Sri Krishna Janmabhoomi Dispute: श्री कृष्ण जन्मभूमि विवाद का जन्म कब हुआ
Sri Krishna Janmabhoomi Dispute: श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ ने उसी कारागार स्थली पर भगवान श्रीकेशवदेव के प्रथम मन्दिर की स्थापना की। कालान्तर में इसी स्थल पर बार-बार भव्य मंदिरों का निर्माण हुआ।
Sri Krishna Janmabhoomi Dispute: कभी भारतीय जनता पार्टी की सभाओं में यह नारा लगता था- कि अयोध्या तो झांकी है, मधुरा- काशी बाक़ी है। तमाम लड़ाईयों और अदालती फ़ैसले के बाद जब बहुसंख्यक समाज को अयोध्या में राम जन्मभूमि पर राम मंदिर निर्माण का आदेश हासिल हो गया। तो निश्चित तौर से उनके हौसलों को पंख लगना था। तो उनकी नज़र मथुरा और काशी की तरफ़ जानी ही थी। इन दिनों मथुरा और काशी दोनों जगह बहुसंख्यकों ने अपने दावे ठोके हैं। अदालती प्रक्रियाएं चल रही है और कोशिश हो रही है कि किसी भी तरह दोनों पक्ष अपने अपने दावे पुख़्ता कर ले जायें। लेकिन इस बीच यह जानना ज़रूरी हो जाता है कि अयोध्या के बाद मथुरा और काशी के बहुसंख्यकों के दावों में कितना दम है। और अल्पसंख्यक जो कुछ कह रहे हैं, उसकी ज़मीन कितनी मज़बूत हो सकती है।
श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ ने प्रथम मन्दिर की स्थापना की
लीला पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण का प्राकट्य वर्तमान कटरा केशवदेव में स्थित कंस के कारागार में लगभग 5247 साल पूर्व हुआ था। श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ ने उसी कारागार स्थली पर भगवान श्रीकेशवदेव के प्रथम मन्दिर की स्थापना की। कालान्तर में इसी स्थल पर बार-बार भव्य मंदिरों का निर्माण हुआ। अन्तिम 250 फुट ऊँचा मन्दिर जहाँगीर के शासन में ओरछा के राजा वीरसिंह देव ने बनवाया। जिसे औरंगजेब ने अपनी कुटिलता के वशीभूत 1669 में ध्वस्त कर मन्दिर की सामग्री से मन्दिर के अग्रभाग पर ईदगाह मस्जिद का निर्माण कराया, जो आज भी विद्यमान है। मुगल शासन पर कई पुस्तक लिखने वाले यदुनाथ सरकार की “एनिट डॉट्स ऑफ औरंगजेब” पुस्तक में भी फरमान की कॉपी उपलब्ध है। लेखक यात्री निकोलम मनूची ने भी अपनी किताब “इंस्टोरिया डो मोगर” में इसका जिक्र किया है।
1951 में श्रीकृष्ण-जन्मभूमि ट्रस्ट की स्थापना
मराठाओं ने मुगल शासकों को पराजित करने के बाद अप्रैल, 1770 में अपनी जीत की ख़ुशी में मथुरा में मंदिर बनवाया। 1815 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने नजूल भूमि के रूप में इस ज़मीन को एक बहुत बड़ी बोली पर नीलाम किया। सबसे ऊंची बोली लगाकर के वाराणसी के राजा पटनी मल ने इस ज़मीन को खरीदा। जहां आज भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव का एक भव्य मंदिर बनाने के लिए बहुसंख्यक समाज कोशिश कर रहा है। कटरा केशवदेव के सम्पूर्ण परिसर 13.37 एकड़ को धर्मानुरागी सेठ जुगलकिशोर बिरला ने महामना मदनमोहन मालवीय की प्रेरणा पर क्रय कर 1951 में श्रीकृष्ण-जन्मभूमि ट्रस्ट की स्थापना कर सम्पूर्ण भूखण्ड ट्रस्ट को समर्पित कर दिया। तभी से सम्पूर्ण परिसर ईदगाह सहित का स्वामित्व श्रीकृष्ण-जन्मभूमि ट्रस्ट का है। जिसका दैनन्दिन प्रबंधन श्रीकृष्ण-जन्मस्थान सेवा-संस्थान द्वारा किया जा रहा है।
जानें अदालत ने कब कब क्या क्या कहा?
