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गरीब करें अभी इंतजार: अमीर पहले पाएंगे वैक्सीन, जानें क्यों
कई देशों में कोरोना की वैक्सीन बनाने पर काम चल रहा है। फ़िलहाल सबसे आगे अमेरिका की दवा कंपनी फाइजर है जो एक जर्मन कम्पनी ‘बियोनटेक’ के साथ मिल कर वैक्सीन बना रही है। फाइजर ने यूएसएफडीए को वैक्सीन के इमरजेंसी अप्रूवल के लिए अर्जी लगा दी है।
लखनऊ: कोरोना की कोई भी वैक्सीन अभी लांच नहीं हुई है लेकिन अमीर देशों ने बड़े पैमाने पर इसकी एडवांस बुकिंग कर ली है। गरीब देश इस दौड़ में पिछड़ते नजर आ रहे हैं। ऐसे में आशंका है कि कोरोना की वैश्विक महामारी से बचने में अमीर-गरीब की खाई भी आड़े आने वाली है। कई विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि गरीब और विकासशील देशों को वैक्सीन हासिल करने में बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है। ऐसे में अरबों लोग टीके से महरूम हो सकते हैं। इस बात की संभावना कम है कि कोरोना वायरस की शुरुआती वैक्सीन गरीब देशों तक पहुंच पायेगी। एक्सपर्ट्स का कैलकुलेशन है कि वैक्सीन की 1.1 अरब डोज पूरी तरह से अमीर देशों में जानी हैं सो ऐसे में औरों के लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं है।
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फाइजर की वैक्सीन
कई देशों में कोरोना की वैक्सीन बनाने पर काम चल रहा है। फ़िलहाल सबसे आगे अमेरिका की दवा कंपनी फाइजर है जो एक जर्मन कम्पनी ‘बियोनटेक’ के साथ मिल कर वैक्सीन बना रही है। फाइजर ने यूएसएफडीए को वैक्सीन के इमरजेंसी अप्रूवल के लिए अर्जी लगा दी है। फाइजर का कहना है कि मंजूरी मिलते ही कुछ हफ्तों में वे वैक्सीन की खुराक जारी करने लगेंगे। कंपनी का कहना है कि अगले साल टीके की 1.3 अरब डोज तैयार हो सकती हैं। फाइजर - बियोनटेक का टीका तीसरे चरण के ट्रायल में 95 फीसदी प्रभावी और सेफ पाया गया है।
गरीब देशों की चिंता
कोरोना संक्रमण से बचने के लिए लोगों को फाइजर की वैक्सीन की दो खुराकें देनी होंगी, जिनकी कीमत 40 डॉलर (करीब 2800 रुपये) होगी। इस वैक्सीन को माइनस 70 डिग्री तापमान में स्टोर करना होगा। कीमत और वैक्सीन की स्टोरेज की शर्त गरीब देशों के लिए एक बड़ी मुश्किल है। इसलिए जहाँ अमीर देशों ने करोड़ों की तादाद में ऑर्डर दे दिए हैं वहीं गरीब देश चुपचाप बैठे हैं। उनकी समस्या जायज है। एक तो वैक्सीन खरीदने के लिए बहुत बड़ी रकम चाहिए और दूसरी बात ये कि फाइजर जैसी वैक्सीन के स्टोरेज और डिस्ट्रीब्यूशन के लिए बहुत तामझाम बनाना पड़ेगा। मध्यम आय वाले और गरीब देशों को ऐसी वैक्सीन चाहिए जो उनकी जनसँख्या और हैसियत के अनुकूल हो।
डब्लूएचओ की पहल
कोरोना की किसी भी वैक्सीन का वितरण सभी देशों में समान रूप से हो, इसके लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अप्रैल में ‘कोवैक्स’ केंद्र बनाया था। इस सेंटर से सरकारें, वैज्ञानिक, सामाजिक संस्थायें और निजी क्षेत्र एक साथ जुड़े हैं। फाइजर फिलहाल कोवैक्स का हिस्सा नहीं है लेकिन कंपनी का कहना है कि उसने कोवैक्स को अपनी वैक्सीन सप्लाई करने के बारे सूचित किया है। जापान और ब्रिटेन जैसे जिन देशों ने वैक्सीन के लिए पहले से ऑर्डर दे रखा है, वे कोवैक्स के सदस्य हैं। ऐसे में हो सकता है कि वे जो वैक्सीन खरीदें, उनमें से कुछ गरीब और विकासशील देशों को मिलें। लेकिन 60 करोड़ डोज का ऑर्डर देने वाला अमेरिका ‘कोवैक्स’ में शामिल नहीं है। अमेरिकी सरकार ने वैक्सीन डेवलपमेंट में 11 अरब डालर लगा रखे हैं। और स्वाभाविक है कि सबसे पहले वो अपने नागरिकों के लिए खुराकें चाहता है।
