Brahmin Politics in UP: Parshuram को BSP और SP अपना क्यों बता रहें, देखें Y-Factor...

यदि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी द्वारा की गई घोषणाएं वाकई हकीकत बन जाती है, तो...

Written By :  Yogesh Mishra
Published By :  Praveen Singh
Update:2021-07-27 15:41 IST

Brahmin Politics in UP: यदि समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) और बहुजन समाज पार्टी (Bahujan Samaj Party) द्वारा की गई घोषणाएं वाकई हकीकत बन जाती है । तो भगवान परशुराम बाबा साहब अंबेडकर के बाद उस दूसरी विभूति के तौर पर याद किए जाएंगे ।जिनकी प्रतिमाएं राजनीतिक कारणों से शहरों और गांव के चौराहों पर स्थापित की गई ।

लेकिन महापुरुष जैसे ही राजनीतिक प्रतीकों में रूपायित होते हैं।वैसे ही उनके प्रति विरोध भाव रखने वाला एक राजनीतिक वर्ग पैदा हो जाता है। समय समय पर गांधी जी और अम्बेडकर की प्रतिमाओं को ऐसे विरोध झेलने पड़े है।

इस बार यह मामला कुछ पेचीदा भी है। भगवान परशुराम की मूर्ति लगाने का दावा सपा बसपा दोनों ने कर डाला है। सपा ने कहा है कि लखनऊ में १०८ फ़ीट ऊँची भगवान परशुराम की मूर्ति वह लगवायेंगी। बसपा की मायावती बोल उठीं कि परशुराम के नाम पर हर ज़िले में कोई न कोई संस्थान खोलेंगी। कांग्रेस के जितिन प्रसाद ब्रह्म चेतना संवाद कर रहे हैं।

एक महापुरुष पर दो दो दलों का दावा है। मेरी कमीज उसकी कमीज से ज्यादा सफेद की तर्ज पर मूर्तियों की भव्यता को लेकर दावे शुरू हो गए हैं। हैरत नही कि आने वाले दिनों में यह हज़ार करोड़ की परियोजनाओं में बदलते दिखे। मगर यह सवाल तब भी सबसे बड़ा होगा कि इसका फायदा होगा या नही। होगा तो किसको होगा।

राजनीति दलों ने विकास दुबे के इनकाउंटर में मारे जाने के बाद ब्राह्मणों के बीच हलचल सुनी। पर वे यह भूल गये कि जिस ब्राह्मण जाति का प्रतीक पुरूष रावण नहीं हो पाया। वह रावण जो प्रकांड पंडित था। वह रावण जिसने कई देवताओं से मनचाहा आशीर्वाद ले रखा था। तो विकास दुबे कैसे ब्राह्मण एकजुटता का आधार बन सकता है?

लेकिन यह ज़रूर है कि सूबे की सत्ता से ब्राह्मण पता नहीं क्यों उपेक्षा का भाव महसूस कर रहा है। वह भी तब जिस पार्टी की सरकार है। उसका राष्ट्रीय मुखिया ब्राह्मण है। प्रदेश में उपमुख्यमंत्री ब्राह्मण हैं। नौकरशाही में मुख्य सचिव व पुलिस महानिदेशक दोनों पद ब्राह्मण के पास है। तक़रीबन ९ ब्राह्मण मंत्री हैं। बावजूद इसके उपेक्षा भाव है। तभी तो मंत्री ब्रजेश पाठक को ब्राह्मणों के काम काज देखने के लिए सरकार को अलग से लगाना पड़ा।

सवाल यह उठता है कि आख़िर ब्राह्मणों के बीच बेचैनी क्यों है? क्या परशुराम की मूर्ति लगाकर उनके भाव बदले जा सकते है? जो लोग परशुराममय हुए हैं , उनकी मंशा कितनी पाक साफ़ है? इन सवालों का जवाब तलाशते हुए तमाम चौंकाने वाले तथ्य हाथ लगते हैं।बेचैनी की वजह सुनवाई का न होना है। नौकरशाही ने सरकार को आम सुनवाई के मोड से अलग हटा कर रख दिया है। लेकिन मायावती व अखिलेश यादव की सरकार में भी ब्राह्मण आम सुनवाई से बाहर रहा है।