1877 के मध्य राजा नृसिंह दास के पक्ष में 6 मुकदमे डिक्री हुए। 1920 में मुकदमा हिन्दू पक्ष में हुआ। 1921 में अपील की, वह भी खारिज हो गई। 1928 में राय कृष्णदास ने मुस्लिमों के विरुद्ध मुकदमा किया जो उनके पक्ष में डिक्री हुआ। उसकी अपील इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुस्लिमों ने की । वह भी 1935 में खारिज हो गई । 08 फरवरी,1944 को मदनमोहन मालवीय, गोस्वामी गणेशदत्त व भीखनलाल आत्रेय के नाम जुगलकिशोर बिरला के आर्थिक सहयोग से कटरा केशवदेव की 13.37 एकड़ भूमि क्रय की गई।21 फरवरी, 1951 को श्रीकृष्ण-जन्मभूमि ट्रस्ट पंजीकृत हुआ। भूमि के तीनों स्वामियों ने भूमि ट्रस्ट को समर्पित कर दी। 21 जनवरी, 1953 को सिविल मुकदमा 4/1946 खारिज हुआ । जो मुसलमानों ने बेनाम निरस्ति के लिये किया था। 01 मई, 1958 को ट्रस्ट ने प्रबंधन के लिए श्रीकृष्ण-जन्मस्थान सेवा-संघ नामक समिति पंजीकृत करायी। 1959 में पुनः मुस्लिमों ने मुकदमा 361/1959 किया, जो खारिज हो गया। 1967 में श्रीकृष्ण-जन्मस्थान ने मुसलमानों को परिसर खाली करने और ढाँचा हटाने के लिए मुकदमा किया । जो 12 अक्टूबर,1968 के समझौते के आधार पर 1974 में समाप्त हुआ। 07 मई, 1993 को मनोहरलाल शर्मा एडवोकेट ने 12 अक्टूबर, 1968 के समझौते को नियम विरुद्ध बताकर धारा 92 में संस्थान के विरुद्ध मुकदमा किया । जिसे जनपद न्यायाधीश ने खारिज कर दिया।
उसके बाद अब तक इस मामले हरिशंकर जैन, रंजना अग्निहोत्री व विष्णु जैन की ओर से श्रीकृष्ण विराजमान, अधिवक्ता महेंद्र प्रताप की ओर से वाद केशव देव व हिन्दू महासभा सहित आधा दर्जन से अधिक वाद विचाराधीन है।
जाने तत्कालीन शाही ईदगाह के अध्यक्ष प्रो.जेड हसन ने क्या कहा था?
जब बहुसंख्यक समाज ने वाद दायर कर दिया तब शाही ईदगाह के अध्यक्ष प्रो.जेड हसन ने अपनी चुप्पी तोडी। उन्होंने कहा कि सन 1968 में एक समझौता हुआ था। जिसके तहत काफ़ी ज़मीन मंदिर को दे दी गयी थी। जिस पर विशाल मंदिर बना। थोड़ी सी ज़मीन मुसलमानों को भी मिली। जिस पर आज भी ईद की नमाज अता होती है। प्रो.जेड हसन ने उन हिन्दू साधु संतों को भी बाल कृष्ण भट्ट के लेख- विष्णु घट गयो जो भिरगू मारी लात के माध्यम से अपील की कि संतो की सहिष्णुता का परिचय देना चाहिए।
1968 में ढाई रूपये के स्टांप पेपर पर हुआ समझौता
वर्ष 1968 में तत्कालीन डीएम व एसपी के सुझाव पर हुआ था लिखित समझौता। यह समझौता ढाई रूपये के स्टांप पेपर पर किया गया था। इसमें श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ और शाही मस्जिद ईदगाह कमेटी ने दस प्रमुख बिन्दुओं पर समझौते किये थे। इस समझौते को अवैध करार देते हुए कोर्ट में दाखिल दावे में मस्जिद को हटाने की मांग की गई है। उस समझौते का विरोध भी सेवा संघ को पत्र लिखकर किया गया था।
इस समझौते का उल्लेख कई पुस्तकों में दर्ज भी है, जिनमें न्यायिक स्थिति श्रीकृष्ण जन्मस्थान नामक पुस्तक में इस समझौते का उल्लेख है। यह समझौता वर्ष 1968 के 10 अगस्त को हुआ था । उस समय तत्कालीन जिलाधिकारी आरके गोयल और एसपी गिरीश बिहारी भी उपस्थित थे। दोनों के सुझाव पर दोनों पक्षों के आपसी रजामंदी पर यह समझौता हुआ था। तब श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ की ओर से समझौते पर हस्ताक्षर सह सचिव देवधर शर्मा, उनके सहयोगी फूलचंद्र गुप्ता ने किए थे। मामले में अधिवक्ता अब्दुल गफ्फार थे। श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ के सदस्य गोपेश्वर नाथ चतुर्वेदी बताते हैं कि शाही मस्जिद ईदगाह कमेटी की ओर से समझौते में शाहमर मलीह, डा.शाहबुद्दी साकिब, आबिदुल्ला खां,मौहम्मद आकूब आलूवाला के हस्ताक्षर थे, जबकि अधिवक्ता रज्जक हुसैन थे।
