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दो बड़ी राजनीतिक पार्टियों से था गहरा नाता, ऐसे शुरू हुआ विजयाराजे का सियासी सफर
भारत की दो बड़ी राजनीतिक पार्टियों से गहरा संबंध रखने वाली विजयाराजे सिंधिया की आज पुण्यतिथि है। उनका जन्म 12 अक्टूबर, 1919 में मध्य प्रदेश के राणा परिवार में हुआ था। साल 2001 में आज ही के दिन यानी 25 जनवरी को उन्होंने आखिरी सांस ली।
लखनऊ: भारत की दो बड़ी राजनीतिक पार्टियों से गहरा संबंध रखने वाली विजयाराजे सिंधिया की आज पुण्यतिथि है। उनका जन्म 12 अक्टूबर, 1919 में मध्य प्रदेश के राणा परिवार में हुआ था। साल 2001 में आज ही के दिन यानी 25 जनवरी को उन्होंने आखिरी सांस ली। 'राजमाता' के नाम से लोकप्रिय विजयाराजे सिंधिया भाजपा की संस्थापक रही हैं। आइये जानते हैं विजया राजे सिंधिया से जुड़े महत्वपूर्ण किस्से।
राजनीति सफर
विजयाराजे सिंधिया अपने पति जीवाजी राव सिंधिया की मृत्यु के बाद कांग्रेस के टिकट पर संसद सदस्य बनीं थीं। उन्होंने अपने राजनीति सफर की शुरुआत तो कांग्रेस से की, लेकिन जल्द ही वे इस पार्टी के धुर विरोधियों (भाजपा) में शामिल हो गई थीं। विजयाराजे सिंधिया का रिश्ता एक राजपरिवार से होते हुए भी वे अपनी ईमानदारी, सादगी और प्रतिबद्धता के कारण पार्टी में सर्वप्रिय बन गईं और शीघ्र ही वे पार्टी में शक्ति स्तंभ के रूप में सामने आईं।
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क्यों हुईं कांग्रेस से अलग ??
बात 60-70 के दशक की है। उस समय समूचे देश की तरह ही मध्यप्रदेश की राजनीति में कांग्रेस का बोलबाला था। 1966 में मध्य प्रदेश में भीषण सूखा पड़ा। 25 मार्च, 1966 को बस्तर के महाराज प्रवीर चंद्र भंज देव की जगदलपुर स्थित महल में आक्रोशित भीड़ और पुलिस के बीच हुई फायरिंग में मौत हो गई। इस घटना में 11 अन्य लोग भी मारे गए। इससे विजयाराजे बहुत खिन्न हो गई। सितंबर 1966 में ग्वालियर पुलिस की फायरिंग में दो प्रदर्शनकारी छात्रों की मौत हो गई। तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्र द्वारा राजघराने को तवज्जो न दिया जाना विजयाराजे को अखर रहा था। इसी कड़वाहट के चलते उन्होंने कांग्रेस छोड़ने का फैसला किया।
ऐसे शुरू हुआ बीजेपी में सफर
जानकारी के मुताबिक 1971 में विजयाराजे ने जनसंघ के टिकट पर बिंद से लोकसभा का चुनाव जीता। वहीं गुना की सीट 26 वर्षीय पुत्र माधवराव सिंधिया के लिए छोड़ दी। यहां से माधवराव सिंधिया ने स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीता। ग्वालियर सीट जनसंघ प्रत्याशी के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी ने जीती। 1980 में भाजपा का उदय होने पर विजयाराजे सिंधिया उसकी संस्थापक सदस्य बनीं।
माधवराव ने चुनी अलग राह
देश में आपातकाल के दौरान विजयाराजे को जेल में डाल दिया गया। हालांकि वह पैरोल पर बाहर आईं। पुत्र माधवराव सिंधिया कांग्रेस की सरकार द्वारा गिरफ्तार न किए जाने के आश्वासन पर नेपाल से भारत लौटे। कांग्रेस ने उन्हें पार्टी में शामिल होने को कहा। 1977 में चुनाव की घोषणा होने पर माधवराव ने मां और उनके सहयोगी बाल आंग्रे से कहा, अब अपने फैसले खुद लूंगा, मुझे आप लोगों की सलाह की जरूरत नहीं है। इसके बाद उन्होंने ग्वालियर से स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा। राजघराने की प्रतिष्ठा और राजमाता की अपील के चलते उन्होंने बड़ी जीत हासिल की।
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माधवराव की मां से नाराजगी
कुछ ही वर्षों में माधवराव इंदिरा गांधी और संजय गांधी के करीबी हो गए। 1980 में विजयाराजे सिंधिया के इंदिरा गांधी के खिलाफ रायबरेली से चुनाव मैदान में उतरने से माधवराव बेहद खिन्न हुए। हालांकि इस सीट पर विजयाराजे हार गईं, लेकिन माधवराव गुना से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीत गए। इसके बाद वह राजीव गांधी और पीवी नरसिंह राव की सरकार में मंत्री बने। कहा जाता है कि विजयाराजे के अपने बेटे माधवराव सिंधिया से संबंध ठीक नहीं थे। इसके चलते राजमाता ने अपना अंतिम संस्कार बेटे के हाथों करवाने से मना कर दिया था।
राजनीति में सिंधिया परिवार के अन्य लोग
सिंधिया परिवार का राजनीति से गहरा संबंध है। विजया राजे सिंधिया की चार पुत्रियों में से दो राजनीति में हैं। वसुंधरा राजे राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री थीं। वसुंधरा राजे के पुत्र दुष्यंत सिंह वर्तमान में झालावाड़-बारन सीट से सांसद हैं। उनकी छोटी बहन यशोधरा राजे 1990 में अमेरिका से भारत लौटीं। उन्होंने गुना क्षेत्र से राजनीति शुरू की। 1998 में पहली बार चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंची। उसके बाद 2003, 2013 और 2018 में विधानसभा पहुंचीं और शिवराज सरकार में मंत्री रहीं। वहीं विजयाराजे के पोते ज्योतिरादित्य सिंधिया भी कांग्रेस का भी अहम योगदान रहा। हालांकि अब वो कांग्रेस पार्टी से अलग हो चुके हैं।