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झारखंड का ये बांदना पर्व, पशुओं की पूजा पाठ से होता है संपन्न
आदिवासी समाज के लोग बांदना पर्व शुरू होने के एक महीने पहले ही अपने घर आंगन की साफ सफाई और रंगाई पुताई करने में जुट जाते हैं। बांदना के इस पर्व को आदिवासी समुदाय के लोग अपनी सुविधा के अनुसार मनाते हैं।
धनबाद : झारखंड के अधिकतर त्योहार प्रकृति और कृषि से जुड़े होते हैं। आज ऐसे ही एक त्योहार के बारे में जानते हैं। आपको बता दें कि यह त्योहार आदिवासी समुदायों का सबसे बड़ा पर्व है। जिसे बांदना या सोहराय कहा जाता है। यह त्योहार धान काटने के बाद उसे खेत से सुरक्षित रखने के बाद मनाया जाता है। इस पर्व के दौरान पशुओं से कोई काम नहीं करवाया जाता है। इस दौरान पशुओं की खास सेवा सत्कार और पूजन किया जाता है। धनबाद में आदिवासी समुदाय के लोग बांदना पर्व में रंगे हुए है।
बांदना पर्व मनाया जाता पांच दिनों के लिए
आदिवासी समाज के लोग बांदना पर्व शुरू होने के एक महीने पहले ही अपने घर आंगन की साफ सफाई और रंगाई पुताई करने में जुट जाते हैं। बांदना के इस पर्व को आदिवासी समुदाय के लोग अपनी सुविधा के अनुसार मनाते हैं। आपको बता दें कि वर्तमान में धनबाद जिले के आदिवासी लोग पौष माह के अंतिम सप्ताह में ही मनाते हैं। इस पर्व को मनाने के लिए आदिवासी समुदाय बुधवार या रविवार के दिन को ही शुभ मानते हैं। यह बांदना पर्व पांच दिनों के लिए मनाया जाता है।
पर्व का पहला दिन
गांव के पुजारी जिस जगह पर पूजा करते हैं उस जगह को गोट टांडी कहा जाता है। पूजा के बाद ढोल नगाड़ा, मांदर आदि बजाकर गांव के लोग नाइकी हड़ाम को गोट टांडी से घर ले जाते हैं। शाम को गांव के युवक सभी के घर जाकर मांदर और नगाड़ा बजाते हैं और गाय और बैल की सूप आरती उतारते हैं। इसे गाय जगाव कहा जाता है।
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पर्व का दूसरा दिन
सुबह से लेकर दोपहर तक पवित्र स्थल में नाच गाना होता है। जिसे डांटा दोन कहा जाता है। इस दिन दोपहर को गुहाल पूजा होती है। जिसे बोगान हिलोक कहा जाता है। शाम को युवतियां आंगन से गोहाल घर तक गाय बैलों के पैरों के निशान बनाती हैं। जिसे चाँवडाल कहा जाता है।
तीसरा दिन
इस दिन गांव के लोग प्रत्येक घर में ढोल, नगाड़ा जाकर बजाते हैं और घर में रखी हुई खटिया पर एक आटी धान रख देते हैं। उसी धान की आटी से माला बनाई जाती है। जिसे गाय और बैलों की सींघ में बांधा जाता है और बैलों को खूटी बांध दिया जाता है। जिसे बरदखूंटा कहा जाता है।
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