corona (Photo by social media)
क्या है कोवैक्स
वैक्सीन के लिए बने पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप ‘गावी’ ने इस साल अप्रैल में घोषणा की थी कि वो कोरोना के लिए ‘कोवैक्स’ अभियान शुरू करेगा। इस अभियान का उद्देश्य है कि सभी देश मिल कर पैसा लगायें, चन्दा एकत्र किया जाए और फिर उसी फंड से एक सर्वसुलभ वैक्सीन ‘कोवैक्स’ के सदस्य देशों में बांटी जाए। कोवैक्स के तहत गरीब देश वैक्सीन की प्रत्येक दो डोज़ के लिए 4 डालर तक की सब्सिडी देंगे । पहले ये तय हुआ था कि गरीब देशों को मुफ्त में वैक्सीन मिलेगी लेकिन सितम्बर में ‘गावी’ के बोर्ड ने कॉस्ट शेयरिंग का फार्मूला अपनाने का निर्णय लिया।
कोवैक्स को उम्मीद है कि वह 2021 के अंत तक 2 अरब डोज़ खरीद लेगा और सदस्य देशों की बीस फीसदी जनसँख्या का टीकाकरण कर लिया जाएगा। कोवैक्स में 82 देशों ने हस्ताक्षर किये हैं और अब तक इस अभियान में 2 अरब डालर का फण्ड जमा हो चुका है। दिक्कत ये है कि अस्सी फीसदी जनसंख्या का क्या होगा इसका जवाब अभी किसी के पास नहीं है। डब्लूएचओ ने कहा है कि सब देशों को सामान रूप से वैक्सीन मिल सके इसके लिए तत्काल 4.3 अरब डालर की दरकार है। ये फण्ड कहाँ से आयेगा ये बहुत बड़ा सवाल है।
कई और भी डील हुईं हैं
अमेरिका की ड्यूक्स यूनिवर्सिटी ने वैक्सीन के डिस्ट्रीब्यूशन पर काफी रिसर्च किया है। इसके अनुसार मिडिल इनकम वाले कुछ देश जिनके पास वैक्सीन निर्माण की क्षमता है, उन्होंने वैक्सीन खरीद के लिए बड़ी बड़ी डील कर ली हैं। इसके अलावा ब्राजील और मेक्सिको जैसे जिन देशों में बड़े पैमाने पर क्लिनिकल ट्रायल किये जा आ रहे हैं उन्होंने ने भी ट्रायल करने वाली कंपनियों से वैक्सीन खरीद की सौदेबाजी कर रखी है। लेकिन मिडिल इनकम वाले देशों ने जिन वैक्सीनों के बारे में डील की है उनमें कितनी वैक्सीनें ट्रायल में खरी उतरेंगी ये अभी पता नहीं है। इन वैक्सीनों में चीन और रूस में बनाई जा रही वैक्सीन शामिल हैं। चीन की वैक्सीन से इंडोनेशिया, थाईलैंड, यूएई जैसे देशों की काफी उम्मीदें टिकी हुईं हैं जबकि पश्चिमी देशों ने इसको कोई तरजीह नहीं दी है।
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भारत की उम्मीद
जहाँ तक भारत की बात है तो ये प्रकार की वैक्सीनों के निर्माण का सबसे बड़ा हब है। इसी निर्माण क्षमता के चलते ऑक्सफ़ोर्ड ने सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया को वैक्सीन निर्माण का कॉन्ट्रैक्ट दिया है। सीरम इंस्टिट्यूट ने बदले में आधा प्रोडक्शन देश में ही रखने का करार कर रखा है। यानी ऑक्सफ़ोर्ड की जितनी वैक्सीन बनेगी उसकी आधी भारत में ही इस्तेमाल की जायेगी। ऐसे मीब भारत ने ऑक्सफ़ोर्ड की वैक्सीन से बहुत उम्मीदें बाँध रखी हैं।
इसके अलावा भारत, रूस की स्पुतनिक-5 वैक्सीन खरीदने की बात कर रहा है। फाइजर या अन्य कंपनियों से भारत की क्या बातचीत चल रही है इसकी कोई जानकारी अभी प्राप्त नहीं हुई है। जहाँ तक भारत में ही डेवलप की जा रही भारत बायोटेक की वैक्सीन के तीसरे चरण के ट्रायल के नतीजे में इसके 60 फीसदी असरदार होने की बात सामने आयी है। ऑक्सफ़ोर्ड की वैक्सीन भी औसतन 70 फीसदी असरदार पाई गयी है।
रिपोर्ट- नीलमणि लाल
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