नेता बेईमान हो तो हरा देना, देखें Y-FACTOR Yogesh Mishra के साथ

Y-FACTOR Yogesh Mishra : राजनेता जो कभी रोल मॉडल हुआ करते थे, वे अब रोल मॉडल नहीं रह गये। चुनाव के दौरान इनकी भाषा देखिये तो आपको लगेगा कि देश किधर जा रहा है। बड़े से बड़ा राजनेता भी छोटी से छोटी बातें बोलता है।

Written By :  Yogesh Mishra
Published By :  Shreya
Update:2022-03-02 13:49 IST

Y-FACTOR Yogesh Mishra : वैसे तो हर साल कहीं न कहीं किसी न किसी राज्य में चुनाव होते रहते हैं। किसी साल में ऐसा नहीं होता कि देश के किसी इलाक़े में चुनाव न हो रहे हों। चुनाव व निर्वाचन प्रक्रिया को लेकर मतदाताओं में उदासीनता भी देखी जा सकती हैं। पढ़ी जा सकती है। पता चलता है कि लोग अब वर्तमान राजनीतिक प्रक्रिया से क्षुब्ध हैं। क्योंकि वोट डालने के लिए बहुत से लोग बाहर नहीं निकल रहे हैं। दिलचस्प यह है कि आज के तारीख़ में लोगों के चुनाव यानि विधानसभा व लोक के चुनाव इतने मंहगे हो गये हैं कि आम आदमी चुनाव को लड़ ही नहीं सकता है। आम आदमी लायक़ ये चुनाव अब रह ही नहीं गये हैं।

इन सबके बाद भी हमारे आपके बीच राजनीति सबसे अधिक चर्चा का विषय होती है। हालाँकि तमाम लोगों को अपने अपने नेताओं के कामकाज से वेदना है। दुख है। राजनेता जो कभी रोल मॉडल हुआ करते थे, वे अब रोल मॉडल नहीं रह गये। चुनाव के दौरान इनकी भाषा देखिये तो आपको लगेगा कि देश किधर जा रहा है। बड़े से बड़ा राजनेता भी छोटी से छोटी बातें बोलता है। एक दूसरे पर प्रहार जब किये जाते हैं तब देखिये कितने ओछे शब्दों का इस्तेमाल होता है। कोई आदमी अपने नाम व अपने काम पर वोट नहीं माँगता है। वोट माँगने का नया तरीक़ा निकला है, दूसरे को बदनाम कीजिये। और दूसरे के काम को कम करके दिखाइये। यानी आपकी शर्ट हमारी शर्ट से सफ़ेद कैसे हो सकती है। बस यह है, इन दिनों के चुनाव का तक़ाज़ा व तरीक़ा।

हम एक ऐसे दौर में चलते हैं, जब चुनाव का यह तरीक़ा नहीं था। जब चुनाव इस तरह लड़े नहीं जाते थे। राजनेता इस तरह के नहीं थे। वह दौर और उस तरह तरह के लोगों को जानना इसलिए ज़रूरी हो जाता है। ताकि आपको लगे कि राजनीति किस तरह कहाँ से चलकर कहाँ तक पहुँची है। और आप यह तय कर सकें कि राजनीति की पतन होरा है या राजनीति ऊपर की ओर जा रही है।

रहा है या राजनीति ऊपर की ओर

1977 में बांसगांव से सांसद रहे फिरंगी प्रसाद के चुनाव प्रचार में एक बार चौधरी चरण सिंह आए थे। चौरीचौरा रेलवे स्टेशन के सामने उनकी सभा थी। उन्होंने मंच पर बैठे फिरंगी प्रसाद का हाथ पकड़कर उन्हें सीट से उठाया और कहा - यदि मेरा प्रत्याशी बेइमान हो तो उसे जरूर हरा देना। इस पर भीड़ से आवाज उठी - इन पर कोई आरोप नहीं है। बाद में फिरंगी प्रसाद चुनाव जीत गए। उन्हें क्षेत्र में पड़े कुल वोट का 75 फीसदी हासिल हुआ, जो कि अपने आप में एक रिकॉर्ड है।

बिहार के सुपौल में दो नेता हुआ करते थे लहटन चौधरी और परमेश्वर कुंवर। राजनीति के दंगल में दोनों एक दूसरे के प्रतिद्धंदी थे। लेकिन दोनों के बीच के आपसी प्रेम में कभी कड़वाहट देखने को नहीं मिली। एक बार चुनाव में लहटन चौधरी की गाड़ी खराब हो गई। तभी उधर से परमेश्वर गुजर रहे थे उन्होंने देखा तो कार से पाना झंडा उतार कर गाडी लहटन को दे दी। कई बार ऐसा हुआ कुंवर पैदल चुनाव प्रचार में होते तो लहटन की कार में बैठ कर प्रचार के लिए जाते थे।