विश्व हिन्दू परिषद के तत्कालीन जिलाध्यक्ष समझौते पर हस्ताक्षर का विरोध किया
विश्व हिन्दू परिषद के तत्कालीन जिलाध्यक्ष डा. रमनदास पंडया और चंद्रभानु ने श्रीकृष्ण सेवा समिति को इस समझौते पर हस्ताक्षर करने से मना करने के लिए अभियान भी चलाया था। उनका कहना था कि जिस धार्मिक स्थल का विकास हो रहा है , जहां पर भव्य मंदिर बनाना है। उसका एक छोटा सा हिस्सा मुसलमानों को देना उचित नहीं होगा। उन्होंने सेवा संघ का ट्रस्टियों से यह आग्रह किया था कि उस ज़मीन का अंग भंग न करें। पुनर्विचार करें।
समझौते में ये प्रमुख मुद्दे तय हुए थे
श्रीकृष्ण जन्मस्थान और ईदगाह से जुड़े पक्षों में जो समझौता हुआ था उसमें निम्नलिखित प्रमुख मुद्दे तय हुए थे- मस्जिद निर्माण समिति दो दीवारों का निर्माण की जिम्मेदारी दी थी। जिसमें ईदगाह के ऊपर के चबूतरे की उत्तर व दक्षिण दीवारों को पूरब की ओर रेलवे लाइन तक बढ़ाकर उपरोक्त दोनों दीवारों को बनाएगी। साथ ही यह भी तय हुआ था कि मस्जिद कमेटी मुस्लिम आबादी को खाली कराकर संघ को सौंपेगी। साथ ही यह भी तय हुआ था कि एक अक्टूबर 1968 तक दक्षिण की ओर जीने का मलबा मस्जिद कमेटी उठा लेगी। समझौते में यह भी था कि मुस्लिम आबादी में जिन मकानों का बैनामा उत्तर और दक्षिण वाली दीवारों के बाहर अपने हक में जो कराया है उसे संघ को दे देगी। साथ ही जन्मस्थान की ओर आ रहे ईदगाह के पनाले ईदगाह की कच्ची सड़क कर्सी की ओर मोड़ा जाएगा। इसका खर्च जन्मस्थान संघ वहन करेगा। साथ ही पश्चिमी उत्तरी कोने में जो भूखंड संघ का है ऊसमें कमेटी अपनी कच्ची कुर्सी को चौकोर करेगी और वह उसी की मिल्कियत मानी जाएगी तथा रेलवे लाइन के लिए जो भूमि संघ अधिग्रहित कर रहा है, जो भूमि ईदगाह के सामने दीवारों के भीतर आएगी उसे कमेटी को दे देगा। ईदगाह और श्रीकृष्ण जन्मस्थान से जुड़े दोनों पक्षों की ओर से सभी शर्ते पूरी होने पर जो मुकदमें चल रहे हैं, उसमें राजीनामा दाखिल होगा और सभी मुकदमें आपसी सहयोग और सहमति से वापस होंगे।
अदालती फ़ैसले
ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा नीलाम की गई ख़रीदी गई ज़मीन और उसका एक छोटा सा हिस्सा मुसलमानों को दे देने के बाद आज भी जो सवाल तिर रहे हैं। जिस तरह अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक अपने अपने दावे कर रहे हैं। जिस तरह अदालत में कार्यवाही चल रही है। उससे साफ़ है कि अगर देश में अमन चैन क़ायम रखना है तो निश्चित तौर से किसी न किसी को समझौता करना होगा। और समझौता करना चाहिए । हालाँकि समझौते की शुरुआत अगर राम मंदिर से ही हो गई होती तो शायद मथुरा और काशी की बारी नहीं आती। अल्पसंख्यक समाज ने राम मंदिर पर समझौता नहीं किया। नतीजतन मधुरा और काशी की बारी आई है। और उनको इस पर विचार करना चाहिए कि औरंगजेब की शिनाख्त को वे बनाये रखना चाहते हैं। या भगवान कृष्ण और बाबा विश्वनाथ को बने रहना चाहिए ।आज जब राजनीति एक दूसरी करवट ले चुकी है। तब बहुसंख्यक समाज के सामने नहीं बल्कि अल्पसंख्यक समाज के सामने सोचने का प्रश्न है। और देश में कैसी धारा बहेगी इस की ज़िम्मेदारी उन पर है।