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हो गया फैसलाः कोरोना भी चलेगा और जिंदगी भी, लेकिन खतरे में हैं गांव
यह पहला अवसर नहीं है जब इस तरह की किसी स्थापित स्वरूप के अंत की घोषणा की गई है। या की जा रही है। पर हर बार मानव समाज उठ खड़ा होता है। जीवंत हो जाता है। नये रास रच लेता है। नये संगीत गढ लेता है। नया साहित्य रच लेता है। इस बार भी होगा। ज़रूर होगा।
योगेश मिश्र
बीसवीं शताब्दी इंसान की तरक़्क़ी की सदी थी। इंसान ने बहुत तरक़्क़ी की। लेकिन एक विषाणु ने सबको परेशान कर दिया। समूची दुनिया हलकान है। बातें चाहे जितनी की जायें व कहीं जायें पर यह मानव निर्मित वायरस है। इसे किसने क्यों बनाया, यह समझना तो कठिन है। पर बनाया चीन ने यह जगज़ाहिर ज़रूर है। यह आपकी परीक्षा के दिन हो सकते हैं। तप के दिन हो सकते हैं। पर ये दिन हमें वह बहुत कुछ करने को मजबूर कर रहे हैं, जिन्हें हमने भागने और दौड़ने वाली ज़िंदगी में न जाने कहाँ रख छोड़ा था।
कोरोना संकट में सम्मिलन, संवाद और गति तीनों पर विराम लगा। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को तेज करने के माध्यम ने अपनी उपयोगिता खो दी। देश में दो भारत समानांतर रूप में हमेशा चलते हैं। दोनों हर एक दूसरे से कभी नहीं मिलते। वैश्वीकरण ने देश दुनिया को जोड़ रखा है। इसलिए संक्रमण का एहसास भी आपको परेशान करता है।
सबसे बड़े खतरे में गांव
संक्रमण का सबसे ज़्यादा ख़तरा गाँव के लोगों में है। लॉकडाउन का आर्थिक असर भीषण है। इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू के लिए दक्षिण एशिया में ग्रामीण आजीविका और सामुदायिक संस्थान के क्षेत्र में काम करने वाले शोभित मित्र की रिपोर्ट बताती है कि शिक्षा का स्तर कम होने के कारण जागरूकता की कमी आने, अनेक जगहों पर साफ पानी का अभाव, कुपोषण और नाकाफी तथा स्तरहीन सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएँ भारी पड़ने वाली हैं।
हमें अंदाज़ नहीं है कि जो किसान देश को भरपूर अनाज देता है। उसके पास अपने खाने के लिए अनाज है? देश के 85 फ़ीसदी किसानों के पास तीन एकड से कम ज़मीन है।
उनकी फ़सल का पूरा पैसा ब्याज समेत कर्ज़ लौटाने में ही ख़त्म हो जाता है। अनाज पैदा करने के बावजूद ये किसान मज़दूरी करके अपना घर का राशन ख़रीदते हैं। छोटे और मझोले किसानों और मज़दूरों को भी राशन अनिवार्य देना चाहिए।
उत्तरी भारत में ओलावृष्टि के कारण सरसों, मसूर आदि की फ़सल बर्बाद हो गई। वहीं गेहूं और अन्य रबी की की कटाई कंबाइंड मशीन से कटवाने और रिपर मशीन से भूसा निकलवाने से दोहरा नुक़सान है। पहला, कटाई का ख़र्चा दुगुना। दूसरा, भूसा 60 फ़ीसदी कम निकलता है।
दूध पर अनुदान की जरूरत
इसके लिए सरकार को दूध पर अनुदान देना चाहिए। साथ ही गेहूं की फ़सल ख़रीदने की तैयारी कर किसानों को तत्काल भुगतान करवाने की व्यवस्था की जानी चाहिए। ऐसे वक़्त में जब मशीनों से कटवाने पर ज़्यादा पैसा लगेगा तब सरकार को इस पर भी अनुदान देना चाहिए।
