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किसान आंदोलन को क्यों नहीं मिल रहा समर्थन, क्या वामपंथ नेतृत्व है जिम्मेदार
सरकार से बातचीत के समर्थक किसान नेताओं को संघ और भाजपा का पिछलग्गू मानकर दरकिनार कर दिया गया जबकि आंदोलन की कमान वामपंथी विचारधारा के समर्थक नेताओं ने थाम ली।
रामकृष्ण वाजपेयी
नये कृषि कानूनों का विरोध कर रहे किसानों के भारत बंद का पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश को छोड़कर देश में कहीं और समर्थन नहीं मिला। यह किसानों के मौजूदा नेतृत्व की बड़ी विफलता ही कही जाएगी। क्योंकि उनके पास समय था, मौका था और अवसर था कि वह अपनी बात देश के अन्य हिस्सों में किसानों तक पहुंचा पाते लेकिन वह इसमें असफल रहे। सबसे बड़ी बात यह है कि पश्चिम बंगाल जहां किसान नेता गए थे वहां भी भारत बंद को समर्थन नहीं मिला। यह इस आंदोलन की सबसे बड़ी विफलता है। और यही वजह है कि किसानों के विरोध प्रदर्शन में धीरे धीरे अब भीड़ कम हो रही है। जोरशोर से शुरू हुए इस बड़े आंदोलन को आखिर समर्थन क्यों नहीं मिल रहा और कौन है इसके लिए जिम्मेदार।
किसान आंदोलन में लोगों की भीड़
पंजाब में किसान आंदोलन की शुरुआत पिछले वर्ष जून में हो गई थी। नवंबर में यह आंदोलन दिल्ली में शिफ्ट हो गया। उस समय किसान आंदोलन में लोगों की भीड़ देख कर लगता था कि पूरा देश सड़क पर आ रहा है। लेकिन किसानों की यह भीड़ पंजाब, हरियाणा और बाद में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों की थी। पश्चिम उत्तर प्रदेश बाद में इसलिए क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब, हरियाणा के किसानों की समस्याएं थोड़ा अलग हटकर हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों की समस्याएं इन दोनों राज्यों के किसानों से जुदा हैं। लेकिन जाट एकता के बैनर तले सब एकजुट हुए। लेकिन इस पूरे आंदोलन में एक बात लगातार दिखती रही कि क्या यह सिर्फ जाट और गूजरों का आंदोलन है।
बड़े काश्तकार
विश्लेषकों की मानें तो मौजूदा किसान आंदोलन के पीछे एक बहुत बड़ा फैक्टर अगड़े और पिछड़े किसानों का है। जो किसान आंदोलन कर रहे हैं यह सब बड़ी जोतों के स्वामी हैं यानी बड़े काश्तकार हैं। लेकिन देश में किसानों का एक बड़ा हिस्सा छोटे किसानों का है जितनी खेती का रकबा इतना कम है कि खुद उनके लिए ही साल भार का अनाज हो पाता है। थोड़ा बहुत बचता भी है तो क्षेत्रीय आढ़तिया उनकी मंडी बन जाता है।
78 फीसद किसानों से कोई वास्ता नहीं
ऐसे में किसान जिन कानूनों का विरोध करते हुए आंदोलन कर रहे हैं मंडी और एमएसपी को लेकर आंदोलन कर रहे हैं उसका देश के 78 फीसद किसानों से कोई वास्ता नहीं है। न तो उन्हें नये कृषि कानूनों की जानकारी है, न उन्हें मंडी से मतलब है। ये किसान ट्रैक्टर से नहीं हल बैल से खेती करते हैं वह भी आपस में एक दूसरे से उधार लेकर अपनी जरूरत पूरी करते हैं।
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किसान कोई जाति नहीं
इसके अलावा एक बड़ी वजह किसानों का जातियों के खांचे में बंटा होना है। किसान कोई जाति नहीं है। खेती लगभग सभी बिरादरियों के लोग करते हैं। पश्चिम उत्तर प्रदेश का किसान एक जुट हो जाता है क्योंकि वहां पर गोत्र आधारित गांव की परंपरा है। और ये गांव एक सीध में साठ से सत्तर तक होते हैं। लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश की बात करें तो वहां ऐसा नहीं है। देश के अन्य प्रांतों में भी यही स्थिति है सरकार की योजनाओं का फायदा किसानों का एक छोटा तबका या यूं कहें किसानों में मलाई खाने का आदी वर्ग उठा रहा है। आम किसान जिसे कुछ नहीं पता वह दो जून की रोटी के लिए खेत में जूझ रहा है उसे बाकी किसी बात के लिए न तो वक्त है न सोचने समझने की ताकत।
सरकार से बातचीत में कहां है पेंच
यह ठीक है कि आंदोलन की शुरुआत किसानों के मुद्दे पर हुई लेकिन किसानों को जो नेतृत्व मिला उसकी नजर किसान हित से ज्यादा अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति की रही। यही वजह रही कि सरकार के साथ वार्ता को लगातार या जानबूझकर विफल कराया गया ताकि किसान आंदोलन को लंबा खींच कर चुनाव के वक्त राजनीतिक लाभ लिया जा सके। जब तक किसान आंदोलन की कमान किसानों के हाथ थी तब तक फिर भी गनीमत थी लेकिन जब आंदोलन की कमान सियासी ताकतों के हाथों में चली गई तब किसानों के हाथ कुछ नहीं बचा। वह खिलौना बन गए।
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आंदोलन की कमान वामपंथी विचारधारा
इसमें भी महत्वपूर्ण यह है कि सरकार से बातचीत के समर्थक किसान नेताओं को संघ और भाजपा का पिछलग्गू मानकर दरकिनार कर दिया गया जबकि आंदोलन की कमान वामपंथी विचारधारा के समर्थक नेताओं ने थाम ली। इसके बाद किसानों की समस्या और उन पर सरकार से बातचीत की बात गर्त में चली गई रह गई सिर्फ सतही सियासी लड़ाई। एक दूसरे पर खुद को सवा सेर दिखाने की कोशिशें। इसी का नतीजा है कि किसान आंदोलन धीरे धीरे अपनी प्रासंगिकता खो रहा है जबकि सियासी नेता इसमें तब तक रंग भरने की कोशिश करते रहेंगे जब तक उन की गोटियां फिट नहीं बैठ जाती।