बिहार के समाजवादी नेता शिवशंकर यादव ने 1977 में जनता पार्टी की लहर में भी उसका टिकट लेने से इनकार कर दिया था। ऐसा इसलिए क्योंकि 1971 के लोकसभा चुनाव में खगड़िया लोकसभा सीट का सांसद बनने के बाद का उनका अनुभव कुछ अच्छा नहीं रहा था। शिवशंकर यादव 1971 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के चुनाव चिह्न पर देश भर में विजयी कुल तीन प्रत्याशियों में से थे।

1977 की जनता लहर में शिवशंकर यादव से खगड़िया से फिर से चुनाव लड़ने को कहा गया तो उनका उत्तर था- न मैं टिकट लूंगा और न ही चुनाव लड़ूंगा। सांसद होने का क्या मतलब, अगर मतदाता आपके पास गलत कामों को कराने की पैरवी कराने आने लगें? एक बार की सांसदी में ही मैं ऐसे कामों की पैरवी से इनकार करते-करते तंग आ चुका हूं। मेरी अंतरात्मा इस तरह आगे और तंग होते रहने की इजाजत नहीं देती। 

कितने मन से करते थे ये नेता पॉलिटिक्स

आप सोचिये कि कैसे मन से, कैसे जी से और कितने जीवट से ये लोग पॉलिटिक्स करते थे। आज की तारीख़ में क्या किसी नेता में यह साहस है कि वह चुनाव लड़ने से मना कर सके। उत्तराखंड के हरबंस कपूर 1985 में भाजपा के टिकट पर देहरादून विधानसभा सीट से चुनाव लड़ते हुए कांग्रेस प्रत्याशी हीरा सिंह बिष्ट से चुनाव हार गए थे। यह उनका पहला चुनाव था। लेकिन इसके बाद वे हर चुनाव जीते। पूर्व विधायक हीरा सिंह बिष्ट बताते हैं कि चुनाव प्रचार के दौरान भी वे दोनों चाय के दुकान पर साथ बैठते थे। हंसी मजाक किया करते थे। किसी की मदद करने की बात आती तो एक साथ मिलकर उसकी मदद करते। हरबंस कपूर ने कभी किसी प्रत्याशी के ऊपर व्यक्तिगत प्रहार नहीं किये थे।

1967 के चुनाव में एक नेता हुआ करते थे तेज सिंह भाटी। वो बुलंदशहर जिले के थे। तेज सिंह भाटी हमेशा अकेले पैदल यात्रा कर चुनाव प्रचार करते थे। उनकी खासियत थी कि देर शाम तक प्रचार करने बाद जिस गांव में रात हो जाती थी,वहीं रुक जाया करते थे। गांवों में मतदाताओं यहां भोजन करते और रात्रि निवास भी उन्हें के यहां करते। तेज सिंह अपने साथ कपड़े साथ में रखते थे। जिस घर में रुकते अगली सुबह वहीं कपड़े धोते। जब तक गांव में लोगों के साथ जनसभा करते तब तक कपड़े सूख जाते। उसके बाद उनकी इस्त्री करवा लेते। फिर दूसरे गाँव को निकल लेते थे।

1977 के चुनाव में रीवां के महाराज मार्तंड सिंह प्रचार करने से पहले अपने प्रतिद्वंद्वी समाजसेवी यमुना प्रसाद शास्त्री के पैर छू कर आशीर्वाद लेते थे। पूरे प्रचार में मार्तंड सिंह उनके खिलाफ एक शब्द नहीं बोलते थे। इसकी वजह थी यमुना प्रसाद की शख्सियत, उन्होंने गोवा के मुक्ति संग्राम में हिस्सा लिया था और वह एक वास्तविक समाजसेवी थे।