कोरोना संकट को देखते हुए सरकार को ऋण अदायगी एक साल के लिए टाल देना चाहिए। ब्याज माफ़ कर देना चाहिए। किसानों को पैसा चाहिए। गन्ने का बकाया पैसा अगर चीनी मिलें दे दें तो उनका गुज़ारा हो जाएगा।
सरकार को ईमानदारी से किसानों को बकाया मूल्य दिलवाना होगा। पिछले कुछ वर्षों से देहात के 90 फ़ीसदी नौजवान खेती नहीं करना चाहते हैं। उन्हें नौकरी नहीं मिल रही है। नौजवान मायूस हैं। शादी नहीं हो रही है। नशे की गिरफ्त में जा रहे हैं। कुछ अपराध में लिप्त हो रहे हैं।
करोना संक्रमण की रोकथाम के मामले में भारतीय नीति निर्माता चीन, दक्षिण, कोरिया और हांगकांग के तौर तरीक़ों से अधिक प्रभावित दिखते हैं।
21 दिन के लॉकडाउन में इन्हें दिखा खोट
न्यूयॉर्क राज्य के गवर्नर एंड्रयू क्यूमों स्वास्थ्यकर्मियों के लिए उपकरण और मरीज़ों के लिए वेंटीलेटर माँगने के मामले में गिड़गिड़ा रहे हैं। कुछ दिन पहले ही उन्होंने कहा था कि मरीज़ों को वेंटिलेटर साझा करना पड़ा। लेकिन न्यूयॉर्क टाइम्स को भारत के 21 दिनों के लॉकडाउन में खोट नज़र आया।
उसका कहना है कि इस फ़ैसले से पहले से सुस्त अर्थव्यवस्था और तबाह हो जाएगी। अख़बार में JNU के एक प्रोफ़ेसर के हवाले से लिखा है कि इससे असंगठित क्षेत्र के 50% कामगार बर्बाद हो जाएंगे।
मोदी के 21 दिवसीय लॉकडाउन पर न्यूयॉर्क टाइम्स की सभी रपट नकारात्मक रही है। इसके अलावा वाशिंगटन पोस्ट और पश्चिमी न्यूज़ एजेंसियां भी सरकारी फैसलों की व्यापक रूप से आलोचना कर रही है।
कोरोना के इस दौर में एक शताब्दी पुराने स्पेनिश फ़्लू की भी याद ताज़ी हो जाती है। इसकी शुरुआत 1918 में प्रथम विश्वयुद्ध में खुदाई करने वाले उन चीनी मज़दूरों के साथ हुई, जो इस वायरस को चीन से यूरोप लेकर आए।
इस वायरस ने युद्ध के दौरान दोनों खेमों के सैनिकों की जान ली। 1919 में युद्ध ख़त्म होने के पश्चात यह वायरस अपने अपने देशों को वापस लौटते सैनिकों के साथ तमाम देशों में फैल गया।
तब वायरस ने ली थी दो करोड़ की जान
इस वायरस ने दो साल में करोड़ों लोगों की जान ली। कहा जाता है कि महात्मा गांधी और अमेरिकी राष्ट्रपति वुडो विल्सन को भी यह बीमारी हुई थी। चूँकि तब तक इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप का आविष्कार नहीं हुआ था।
इसलिए स्पेनिश फ्लू के वायरस को देखने का कोई ठोस ज़रिया नहीं था। तत्कालीन वैज्ञानिकों को आरएनए का ज्ञान नहीं था। जिससे वायरस बनते हैं, मगर तब भी वैज्ञानिकों ने हार नहीं मानी और उस वायरस के ख़िलाफ़ जो बन पड़ा किया।
पुरानी वैक्सीन का मिश्रण इस्तेमाल किया गया। हर प्रकार की दवाइयां और जड़ी बूटियाँ आज़माई गई। आदमी के हर तरह के संघर्ष में उसका सबसे बड़ा हथियार बना दिमाग़।
मानव ने अपने विकास पथ में हिम युग को पार किया। जानवरों पर विजय पाई। सभी प्रजाति से ऊपर अपना स्थान बनाया। जानलेवा टाइफस पर विजय हासिल की। फिर चेचक और अन्य बीमारियों पर। टीबी अब बड़ी महामारी नहीं बची।
सफलता की ओर
हैज़ा जिससे अब गाँव के गाँव साफ होते थे निजात मिल गई। मानव ने जानलेवा दुश्मन को पहली बार 1935 में देखा। इसकी पूरी संरचना की जानकारी हमें 1955 में हुई। इसके बाद से वायरस के ख़िलाफ़ लड़ाई में तेज़ी आयी।