यह तब था जब कि मायावती की तो पहली बार स्पष्ट बहुमत की सरकार ब्राह्मण दलित एकता से खड़ी हो पाई थी। मायावती तो तिलक तराज़ू के ख़िलाफ़ नारा लगाकर सत्ता में आने वाली पार्टी की नेता है। उन्होंने ही बाद में यह नारा दिया-"ब्राह्मण शंख बजायेगा। हाथी दौड़ा जायेगा।" उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण मतदाताओं की तादाद बारह फ़ीसदी बैठती है। सारा का सारा आकर्षण इसी बारह फ़ीसदी के लिए है।

एक ऐसे समय जब राम मंदिर का शिलापूजन हुआ हो । उसके तुरंत बाद परशुराममय होना ।क्या राम बनाम परशुराम की कोई दूर की कौड़ी वाली सियासत तो नहीं है? हमारे यहाँ प्रतीकों की राजनीति पश्चिम से आई है। अपनी पुस्तक मेमोरियल मैनिया में अमेरिकी लेखिका एरिका डॉस ने इसका जिक्र किया है कि अमेरिका में हर तरह के स्मारक क्यों बढ़ रहे हैं। वह कहती हैं, स्मारकों के लिए यह उन्माद 19वीं शताब्दी के मध्य से 20 वीं शताब्दी तक की मूर्तियों के जुनून से जुड़ा हुआ है।

श्रीलंका की आज़ादी के बाद से संकेतों की राजनीति एक ट्रेंड बन गयी है। भाषाई राष्ट्रवाद, बौद्ध धर्म के नायकों का स्मरण – ये सब सिंहली राजनीतिक दलों का चुनाव जेतने का मुख्या जरिया बना रहा है। चीन में सांस्कृतिक क्रांति के बाद माओ ही एकमात्र संकेत बना दिए गए।अब यही सांकेतिक राजनीति माओ से हट कर शिनपिंग पर केन्द्रित कर दी गयी है। तुर्की में संकेतों की राजनीती का ताजा उद्धरण हदिया सोफिया का है। कहा जा सकता है कि भारत एकमात्र ऐसा देश नहीं है, जो मूर्तियों के उन्माद से पीड़ित है। भारत में प्रतिमाएं राजनीतिक कथाओं को आकार देने के लिए बनाई गई । यहाँ मूर्तियाँ महापुरुषों की शिक्षा बताने व उनके योगदान को याद करने के काम नहीं आतीं। बल्कि मूर्तियाँ जातीय चेतना को जागृत करने और एकजुट करने के काम आती हैं। जो लोग परशुराम की मूर्ति लगाने के बारे में कह रहे हैं। उनसे परशुराम के बारे में पूछा जाये कि वह क्या व कितना जानते हैं?

देश में महापुरुषों को जाति से जोड़ने और जातीय गौरव बताने की जो हवा राजनेता चला रहे हैं, वह महापुरुषों, प्रतीक पुरूषों, देश में योगदान करने वाले प्रेरणा पुरूषों की महत्ता को खंड खंड कर रही है। परशुराम भगवान हैं। वह विष्णु के छठवें अवतार हैं।कोंकण, गोवा व केरल में सभी जातियों में परशुराम वंदनीय हैं। उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों के लिए वह पूजनीय बनाये जा रहे हैं। राजनेताओें के खंड खंड पाखंड ऐसे ही ज़मीन पाते रहे तो भगवान राम क्षत्रिय, कृष्ण क्षत्रिय या यादव हो जायेंगे।

अंबेडकर जी को हमने दलित बना ही दिया है। गांधी जी पर तैलीय समाज की दावेदारी, सरदार पटेल पर कुर्मी समाज का दावा, ऊदा देवी, राजा सुहेल देव,निषाद राज को हम ओबीसी बता व जता चुके हैं। महाराणा प्रताप को क्षत्रिय बना दिया। अशोक महान को हम पिछले बिहार चुनाव से उनकी जाति के खाँचे में बांध चुके हैं।

अगर तुलना करें तो आंबेडकर ने दलितों के लिए जो किया, बिल्कुल वही काम लोहिया ने पिछड़ों को सशक्त बनाने के लिए किया। अंबेडकर के प्रति पिछड़े और लोहिया के प्रति दलित क्या भाव रखते हैं, यह किसी से छुपा नहीं है। हम समझ नहीं पा रहे कि आख़िर अपने प्रतीक पुरूषों, प्रेरणा पुरूषों, महापुरुषों के साथ हम कर क्या रहे हैं। उन्हें खंडित करने पर हम क्यों आमादा हैं। हमें इन्हें राष्ट्र के समूचे लोगों की आस्था और श्रद्धा का केंद्र व पात्र रहने देना चाहिए । इनके नाम पर सियासत करके वोटों की फसल काटने व सरकार बनाने का काम नहीं करना चाहिए ।

