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लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ाः दस दिन की जंग और 93 हजार युद्धबंदी

1962 में चीन का हमला हो या 1965 में भारत-पाकिस्तान का युद्ध, जनरल अरोड़ा का हर जंग में अपूर्व रणकौशल दिखा। 1971 में उन्होंने साबित कर दिखाया कि कठिन लक्ष्य को सूझबूझ और हिम्मत से कैसे हासिल किया जा सकता है।

Ashiki
Published on: 13 Feb 2021 8:38 AM IST
लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ाः दस दिन की जंग और 93 हजार युद्धबंदी
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लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ाः दस दिन की जंग और 93 हजार युद्धबंदी

रामकृष्ण वाजपेयी

लखनऊ: देश के महान सेनानायक लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा की 106वीं जयंती पर उन्हें याद करते हुए आत्मिक खुशी की अनुभूति हो रही है। और हो भी क्यों न। 16 दिसम्बर, 1971, ढाका का रेस कोर्स मैदान, पाकिस्तानी सैनिकों का आत्मसमर्पण, भारत के कब्जे में पाकिस्तान की 5,139 वर्गमील भूमि का आना और पाकिस्तान के 93,000 युद्धबंदी ये कोई भूलने की बात नहीं है। इसके बाद ही विश्वमानचित्र पर उभरा था एक नया देश बांग्लादेश। विजय दिवस की स्वर्णजयंती हमने हाल ही में मनायी है।

10 दिन की लड़ाई में पाकिस्तान को चटा दी धूल

बांग्लादेश की जीत का जश्न हम जब जब मनाएंगे तब-तब ऊंची कद-काठी के कद्दावर सेनानायक लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा याद किये जाएंगे क्योंकि इस सेनानायक की सूझबूझ और कुशल नेतृत्व में भारतीय सेना ने मात्र 10 दिन की लड़ाई में पाकिस्तान को धूल चटा दी थी। ले.जन. अरोड़ा का जन्म 13 फरवरी, 1917 को झेलम जिले (अब पाकिस्तान में) के कला गुजरां गांव में हुआ था और 1939 से उनका सेना का सफर शुरू हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध में उन्हें पहली बार युद्ध का अनुभव हुआ। फिर तो उन्होंने अनेक युद्धों में सेना का संचालन किया।

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हर जंग में दिखा अपूर्व रणकौशल

1962 में चीन का हमला हो या 1965 में भारत-पाकिस्तान का युद्ध, जनरल अरोड़ा का हर जंग में अपूर्व रणकौशल दिखा। 1971 में उन्होंने साबित कर दिखाया कि कठिन लक्ष्य को सूझबूझ और हिम्मत से कैसे हासिल किया जा सकता है। विजय दिवस (17 दिसम्बर, 1971) की स्वर्ण जयंती के अवसर पर पाञ्चजन्य (17 दिसम्बर, 1995) से एक बातचीत में उन्होंने अपनी रणनीति की चर्चा करते हुए कहा था, "हम चाहते थे कि युद्ध ज्यादा दिन न चले, इसलिए हमने ऐसी रणनीति बनाई ताकि युद्ध को छोटा किया जा सके।

पाकिस्तान सोच रहा था कि हम सन् 65 की तरह मुख्य मार्गों से आक्रमण करेंगे, इसलिए उसने पूरी शक्ति इन स्थानों पर लगाई। लेकिन हमने योजना बनाई-मुख्य मार्ग छोड़कर अन्य मार्गों से प्रवेश कर आक्रमण किया जाए, उनका घेराव किया जाए। जब पाकिस्तानी सेना के चारों तरफ से सुरक्षा घेरा बनाए हुए भारत ने आकाश मार्ग से अपने छाताधारी (पैराटÜपर्स) ढाका में उतारे तो पाकिस्तानी सेना सकते में आ गई। 13 दिसम्बर को पाकिस्तानी जनरल याहिया खान यह कहने पर मजबूर हो गए कि हम अब और युद्ध नहीं लड़ सकते।"

लेकिन बाद में (शिमला समझौते में) जब कागजी कार्रवाई में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत का जीता हुआ क्षेत्र पाकिस्तान को लौटाया तो जन. अरोड़ा का मन टीस से भर उठा था। उनके इन शब्दों में यह पीड़ा साफ झलकती थी, "हमारे राजनेताओं ने हमारी जीत पर पानी फेर दिया। हमने जो कुछ युद्ध में प्राप्त किया, उसे शिमला समझौते में लौटा दिया।

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राज्यसभा सदस्य

हमने पाकिस्तान की 5,139 वर्गमील भूमि पर कब्जा कर लिया था, उनके युद्धबंदी हमारे पास थे। हम चाहते तो अपने हित में निर्णय ले सकते थे, किन्तु तत्कालीन प्रधानमंत्री ने इतना रक्त बहाकर पायी गई जीत को प्लेट में रखकर उपहार की तरह पाकिस्तान को लौटा दिया।" हंसमुख, जिंदादिल स्वभाव के जन. अरोड़ा 1986 में अकाली दल के टिकट पर राज्यसभा सदस्य बने। एक सांसद के रूप में उन्होंने गरिमापूर्ण भूमिका निभाई। कार्यकाल समाप्त होने के बाद वे सांसद का आवास छोड़कर 30, फ्रेंड्स कालोनी (नई दिल्ली) में आ गए थे।

1997 में पत्नी भागवंत कौर का देहांत होने के बाद वह एकाकी हो गए, अपना एकाकीपन वह किताबों और संगीत के साथ बांटा करते थे। जनरल अरोड़ा को शास्त्रीय संगीत विरासत के रूप में मिला इसीलिए उन्हें शास्त्रीय संगीत सुनना बहुत भाता था। देश के महान सपूत ने 3 मई 2005 को अंतिम सांस ली।

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