इसी जनवरी में कोरोना वायरस के संक्रमण के लगभग डेढ़ महीने बाद चीन ने इस वायरस का पूरा जीनोम यानी उसकी संरचना दुनिया भर के वैज्ञानिकों को उपलब्ध करा दी थी।
अमेरिकी सरकार की स्वास्थ्य संस्था वार्डा ने निजी कंपनियों के साथ मिलकर वैक्सीन बनाने की मुहिम चालू की। सनोफी और जॉनसन एंड जॉनसन भी इसमें शामिल है।
मोडर्णा नाम एक कंपनी ने आरएनए का उपयोग करके अपनी पहली ट्रायल वैक्सीन जीनोम मिलने के महज़ 42 दिनों बाद तैयार कर ली थी। 2003 में जब सार्स वायरस फैला था, तब हमें तब इस तक पहुँचने में तीस महीने लगे थे।
गिलेड कंपनी अपनी एक दवा का चीन और अमेरिका में वायरस ग्रस्त लोगों पर प्रयोग कर रही है। इसके साथ ही मलेरिया की एक दवा का भी परीक्षण कोरोना वायरस पर चल रहा है। यह दवा कितनी प्रभावशाली है। इससे होने वाले दुष्प्रभावों क्या हैं? यह जानना अभी बाक़ी है।
बुजुर्गों पर आफत
अक्सर तीसरी दुनिया के देशों को विकसित देश अपनी अच्छी चिकित्सकीय सुविधाओं का हवाला देकर इतराते थे। आज कराह रहे हैं। अमेरिका, इटली और स्पेन में हज़ारों लोगों को इस तरह मरना एक बड़ी घटना है। इटली में बुजुर्गों को बिना इलाज के छोड़ दिया। वहाँ कोरोना के कारण मरने वालों में साठ फ़ीसदी बुजुर्ग हैं।
बुजुर्गों की आबादी के मामले में इटली, जापान के बाद दूसरे नंबर पर है । वहाँ की २३ फ़ीसदी आबादी 65 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों की है। भारत समेत पूरी दुनिया में यह कहने की होड़ सी मची हुई है कि बुजुर्ग अर्थव्यवस्था पर बोझ होते हैं। यहाँ तक कि यह नियम बन चला है कि 50 के बाद लोगों को किसी भी तरह नौकरियों से हटा दिया जाए।
लेकिन किसी भी मानवाधिकार संगठन ने इस बारे में कोई आवाज़ नहीं उठायी। एक तरफ़ विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि बुजुर्गों को कोरोना के संक्रमण का अधिक ख़तरा है।
दूसरी तरफ़ लांसेट की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि सोशल डिस्टेंसिंग का सबसे अधिक असर बुजुर्गों पर ही पड़ने वाला है। वे ही बाहर जाकर अपने परिचित मित्रों के साथ समय बिताते थे।
अमेरिका में सिर्फ़ 14.5 फ़ीसदी आबादी 65 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों की है। मगर कोरोना से सर्वाधिक ख़तरा उन्हें ही है। अपने यहाँ भी छह प्रतिशत बुजुर्ग अकेले रहते हैं।
इनकी तक़लीफ़ भी ऐसी ही है। हाल में कैलिफोर्निया में रहने वाली एक रिश्तेदार महिला ने कहा था कि अगर आप का एक भी सफ़ेद बाल दिख जाए तो अमेरिका में नौकरी मिलना मुश्किल है, यह इन दिनों दुनिया भर के लिए सच यही है।
मदद के नाम पर मुनाफाखोरी
मदद के नाम दूसरे देशों को चिकित्सा सामग्री और उपकरण बेच कर चीन भारी मुनाफ़ा कमा रहा है। चीन कमज़ोर देशों को मीडिया के तेवर कुंद करने का विचार भी दे रहा है। मास्क दवा और वेंटिलेटर महंगे दाम पर बेच कर मनमाना मुनाफ़ा कमाया जा रहा है।
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दक्षिण के राज्य तमिलनाडु, आँध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल और पुडुचेरी कोरोना से लड़ने में क़ामयाब रहे हैं। इसकी वजह वहाँ की परंपरा है कि लोग जब बड़े बुज़ुर्गों से मिलने जाते हैं तो मुँह कपड़े से ढक लेते हैं। यही नहीं बोलते वक़्त मुँह पर हाथ रख लेते हैं।
