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CBI को याद आई थी नानी: लालू का ये किस्सा जो शायद ही कोई जानता होगा
चारा घोटाला भारत के बिहार राज्य का सबसे बड़ा भ्रष्टाचार घोटाला था जिसमें पशुओं को खिलाये जाने वाले चारे के नाम पर 950 करोड़ रुपए सरकारी खजाने से फर्जी में निकाले गए थे। सरकारी खजाने के इस चोरी में बहुत से लोग और बिहार के तत्कालीन सीएम लालू प्रसाद यादव व पूर्व सीएम जगन्नाथ मिश्र पर भी आरोप लगा था। घोटाले की वजह से लालू यादव को अपने मंत्री पद से त्याग देना।
पटना: चारा घोटाला भारत के बिहार राज्य का सबसे बड़ा भ्रष्टाचार घोटाला था जिसमें पशुओं को खिलाये जाने वाले चारे के नाम पर 950 करोड़ रुपए सरकारी खजाने से फर्जी में निकाले गए थे। सरकारी खजाने के इस चोरी में बहुत से लोग और बिहार के तत्कालीन सीएम लालू प्रसाद यादव व पूर्व सीएम जगन्नाथ मिश्र पर भी आरोप लगा था। घोटाले की वजह से लालू यादव को अपने मंत्री पद से त्याग देना।
चारा घोटाला 1996 जनवरी महीने के अंतिम सप्ताह में उजागर हुआ था और पहले ही दिन से ये चर्चा जोरों पर थी कि इसमें तत्कालीन सीएम लालू यादव की भागीदारी है। क्योंकि चारा घोटाले में शामिल कई ऐसे अधिकारी थे, जिनकी सीएम से नज़दीकी थी और ये बात किसी से छिपी नहीं थी कि उनकी विशेष कृपा एक से अधिक अधिकारियों पर थी।
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1997 में लालू को पद से इस्तीफा देना पड़ा था
इस घोटाले की जांच के बाद उस समय के सबसे बड़े मामले जो चाईबासा कोषागार से सम्बंधित था, उसमें लालू यादव 1997 के जून महीने में चार्जशीटेड हुए और उन्हें सीएम पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था। लेकिन उन्होंने उस वक़्त अपनी पत्नी राबड़ी देवी को शपथ दिला दी। ताकि सत्ता की कमान उनके और उनके परिवार के पास ही रहे। इस बीच CBI जांच की कमान संभाल रहे उस समय के ज्वाइंट डायरेक्टर उपेन बिश्वास ने लालू यादव को गिरफ़्तार करने का मन बना लिया।
कोर्ट से वारंट भी हासिल कर लिया, लेकिन उन्हें सरकार से इस वारंट को सर्विस कराने के लिए जो सहयोग चाहिए था वो नहीं मिल रहा था। जब उन्होंने पुलिस फ़ोर्स मांगी तो कुछ सिपाई भेज दिए गए। इससे क्रुद्ध होकर बिश्वास ने 29 जुलाई की रात उस समय के राज्य के पुलिस महानिदेशक एसके सक्सेना और मुख्य सचिव से मुलाकात की, लेकिन बात नहीं बनी। दूसरी ओर, लालू यादव के मुख्यमंत्री आवास के अंदर और बाहर हज़ारों की संख्या में उनके समर्थकों का जमावड़ा लगा रहा।
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ज्वाइंट डायरेक्टर उपेन बिश्वास ने नहीं मानी हार
इसके बावजूद उपेन बिश्वास ने हार नहीं मानी। आवेश में अपने एसपी वी एस के कोमुदी को CBI की स्टैंडिंग काउंसिल राकेश कुमार के साथ उस मामले की मॉनिटरिंग कर रहे पटना उच्च न्यायालय में दो जजों की बेंच से अवगत करा निर्देश लेने का आदेश दिया। इस बीच लालू यादव, जो कुछ महीने पहले जनता दल से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल बना चुके थे। तब केंद्र सरकार पर उनका दबाव इस बात को लेकर था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री आईके गुजराल उनकी पसंद से प्रधान मंत्री बने थे और वो बिहार से राज्य सभा में गए थे।
इसकी वजह से केंद्र सरकार और CBI के दिल्ली में कुछ अधिकारी चाहते थे कि लालू यादव को CBI की विशेष अदालत में आत्मसमर्पण करने का एक मौक़ा मिलना चाहिए और उनकी गिरफ़्तारी न हो। लेकिन विश्वास भी अपनी ज़िद पर अड़े थे और उन्होंने सुबह-सुबह कोमुदी और राकेश कुमार को दानापुर कैंट में ब्रिगेडियर RP नौटियाल से मिलने का आदेश दिया और कहा कि सेना की मदद से लालू यादव की गिरफ़्तारी की जाए, लेकिन ब्रिगेडियर नौटियाल ने अपने ऊपर के अधिकारियों से बातचीत के बाद यह कहकर अपने हाथ खड़े कर दिए कि सेना का काम मुश्किल के समय में सिविल प्रशासन की मदद करना है ना कि पुलिस के बदले किसी काम में भाग लेना।
गौर इस बात पर करने वाला है कि बाद में जांच के दौरान नौटियाल ने माना कि उन्होंने मॉनिटरिंग कर रहे एक जज से फ़ोन कर पूछा था कि क्या उन्होंने ऐसे आदेश दिए हैं तो उन्होंने इनकार कर दिया। जबकि बिश्वास और उनके अधिकारियों का कहना था कि मॉनिटरिंग बेंच का ये लिखित नहीं मौखिक आदेश है।
आखिर में विश्वास को सेना की मदद नहीं मिली और लालू यादव ने अपनी मर्ज़ी के अनुसार 30 जुलाई को सीबीआई कोर्ट में आत्मसमर्पण किया और कोर्ट ने उन्हें न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया। क्योंकि सरकार लालू थी इसलिए उनके आराम का ख़याल रखते हुए बीएमपी के गेस्ट हाउस को विशेष जेल बनाया गया। जहां से लालू यादव सरकार भी चला रहे थे। लेकिन इस मामले पर ख़ासकर सेना बुलाने की बात जैसे ही मीडिया में लीक हुई उस समय लोक सभा का सत्र चल रहा था और इस मुद्दे पर जमकर हंगामा शुरू हो गया।
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तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री इंद्रजीत गुप्ता ने घोषणा की कि एक विशेष जांच बैठी जा रही हैं जो दस दिन में अपनी रिपोर्ट देगी। लेकिन वर्तमान में बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने उस समय लोकसभा में बिश्वास के इस कदम का ये कहकर समर्थन किया कि पटना में विधि व्यवस्था चरमरा गई थी इसलिए उनका कदम सही है। इस जांच की जिम्मेदारी आरपीएफ़ के डीजी ए पी दूरई को दिया गया, जिन्होंने 17 दिन में अपनी जांच पूरी कर रिपोर्ट दी और बिश्वास के सेना की मदद मांगने के क़दम को ग़लत ठहराते हुए उनके अलावा एसपी कौमुदी पर भी कार्रवाई की सिफ़ारिश की।
लेकिन कुछ महीने में गुजराल सरकार गिर गयी और बिश्वास अपने ख़िलाफ़ जांच और जो भी आदेश पारित हुआ, उसके खिलाफ कोलकाता हाईकोर्ट गए। जिसने उनके पक्ष में फ़ैसला देते हुए सारी कार्रवाई को ख़ारिज कर दिया। इस घटना के बाद से राजनीतिक अभियुक्तों के मामले में अब सीबीआई अधिकारी फूंक-फूंक कर कदम रखते हैं।