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27 साल से धूल फांक रही वोहरा कमेटी की रिपोर्ट, हर सरकार ने पेश करने से किया किनारा

मार्च, 1993 में मुंबई धमाकों के बाद सरकार ने गृह सचिव रहे एनएन वोहरा कमेटी बनाई थी। इसका काम क्राइम सिंडिकेट, माफिया संगठनों की गतिविधियों के बारे में जानकारी जुटाना था जिन्हें सरकारी अधिकारियों और नेताओं से संरक्षण मिलता है।

SK Gautam
Published on: 13 Feb 2020 1:25 PM GMT
27 साल से धूल फांक रही वोहरा कमेटी की रिपोर्ट, हर सरकार ने पेश करने से किया किनारा
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विशेष प्रतिनिधि

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने राजनीति में आपराधिक रिकॉर्ड वाले उम्मीदवारों की बढ़ती संख्या पर चिंता जताते हुए आदेश दिया है कि अब राजनीतिक दलों को ऐसे उम्मीदवारों को चुनाव का टिकट दिए जाने की वजह बतानी होगी और उसका आपराधिक ब्योरा भी देना होगा। इस आदेश का पालन न करने पर अवमानना की कार्रवाई की जा सकती है।

ऐसे में महत्वपूर्ण सवाल यह है कि नेताओं-अपराधियों-अफसरों और पुलिस के बीच गठजोड़ को जड़ से खत्म करने की दिशा ठोस प्रयास क्यों नहीं होते। पीवी नरसिंह राव की सरकार के समय गठित नरिंदर नाथ वोहरा कमेटी ने इस गठजोड़ पर विस्फोटक रिपोर्ट सौंपी थी। रिपोर्ट के उस हिस्से को मोदी सरकार ने भी सार्वजनिक नहीं किया जिसे विस्फोटक माना जाता है।

रिपोर्ट में हैं विस्फोटक जानकारियां

मार्च, 1993 में मुंबई धमाकों के बाद सरकार ने गृह सचिव रहे एनएन वोहरा कमेटी बनाई थी। इसका काम क्राइम सिंडिकेट, माफिया संगठनों की गतिविधियों के बारे में जानकारी जुटाना था जिन्हें सरकारी अधिकारियों और नेताओं से संरक्षण मिलता है। कमेटी ने पांच अक्टूबर, 1993 को ही अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी मगर 27 साल बाद भी यह रिपोर्ट धूल फांक रही है। कुछ लोगों का कहना है कि इसमें दाऊद इब्राहिम के साथ नेताओं और पुलिस के गठजोड़ की विस्फोटक जानकारियां है। इसीलिए कोई भी सरकार इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई।

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कोर्ट ने मान ली सरकार की दलील

जब 1997 में केंद्र सरकार पर रिपोर्ट को सार्वजनिक करने का दबाव बढ़ा तो सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। कोर्ट ने भी सरकार की दलील मान ली। जज ने कहा कि सरकार को रिपोर्ट सार्वजनिक करने पर बाध्य नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने राजनीति में अपराधियों की बढ़ती संख्या पर दो साल पहले भी चिंता जताई थी। 26 सितंबर, 2018 को मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र की पीठ ने राजनीति के अपराधीकरण को लोकतंत्र के महल में दीमक बताया था।

चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की पीठ में जस्टिस आरएफ नरीमन, एएम खानविलकर, इंदु मल्होत्रा और डीवाई चंद्रचूड़ भी शामिल थे। पांच जजों की बेंच कई ऐसे पीआईएल की सुनवाई कर रही थी जिनमें दोषी ठहराए जाने से पहले ही आरोपों के आधार पर नेताओं की सदस्यता खत्म करने की अपील की गई थी। हालांकि बेंच ने इस पर कार्रवाई का अंतिम फैसला संसद पर छोड़ दिया।

चीफ जस्टिस ने भी किया था जिक्र

चीफ जस्टिस मिश्रा ने इस फैसले में भी 1993 में मुंबई में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों के बाद बनी एनएन वोहरा कमेटी की रिपोर्ट का जिक्र किया था। उन्होंने कहा कि देश की राजनीतिक प्रणाली में राजनीति का अपराधीकरण कोई नया विषय नहीं है बल्कि इसका सबसे दमदार उदाहरण तो 1993 के मुंबई धमाकों के दौरान दिखा जो क्रिमिनल गैंग्स, पुलिस, कस्टम अधिकारियों और उनके राजनीतिक आकाओं के नेटवर्क का ही नतीजा था। रिपोर्ट को दो साल तक संसद में नहीं रखा गया।

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सेलेक्टिव रिपोर्ट सार्वजनिक की

1995 में सनसनीखेज नैना साहनी हत्याकांड के बाद सरकार पर रिपोर्ट को सार्वजनिक करने का दबाव बढ़ा। अगस्त, 1995 में वोहरा कमेटी की सेलेक्टिव रिपोर्ट सार्वजनिक की गई। रिपोर्ट के 100 से ज्यादा पन्नों में सिर्फ 12 पन्ने सार्वजनिक किए गए। मजे की बात तो यह है कि कोई नाम सार्वजनिक नहीं किया गया।

जानकारों का कहना है कि रिपोर्ट के मुताबिक नेक्सस में कुछ एनजीओ और बड़े पत्रकार भी शामिल थे। जब राज्यसभा सदस्य दिनेश त्रिवेदी ने सुप्रीम कोर्ट में रिपोर्ट सार्वजनिक कराने के लिए अर्जी दी तो सरकार ने विरोध पर अटार्नी जनरल की बात मान ली गई। 2014 में केन्द्र में मोदी सरकार बनने के बाद भी रिपोर्ट को लेकर इंतजार खत्म नहीं हुआ है।

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