दुनिया भर में दक्षिण के राज्यों की नर्स अच्छी मानी जाती हैं। इसके साथ दक्षिण में पारंपरिक चिकित्सा पद्धति जैसे सिद्ध, आयुर्वेद, होम्योपैथी की समृद्ध परंपरा है। इन चिकित्सा पद्धतियों ने आदमियों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में मदद की। अगले साल तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी में चुनाव है देखना यह है कि कोरोना चुनाव का एजेंडा बनता है ही नहीं।
पुलिस बल जन विरोधी आक्रामकता के लिए 1861 से बदनाम है। लेकिन महामारी के दौरान वह चिकित्सकों के साथ इस संग्राम की अग्रिम पंक्ति का सम्मानीय योद्धा बन गया है।
कष्ट में भी अच्छे संकेत
आपदाएँ कष्ट देती हैं। जीवन छीनती हैं लेकिन तमाम अनुभव भी देती हैं। संप्रति एक नई सामाजिक व्यवस्था आकार ले रही है। जलसों में भीड कम हो रही है। सामाजिक शिष्टाचार बदल रहे हैं। स्वच्छता नया जीवन मूल्य हो रहा है। गांवों की तुलना में नगरों में रहने का आकर्षण घटा है। गाँव में महामारी का प्रकोप कम है।
जब आप स्वार्थ से ग्रसित हो जाएं, तब आप अपने सम्मुख आए हुए किसी दरिद्र एवं असहाय व्यक्ति का चेहरा आँखों के सामने लाएँ। सोचें कि आपने जो करने की योजना बनायी है उसका उस व्यक्ति को कोई लाभ मिलेगा या नहीं। इस प्रश्न का जो उत्तर मिलने होगा। उसी से प्रकृति की क़ीमत पर हो रहे विकास की नाप तौल की जा सकती है।
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पृथ्वी पर भयभीत, अनिश्चित जीवन आज पहली चिंता है। सामान्य स्थितियों के सारे विश्वसनीय संकेत संप्रति स्थगित हैं। अंधेरे मे हैं। लेकिन हर मौसम के आकाश में बादलों को हमेशा गुज़रते हुए देखा गया है। आषाढ के आकाश पर बादल का कोई छोटा सा टुकड़ा आ जाता है। पूरे आकाश में दूर तक फैल जाता है।
लगता है अनवरत बारिश, कभी बारिश, कभी थमेगी ही नहीं। पर बारिश थमती है। आकाश साफ़ होता है। जीवन सामान्य होता है। इस समय आकाश साफ़ है। नदियां अभी बिना किसी मानवीय योजना के स्वच्छ हो चुकी है।
जिंदगी चलेगी
फ़िलहाल करोना वायरस के संक्रमण के चलते पूरी दुनिया में सोशल डिस्टेंसिंग है। व्यापार, कला, मनोरंजन, खेल और जीवन कि वे सभी विधाएं प्रभावित हुई हैं जिनमें सामाजिक एकत्रीकरण होता है। इसी आधार पर कुछ तो उस समाज के अंत की आशंका जता रहे हैं। जो पहले था।
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यह पहला अवसर नहीं है जब इस तरह की किसी स्थापित स्वरूप के अंत की घोषणा की गई है। या की जा रही है। पर हर बार मानव समाज उठ खड़ा होता है। जीवंत हो जाता है। नये रास रच लेता है। नये संगीत गढ लेता है। नया साहित्य रच लेता है। इस बार भी होगा। ज़रूर होगा।
विश्व में यह राय बन चुकी है कि कोरोना भी चलेगा और ज़िंदगी भी चलेगी। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कहा था कि जीवन में आए अवसरों को व्यक्ति साहस एवं ज्ञान की कमी के कारण समझ नहीं पाता है। हमें इस पर ग़ौर करना होगा।