90 के दशक के पहले की राजनीति की एक मिसाल थे घाटमपुर से कांग्रेस प्रत्याशी पंडित बेनी सिंह अवस्थी और सोशलिस्ट प्रत्याशी कुंवर शिवनाथ सिंह कुशवाहा। बेनी प्रसाद की जीप को देख कर शिवनाथ सिंह साइकिल से उतर जाते थे। पैर छूकर बेनी बाबू से आशीर्वाद लेते थे। बेनी बाबू भी उनसे कहते थे कि शिवनाथ तुम्हारी फलां पोलिंग गड़बड़ है, देख लेना। दोनों ने 1962, 67, 69 व 74 के चुनाव में हिस्सा लिया था। एक दूसरे के प्रति सम्मान का आलम यह था कि चारों चुनाव में शिवनाथ सिंह, प्रतिद्वंदी बेनी बाबू के पैतृक गांव बिरसिंहपुर में वोट मांगने नहीं जाते थे। अगर कभी सोशलिस्ट के समर्थक उत्साह में आकर बेनी बाबू के खिलाफ आपत्तिजनक नारे लगा देते थे तो शिवनाथ सिंह उन्हें डांट कर चुप करा देते थे।

कर्पूरी ठाकुर को याद किए जाने की जरूरत

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर का नाम आज के सन्दर्भ में याद किये जाने की जरूरत है। राजनीति में इतना लंबा सफ़र बिताने के बाद जब वो मरे तो अपने परिवार को विरासत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था, ना तो पटना में, ना ही अपने पैतृक घर में । वो एक इंच जमीन जोड़ पाए। कर्पूरी ठाकुर जब राज्य के मुख्यमंत्री थे तो उनके रिश्ते में उनके बहनोई उनके पास नौकरी के लिए गए और कहीं सिफारिश से नौकरी लगवाने के लिए कहा।

उनकी बात सुनकर कर्पूरी ठाकुर ने अपनी जेब से पचास रुपये निकालकर उन्हें दिए और कहा - जाइए, उस्तरा आदि खरीद लीजिए और अपना पुश्तैनी धंधा आरंभ कीजिए।जब कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री थे उन दिनों उनके गांव के कुछ दबंग सामंतों ने उनके पिता को अपमानित किया। ख़बर फैली तो जिलाधिकारी गांव में कार्रवाई करने पहुंच गए, लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने जिलाधिकारी को कार्रवाई करने से रोक दिया, उनका कहना था कि दबे पिछड़ों को अपमान तो गांव गांव में हो रहा है, रोकना है तो सब जगह रोको।

लाल बहादुर शास्त्री जब प्रधानमंत्री थे तब एक बार उनके बेटे सुनील शास्त्री कहीं जाने के लिए सरकारी गाड़ी लेकर चले गए। वे जब वापस आए तो लाल बहादुर शास्त्री जी ने कहा कि सरकारी गाड़ी देश के प्रधानमंत्री को मिली है ना की उसके बेटे को। आगे से कहीं जाना हो तो घर की गाड़ी का प्रयोग किया करो। शास्त्री जी ने अपने ड्राइवर से पता करवाया की गाड़ी कितने किलोमीटर चली है और उसका पैसा सरकारी राजकोष में जमा करवाया।

इस तरह के नेता कहाँ हैं?

इन नज़ीरों को देखते हुए हम सोच सकते हैं कि आज की तारीख़ में आज की सियासत में इस तरह के नेता कहाँ हैं? कहाँ हैं ऐसे लोग जो एक दूसरे को प्रमोट करते हों, जो राजनीतिक मर्यादाओं का पालन करते हों, कहाँ हैं ऐसे लोग जो समाज में नैतिकता व आदर्श के प्रेरक पुरुष बन सकें। जब तक अपनी सियासत को लौटा कर हम यहाँ तक नहीं लायेंगे तब तक हम यह नहीं कह सकते हैं कि हमारा लोकतंत्र परिपक्व हो रहा है। हम ये कह सकते हैं कि लोकतंत्र का पारियाँ खेलते चले जा रहे हैं, लोकतंत्र का पारियों में कितना हमारा नैतिक पतन है, कितनी हमारी गिरावटें, कितना वैमनस्य है। कितनी ईर्ष्या है। केवल सत्ता ही सत्ता है।

 सत्ता सब कुछ नहीं होती , यह जानना होगा।क्यों कि हमारे देश में बहुतेरे लोग हैं जो संसद में नहीं पहुँचे लेकिन आज भी वे इतिहास पुरुष हैं। बहुत से लोग एक दो बार पहुँचे और बहुत से लोग जो नहीं पहुँचे उनकी आवाज़ संसद में आज भी गूंजती है। आज भी लोग उन्हें प्रणाम करते हैं, इसलिए सत्ता , समय से ऊपर उठकर सोचना चाहिए । सोचना चाहिए कि कल इतिहास जब मेरा मूल्यांकन करेगा तब हमारा मूल्यांकन कैसा होना चाहिए और कैसा हो। 

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