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जगन्नाथ रथयात्रा : अद्भुत,अकल्पनीय व रहस्यों से भरा है यह मंदिर, जानकर होंगे हैरान
रथयात्रा के पूजा में भगवान जगन्नाथ जी की पूजा और आरती का विशेष महत्व है। जगन्नाथ को भगवान विष्णु का अवतार मान गया है। रथ यात्रा इस महीने आषाढ़ शुक्ल द्वितीया यानि आज है।रथयात्रा में नारायण या शालीग्राम की पूजा और आरती का भी विधान है। भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा की पूजा में भोग भी विशेष महत्व है। चाहें तो रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ को भोग के लिए नारियल भी चढ़ा सकते हैं।
जयपुर: रथयात्रा के पूजा में भगवान जगन्नाथ जी की पूजा और आरती का विशेष महत्व है। जगन्नाथ को भगवान विष्णु का अवतार मान गया है। रथ यात्रा इस महीने आषाढ़ शुक्ल द्वितीया यानि आज है।रथयात्रा में नारायण या शालीग्राम की पूजा और आरती का भी विधान है। भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा की पूजा में भोग भी विशेष महत्व है। चाहें तो रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ को भोग के लिए नारियल भी चढ़ा सकते हैं।
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इस विधि करें जगन्नाथ स्वामी को प्रसन्न
पूजा-आरती- जगन्नाथ जी की आरती करने से पहले उन्हें अच्छे से आसन दें और फूल चंदनों से सजा लें। अब उन्हें टिंबर पुष्पांजलि अर्पण करें और धूप-दीप जलाकर उन्हें दिखाएं।
*आरती के धूप को "एतस्मै धूपाय नमः" इस मंत्र को बोलकर आचमन करें। जल छिड़के और फिर गंध पुष्प से "इदं धूपं ॐ नमो नारायणाय नमः" मंत्र का उच्चारण करते हुए अर्पण करें।
*फिर धूप से आरती करें, इसके बार आरती के पांच दीप यानि पंचप्रदीप जलाकर "एतस्मै नीराजन दीपमालाएं नमः" कह कर आचमनी जल छिड़के
*गंध पुष्प लेकर "एष नीराजन दीपमालाएं ॐ नमः नारायणाय नमः" इस मंत्र उच्चारण कर आरती करें।
भगवान का आशीर्वाद
इसके बाद अगर चाहें तो कपूर, जल भरे शंख, पुष्प और चामर से आरती कर सकते हैं। आरती के खत्म होने पर शंख ध्वनि करके प्रणाम करें और प्रसाद स्वरुप आरती के धूप और दीप सबको दें।इसके बाद ही भोग या प्रसाद सब में बांटे।अगर रथ यात्रा के दिन आरती करते हैं तो आपको पूर्णयात्रा (अंतिम दिन) के दिन भी आरती करना ही चाहिए।रथ यात्रा में सूर्यास्त से पहले एक बार आरती जरूर करें और फिर शाम को संध्या आरती करें। पूजा करने से पहले पूरे घर को धूप के सुगंध से सुगन्धित करें। मान्यता है कि धूप और कपूर की सुगंध भगवान जगन्नाथ को बहुत ही प्रिय हैं। और जहां इस तरह विधि-विधान से पूजा,कपूर की सुगंध रहती है वहां भगवान का आशीर्वाद बना रहता है।
बैकुंठ धाम
भगवान जगन्नाथ का मंदिर रहस्यों से भरा हुआ है। धर्म पुराणों के अनुसार, पुरी में भगवान विष्णु ने पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतार लिया। यह मंदिर भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित है। इनकी नगरी जगन्नाथपुरी या पुरी कहलाई। पुरी को चार धाम में से एक मानते हैं। इसे धरती का बैकुंठ भी कहते है। इस मंदिर में भाई बलराम और बहन सुभद्रा के साथ भगवान विष्णु विराजमान हैं। चैतन्य महाप्रभु इस नगरी में कई साल रहे।
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अन्न की कमी नहीं पड़ती
पुरी की रथयात्रा विश्व की सबसे बड़ी रथयात्रा मानी जाती है। इस मंदिर का रसोई घर दुनिया का सबसे बड़ा रसोईघर माना जाता है। कितने भी श्रद्धालु मंदिर में आ जाएं, लेकिन यहां अन्न की कभी कमी नहीं होती है। मंदिर के पट बंद होते ही प्रसाद भी समाप्त हो जाता है। रसोईघर में चूल्हे पर एक के ऊपर एक सात बर्तन रखकर प्रसाद तैयार किया जाता है और सबसे ऊपर वाले बर्तन का प्रसाद सबसे पहले तैयार होता है।
पवित्र सुदर्शन चक्र अष्टधातु
मंदिर के शिखर पर लगा पवित्र सुदर्शन चक्र अष्टधातु से निर्मित है। इसे स्थापित करने की तकनीक आज भी रहस्य है। पुरी में कहीं भी हों, सुदर्शन चक्र को हमेशा सामने ही दिखेगा। मंदिर के शिखर पर लगा ध्वज हमेशा हवा के विपरीत लहराता है। कहा जाता है कि इस मंदिर के ऊपर से कभी कोई पक्षी या विमान नहीं उड़ पाता है।
ध्वज नहीं बदला
एक पुजारी मंदिर के 45 मंजिला शिखर पर स्थित ध्वज को रोजाना बदलते हैं। कहा जाता है कि अगर एक दिन भी ध्वज नहीं बदला गया तो मंदिर 18 वर्षों के लिए बंद हो जाएगा। मंदिर के मुख्य गुंबद की छाया किसी भी समय जमीन पर नहीं पड़ती है। महान सिख सम्राट महाराजा रणजीत सिंह ने मंदिर को प्रचुर मात्रा में स्वर्ण दान किया था। उन्होंने वसीयत की थी कि कोहिनूर हीरा इस मंदिर को दान कर दिया जाए।
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शांति का कामना
जगन्नाथ मंदिर में मुख्य चार दरवाजे हैं, और सिंघाधाम द्वार मंदिर में प्रवेश का मुख्य द्वार है। जब आप सिंधद्वारम के माध्यम से प्रवेश करेंगे तो आप स्पष्ट रूप से तरंगों की आवाज़ सुन सकते हैं लेकिन एक बार जब आप उसी द्वार से बाहर निकलेंगे और दोबारा से मोड़ लेकर उसी दिशा में वापस चलें तो अब तरंगों की आवाज़ नहीं सुनाई देगी। जब तक आप मंदिर के अंदर होंगे तब तक आपको तरंगों की आवाज नहीं सुनाई देगी। इसके पीछे भी एक कहानी है की सुभद्रा ने मंदिर के द्वार के भीतर शांति की कामना की थी ताकि वह आराम से बिना किसी शोर के ध्यान लगा सकें और भगवान कृष्ण ने उनकी यह इच्छा पूरी की।
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