह अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ संवाद नहीं करती हैं, जिससे पार्टी का जनाधार लगातार घट रहा है।
मायावती ने लोकसभा चुनाव में अकेले चुनाव लड़ने की योजना बनाई है, जिससे यह संकेत मिलता है कि वे किसी गठबंधन की बजाय अपने दम पर चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश करेंगी। लेकिन इससे पहले मायावती को आगामी विधानसभा चुनाव में भी उतरना ही होगा। विधानसभा चुनाव के लिहाज़ से उनकी कोई बड़ी तैयारी दिख नहीं रही है।
लेकिन बसपा के वोटरों, मायावती के प्रशंसकों और राजनीतिक विशेषज्ञों को मायावती इस दिशा में कुछ करती हुई दिख नहीं रही हैं।उनके हर फ़ैसले में अनिश्चय और भय पढ़ा जा सकता है। वह सहमी सी दिखने लगीं हैं, आयरन लेडी वाली मायावती जाने कहाँ चली गयी हैं। एक ऐसे समय जब मायावती को अपने वोट बैंक को एक बार फिर सहेजना है, सबकी नज़रें मायावती के वोट बैंक पर ही है। दलित हितों की सियासत करने वाले चंद्रशेखर रावण का आविर्भाव हो चुका है।चंद्रशेखर रावण जिस दलित राजनीति को लेकर इमर्ज हो रहे हैं, वह मायावती की सियासत से एक दम उलट है। मायावती केवल रैलियों के मार्फ़त दलितों को संबोधित करती है। किसी दलित से मिलती जुलती नही हैं। उनके सुख दुख में शरीक नहीं होती हैं। चंद्रशेखर रावण इसके ठीक उलट संवाद करते हैं। लोगों के बीच जा कर के सियासत करते हैं। ऐसे में मायावती को अपने पुरानी राजनीतिक रंग ढंग को बदलना होगा।
अपने कमरे के एकांत से निकल कर अपने मतदाताओं के बीच जाना होगा। मतदाताओं के सुख दुख का भागी बनना होगा। सहमी, डरी मायावती का मुल्लमा उतार फेंकना होगा। ऐसे में मायावती के प्रशंसकों और मतदाताओं को भी यह उम्मीद जगनी स्वाभाविक है कि उनकी बहन जी उनकी पार्टी को खड़ा करने के लिए, मिशन को बनाये रखने के लिए खुद में कितना परिवर्तन करती है। राजनीतिक पंडित और दूसरे पार्टी के लोग इस बात को लेकर मुतमइन हैं कि मायावती अब वॉक ओवर दे चुकी हैं। वे इस बात का इंतज़ार कर रहे हैं कि आखिर मायावती के इस वॉक ओवर देने का फ़ायदा कौन उठाता है। मायावती के मतदाता किस ओर रुख़ करते हैं। ऐसे में अब यह देखना बहुत ज़रूरी हो जाता है कि मायावती अब किस तरह के फ़ैसले लेंगी। उनके परिवार में जो कुछ चल रहा है, आकाश आनंद को लेकर के जो फ़ैसले उन्होंने लिए वे सब मायावती के बैक फुट पर रहने का जो संदेश हैं, उन सब को बदलने के लिए मायावती क्या करती हैं। कैसे वो अपने पॉलिटिकल पार्टी को खड़ा करती हैं, उनके लोग मायावती के विरोधी, मायावती के समर्थक और मतदाता सब के सब की नज़र मायावती पर लगी हुई है। देखना है कोई फ़ैसला लेकर के फिर से खड़ी होती हैं।या वह वॉक ओवर देते हुए अपने मतदाताओं को कहीं और जाने का एक ख़ामोश संदेश देती हैं।