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Newstrack.com ने पहले ही कहा थाः वक्त रहते, भरोसा जीत ले सरकार किसानों को नहीं मंजूर खेत छोड़ना

newstrack.com के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र ने एक साल पहले ये बात कही थी कि किसानों को नहीं मंजूर खेत छोड़नाः वक्त रहते, भरोसा जीत ले सरकार।

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 19 Nov 2021 5:15 AM GMT (Updated on: 19 Nov 2021 6:09 AM GMT)
Prime Minister Modi announces repealing of three farm laws
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Prime Minister Modi announces repealing of three farm laws

newstrack.com ने आज से ठीक तकरीबन एक साल पहले 7 दिसंबर 2020 को कहा था कि किसानों ने सरकार से तीन सवाल पूछे और हां या ना में जवाब मांगा। कहा- सरकार बताए कि वह कृषि कानूनों को खत्म करेगी या नहीं? MSP को पूरे देश में जारी रखेगी या नहीं? और नए बिजली कानून को बदलेगी या नहीं? पिछले कई साल से खेती की स्थिति को लेकर एक खतरनाक आक्रोश पनप रहा है। समय रहते समझकर समाधान न किया गया तो देश एक भयंकर आंदोलन की चपेट में आ सकता है। इतने बड़े और इतने महत्वपूर्ण तबके का अशांत होना देश के लिए अच्छा नहीं है। वैसे भी विकास का कोई और किसी सरकार का दावा इनके साथ लिये बिना पूरा नहीं हो सकता।

आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है मैं किसानों को समझा पाने में नाकाम रहा। संगठन और सरकार की विफलता को अपने कंधे पर लेकर नरेंद्र मोदी एक बार फिर निर्विवाद नेता के तौर पर उभरे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज गुरु नानक देव की पावन पर्व पर तीनों कृषि कानूनों को वापस लिए जाने का ऐलान किया है । जिसे इसी माह संसद में सत्र के दौरान प्रस्ताव रखने की घोषणा की-नरेन्द्र मोदी ने कहा आज मैं आपको, पूरे देश को, ये बताने आया हूं कि हमने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का निर्णय लिया है। इस महीने के अंत में शुरू होने जा रहे संसद सत्र में, हम इन तीनों कृषि कानूनों को Repeal करने की संवैधानिक प्रक्रिया को पूरा कर देंगे।


न्यूजट्रैक के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र ने एक साल पहले ये बात कही थी कि किसानों को नहीं मंजूर खेत छोड़नाः वक्त रहते, भरोसा जीत ले सरकार। प्रस्तुत है उनका लेख

किसानों को नहीं मंजूर खेत छोड़नाः वक्त रहते, भरोसा जीत ले सरकार

योगेश मिश्र

उत्तम खेती, मध्यम बान। निषिद्ध चाकरी, भीख निदान। महाकवि घाघ की यह कहावत इक्कीसवीं सदी में ग़लत साबित हो गयी। जिसे कभी हमने ग्राम देवता कहा था, जिसके लिए कभी हमने जय जवान, जय किसान का नारा दिया था, यह सब आज बेमानी साबित हो रहे हैं।

आखिर क्या करे अन्नदाता

हमारा अन्नदाता खुले आसमान तले ठंडक और करोना के दौर में रहने को अभिशप्त है। टिकरी-कुंडली बॉर्डर पर आंदोलन कर रहे 170 से ज्यादा किसान बुखार और खांसी से पीड़ित हैं। यहां लगे कैंपों में हजारों किसान दवा ले रहे हैं।

अपील के बावजूद किसान कोरोना टेस्ट नहीं करवा रहे हैं। किसानों को समर्थन देने पहुंचे महम विधायक बलराज कुंडू कोरोना पॉजिटिव मिले।केंद्र सरकार के कृषि संबंधी तीन बिलों को लेकर अन्नदाता नाराज़गी ज़ाहिर करने में लगा है।

उसने सत्याग्रह का रास्ता अख़्तियार कर रखा है। किसानों के हालात पर बोलने की जगह मीडिया यह समझाने में जुट गया है कि किसान दिल्ली के लिए मुसीबत खड़ी कर रहे हैं। आंदोलन के पीछे कौन सियासी दल हैं? फंड कहाँ से आ रहा है?

ऐसे में किसानों के पास अपनी ताक़त दिखाने के सिवाय कोई रास्ता कहाँ बचता है? क्योंकि 23 फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य किसान को मिलते है। उनका भय है कि नये क़ानूनों में न्यूनतम समर्थन मूल्य का प्रावधान समाप्त हो जायेगा।

क्या कह रही है सरकार

हालाँकि किसानों से बातचीत करने वाले कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह यह कह रहे हैं,"उनके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य धर्म की तरह है, वह कभी ख़त्म नहीं होगा।" तोमर ने कहा कि मोदी सरकार किसानों के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध थी, है और रहेगी।




अगर आप मोदीजी के छह साल के काम को देखेंगे तो किसानों की आमदनी में बढ़ोतरी हुई है। एमएसपी बढ़ी है। एक साल में हम 75 हजार करोड़ रुपए किसानों के खातों में भेजे गये हैं। 10 करोड़ किसानों को 1 लाख करोड़ से ज्यादा पैसे दिये जा चुके हैं।

फिर आगे क्यों नहीं बढ़ पा रही सरकार

पर सरकार किसानों के इस कहें पर आगे क्यों नहीं बढ़ रही है कि नये कृषि क़ानूनों में वह न्यूनतम समर्थन मूल्य लागू रहेंगे, यह जोड़ दे। इससे किसानों की आशंका सच लगती है। जबकि सरकार को यह सच्चाई भी पता है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर केवल देश के छह फ़ीसदी किसान ही अपनी उपज बेंच पाते हैं।