इनकी शिक्षाओं को जन जन तक पहुँचाने का काम करना चाहिए ताकि लोग इनके बारे में जानें और इन पर गर्व कर सकें। उनके बारे में फैलाये गये झूठ का वायरल टेस्ट करके सही बात बतायी जानी चाहिए। मसलन, परशुराम जी के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने क्षत्रियों के समूल नाश का बीड़ा उठाया था। उन्होंने पृथ्वी को क्षत्रियों से ख़ाली कर दिया था। लेकिन हक़ीक़त यह है कि उनकी दुश्मनी केवल हैहयवंशी क्षत्रियों से थी। वह भी इस लिए कि इस वंश के राजा ने परशुराम के पिता जमदग्नि का वध कर दिया था।

राजा व ऋषि जमदग्नि के बीच लड़ाई की वजह ऋषि के आश्रम की कपिला गाय थी। राजा उसे ज़बरदस्ती ले गये। कुपित परशुराम ने बाद में राजा कर्त्तवीर्य अर्जुन से युद्ध कर उन्हें मार डाला। बाद में राजा के बेटों ने ऋषि जमदग्नि का वध कर दिया।उनके साथ परशुराम की माँ रेणुका सती हो गयीं।

कहा यह भी जाता है कि परशुराम इतने पितृ भक्त थे कि उन्होंने पिता के कहने पर माँ का सर काट दिया था। पर इसके आगे कि हक़ीक़त नहीं बतायी जाती है कि बाद में पिता से माँ को जीवित भी करवा लिया था। वह बाद में अपने पति के साथ सती हुईं।

भगवान परशुराम का जन्म वैशाख शुक्ल तृतीया को इंदौर ज़िले के गाँव मानकपुर के जाना पाथ पर्वत पर हुआ था।वे भार्गव गोत्र के थे। इनके जन्म के लिए ऋषि जमदग्नि को पुत्रेष्टि यज्ञ करना पड़ा था। यज्ञ के बाद भगवान इंद्र के आशीर्वाद से परशुराम का जन्म हुआ। शिक्षा महर्षि विश्वामित्र व ऋचिक के आश्रम में हुई थी।

ऋचिक से उन्हें सारंग नामक दिव्य धनुष मिला था। शिव से उन्हें कृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच,स्वराज स्त्रोत एवं मंत्र कल्पतरु प्राप्त हुए थे। भीष्म, द्रोण व कर्ण को उन्होंने शस्त्र विद्या की शिक्षा प्रदान की थी। कर्ण को श्राप भी दिया था। रामायण, महाभारत, भागवत पुराण व कल्कि पुराण में भगवान परशुराम का ज़िक्र है। उन्होंने ऋषि अत्रि की पत्नी अनुसूइया, ऋषि अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा व अपने शिष्य अकृतवण के सहयोग से नारी जागृति का अभियान चलाया था। वह पशु पक्षियों भाषा समझते थे।उनसे बातें करते थे।

कहा जाता है कि उन्होंने अपने तीर से समुद्र को पीछे धकेल कर ज़मीन ख़ाली कराई। गुजरात से लेकर केरल तक का इलाक़ा यही है। कहा जाता है कि भगवान विष्णु ने त्रेता में राम अवतार होने पर तेजोहरण के उपरांत कल्याण पर्यंत तपस्यारत भू लोक पर रहने का उन्हें वरदान दिया था। उनका तेज सीता स्वयंवर के समय शिव के धनुष टूटने के बाद लक्ष्मण संवाद के बाद भगवान राम के अवतार की परीक्षा लेने के लिए अपने दिव्य सारंग धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए देने और भगवान राम के छूते ही सारंग की प्रत्यंचा चढ़ जाने के साथ ही चुक गया।

वहाँ परशुराम जी ने कहा- "अनुचित बहुत कहेहू अज्ञाता, क्षमहु क्षमा मंदिर दोऊ भ्राता ।" किसी जाति को एकजुट करने का फ़ार्मूला ग़लत है। एकजुट करने की प्रक्रिया में नकारात्मकता अंतर निहित रहती है। जातियों को सचेत रहना और करना चाहिए । यह कोई राजनीतिक दल नहीं करना चाहता क्योंकि सचेत होने पर जनता जनार्दन गणतंत्र के साथ ही गुणतंत्र भी तलाशने लगेगी। जिसका हमारे राजनेताओें में, हमारे राजनीतिक दल में और हमारे लोकतंत्र में सर्वथा अभाव है। 

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