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वंदे मातरम गीत की जयंती: जानिए कब-कब गाया गया, इससे जुड़ी ये बातें नहीं जानते होंगे
वंदे मातरम गीत के रचयिता बंकिम चंद्र चटर्जी अंग्रेजी शासन में डिप्टी कलेक्टर की नौकरी किया करते थे और उन दिनों ब्रिटेन से एक आदेश आया कि सभी कार्यक्रमों में महारानी के सम्मान में गॉड सेव द क्वीन गीत को जरूर गाया जाए।
लखनऊ: डेढ़ सौ साल पहले हमारे पूर्वजों ने ब्रिटिश महारानी का गुणगान करने के बजाए भारत भूमि की जय-जयकार का संकल्प लिया तो जिस गीत ने जन्म लिया वह आने वाले कुछ वर्षों में ही राष्ट्रवासियों के स्वाधीनता संग्राम का विजय गीत बन गया। 1937 में देश के लाखों-करोड़ों लोगों ने सार्वजनिक तौर पर इसे राष्ट्र गीत मान लिया और भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने देश की संविधान सभा में जब इसे राष्ट्रगान के समतुल्य बताया तो देश के संविधान निर्माताओं ने एकमत होकर हर्ष ध्वनि से इसका स्वागत किया।
वंदे मातरम को दुनिया के शीर्षस्थ गीतों में चुना गया
साहित्य की श्रेष्ठ रचना होने के साथ ही जन-जन के मानस को स्वर देने वाले राष्ट्रगीत वंदे मातरम को 21वीं सदी में राजनेताओं ने दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से अपने राजनीति के अखाड़े में खींच कर विवादित बना दिया। इसके बावजूद राग देश में संगीतबद्ध वंदे मातरम को दुनिया के शीर्षस्थ गीतों में चुना गया और आज भी यह दुनिया का सर्वश्रेष्ठ गीत है।
वंदे मातरम गीत के रचयिता बंकिम चंद्र चटर्जी अंग्रेजी शासन में डिप्टी कलेक्टर की नौकरी किया करते थे और उन दिनों ब्रिटेन से एक आदेश आया कि सभी कार्यक्रमों में महारानी के सम्मान में गॉड सेव द क्वीन गीत को जरूर गाया जाए। बंकिम का मन इसे स्वीकार नहीं कर सका। इसके विपरीत उन्होंने भारत भूमि की जय-जयकार का संकल्प लिया। 1870 में उन्होंने संस्कृत व बांग्ला भाषा में मिलाजुला एक गीत रचा जिसका शीर्षक वंदे मातरम था।
पहले उन्होंने केवल दो पद संस्कृत में रचे थे। इनमें केवल मातृभूमि की वंदना थी लेकिन जब 1882 में बांग्ला उपन्यास आनंदमठ लिखा तो यह गीत शामिल कर लिया और इसमें कई अन्य पद भी जोड़े ।
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गीत में हरे-भरे खेतों वाले भारत का वर्णन
वंदे मातरम सुजलाम सुफलाम मलयज शीतलाम शस्य श्यामलाम मातरम। शुभ्र ज्योत्स्नां पुलकित यामिनीम फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीम सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम सुखदां वरदां मातरम। इस गीत में उन्होंने हरे-भरे खेतों वाले भारत, पर्वतों, नदियों, फलों से लदी डालियों वाले वृक्षों से संपन्न भारत भूमि के प्राकृतिक सौंदर्य की सराहना करते हुए मातृ भूमि की वंदना का भाव प्रकट किया है।
इससे समझा जा सकता है कि बंकिम चंद्र ने अंग्रेजी राज की महारानी के बजाय भारत भूमि यानी भारतवासियों की जय-जयकार का उदघोष किया और इसे हमारे पुरखों ने अपने मन की बात मानते हुए स्वीकार किया, समर्थन दिया और स्वातंत्रय भाव जाग्रत करने का वाला राष्ट्र गीत मान लिया।
वंदेमातरम कब –कब गाया गया
स्वतंत्रता आंदोजन के दौरान वंदेमातरम गीत को अनेक अवसरों पर प्रमुखता से गाया गया और यह लोगों के बीच में स्वाधीनता भाव जाग्रत करने वाले मंत्र के तौर पर स्वीकृत हो गया। गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में गाया। इसके बाद 1901 और 1905 के कांग्रेस अधिवेशन में इसे क्रमश चरणदास और सरलादेवी चौधरानी ने गाया।
इसके बाद यह कांग्रेस के अधिवेशनों का प्रमुख गीत बन गया। स्वाधीनता संग्राम में इसका जगह –जगह प्रयोग होने लगा। लाला लाजपतराय ने वंदेमातरम नाम से एक पत्रिका का प्रकाशन किया तो मैडम भीखाजी कामा ने जब जर्मनी में तिरंगा फहराया तो उसके बीच में वंदेमातरम लिखा था।
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डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने राष्ट्रगीत स्वीकार किए जाने का जो प्रस्ताव पढ़ा
कांग्रेस ने 1937 के अपने राष्ट्रीय अधिवेशन में इसे राष्ट्रगीत का दर्जा दिया और संविधानसभा में डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 24 जनवरी 1950 को इसे राष्ट्रगीत स्वीकार किए जाने का जो प्रस्ताव पढ़ा वह अक्षरश प्रस्तुत है।
"शब्दों व संगीत की वह रचना जिसे जन गण मन से संबोधित किया जाता है, भारत का राष्ट्रगान है, बदलाव के ऐसे विषय, अवसर आने पर सरकार अधिकृत करे और वंदे मातरम गान जिसने कि भारतीय स्वतंतत्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है को जन गण मन के समकक्ष सम्मान व पद मिले।--हर्षध्वनि-- मैं आशा करता हूं कि यह सदस्यों को संतुष्ट करेगा।"
संगीतज्ञों ने भी सिर माथे पर रखा
वंदे मातरम को सबसे पहले गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने गाया। इसके बाद अनेक अवसरों पर अलग–अलग राग व धुन में इसे गाया जाता रहा है लेकिन 24 जनवरी 1950 को हेमंत मुखर्जी व जदुनाथ भटटाचार्य ने इसे राग देस में प्रस्तुत किया। दक्षिण भारत में भी संगीतज्ञों ने इसे अलग अलग राग में सुरबद्ध किया है। आनंद मठ सिनेमा में इसे लता मंगेशकर व केएस चित्रा ने स्वर दिया है।
विवादित होने के बावजूद इसे आधुनिक संगीतकारों एआर रहमान, शंकर महादेवन , कैलास खेर समेत कई लोगों ने अलग अंदाज में पेश किया और आश्चर्यजनक तरीके से सभी के प्रयासों को जबरदस्त लोकप्रियता मिली। आज भी वंदे मातरम की धुन देश के करोडों लोगों के मन-मस्तिष्क को प्रभावित करती है और इसे सुनकर करोडों भारतीय मन अपने देश की संपन्नता व संपदा पर न्यौछावर होने को तत्पर हो जाते हैं।
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रिपोर्ट-अखिलेश तिवारी
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