इसका सीधा मतलब है कि कांग्रेस सरकारें छह फ़ीसदी किसानों के हित साध कर बाक़ी के 94 फ़ीसदी किसानों को खुश कर लेती थीं। पर इसी के साथ यह सवाल भी उठता है कि आख़िर केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार से कहाँ इस पूरे मामले को हैंडिल करने में चूक हुई कि किसान नाराज़ हो गये ।

विपक्ष एकजुट तो अपने बेगाने

छह साल के कार्यकाल में मोदी सरकार के ख़िलाफ़ विपक्ष को एकजुट होने का अवसर कैसे मिल गया? मोदी सरकार ने नोटबंदी, जीएसटी, तीन तलाक़, रिटेल में एफ़डीआई, सीएए , राम मंदिर और जम्मू कश्मीर में 370 को समाप्त करने जैसे कई बड़े फ़ैसले लिए पर न तो विपक्ष को प्लेटफ़ॉर्म मिला, न ही सड़क पर उतरने का मौक़ा।

यदि मुठ्टी भर लोग सड़क पर कहीं उतरे तो उन्हें जनता का समर्थन नहीं मिला। पर किसान आंदोलन में सब उल्टा हो रहा है। भाजपा के विचार केंद्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आनुषांगिक संगठन भारतीय किसान संघ भी इस फ़ैसले से नाराज़ है। उसकी नाराज़गी साफ पढ़ी जा सकती है।

बड़े काम के नए कानून कहना है सरकार का

नये कृषि क़ानूनों के बारे में सरकार का यह कहना है कि यह किसानों के लिये नये विकल्प उपलब्ध करायेगा,उपज बेचने पर आने वाली लागत को कम करेगा, बेहतर मूल्य दिलाने में मदद करेगा। इससे जहां ज्यादा उत्पादन हुआ है उन क्षेत्रों के किसान कमी वाले दूसरे प्रदेशों में अपनी कृषि उपज बेचकर बेहतर दाम प्राप्त कर सकेंगे।

नया कानून किसानों को अपने उत्पाद नोटिफाइड ऐग्रिकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी यानी तय मंडियों से बाहर बेचने की छूट देता है।

इसका लक्ष्य किसानों को उनकी उपज के लिये प्रतिस्पर्धी वैकल्पिक व्यापार माध्यमों से लाभकारी मूल्य उपलब्ध कराना है। इस कानून के बाद किसानों से उनकी उपज की बिक्री पर कोई सेस या फीस नहीं ली जाएगी।

नया कानून आवश्यक वस्तुओं की सूची से अनाज, दाल, तिलहन, प्याज और आलू जैसी कृषि उपज को युद्ध, अकाल, असाधारण मूल्य वृद्धि व प्राकृतिक आपदा जैसी 'असाधारण परिस्थितियों' को छोड़कर सामान्य परिस्थितियों में हटाने का प्रस्ताव करता है।

इस तरह की वस्तुओं पर लागू भंडार की सीमा समाप्त करता है। नया कानून किसानों को उनके होने वाले कृषि उत्पादों को पहले से तय दाम पर बेचने के लिये कृषि व्यवसायी फर्मों, प्रोसेसर, थोक विक्रेताओं, निर्यातकों या बड़े खुदरा विक्रेताओं के साथ अनुबंध करने का अधिकार प्रदान करता है।

खेती के निजीकरण पर बेबस किसान

सरकार इसे चाहे जिस भी रंग रोगन में पेश करे पर खेती में निजीकरण की शुरूआत होना कभी किसानों के हित में नहीं हो सकता। भारतीय किसानों को केवल बाज़ार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। क्योंकि पहले ही वह मौसम के भरोसे है, लागत उसकी लगातार बढ़ती जा रही है। किसानों को अपनी लागत मूल्य के अनुसार उचित कीमत नहीं मिल पाती, जिसके कारण उनकी आर्थिक स्थिति नहीं सुधर पाती। अक्सर घर के विशेष कार्यों व बीमारी के लिए कर्ज का सहारा लेने को उसे मजबूर होना पड़ता है।

किसान के लिए कर्ज एवं उसका ब्याज चुकाना नियति बन जाती है। जीवन उधार पर चलने लगता है। जब मौसम की मार के कारण अथवा किसी अन्य कारण से फसल ख़राब हो जाती है। उसके लिए कर्ज की नियमित किश्त चुकाना, कर्जदार को आश्वस्त करना मुश्किल हो जाता है। तब वह अत्याचार का शिकार होने लगता है।

यही तनाव, यही दर्द असहनीय होने पर किसान आत्महत्या को मजबूर होता है। हर किसान पर औसतन 47000 रुपयों का कर्ज है। लगभग 90 प्रतिशत किसान और खेत मजदूर गरीबी का जीवन जी रहे हैं।

ये सही नहीं है

अमेरिका व कनाडा जैसे देश जब अपने किसानों को भारी भरकम सब्सिडी दे रहे हों तब भारतीय किसान बाज़ार व निजी उद्योगपतियों के हवाले किया जाये यह अर्थव्यवस्था के लिहाज़ से भी सही नहीं कहा जा सकता ।

वह भी तब जब मोदी सरकार ने 2022 में किसानों की आमदनी को दोगुना करने का लक्ष्य रखा हो। वह भी तब जब मोदी सरकार देश भर के किसानों को छह हज़ार रुपये सालाना किसान सम्मान निधि सीधे किसानों के खाते में ट्रांसफ़र कर रही हो।

ग़ौरतलब है कि अमेरिका में प्रति वर्ष प्रत्येक किसान को औसतन 7253 डॉलर की सब्सिडी मिलती है। यूरोपियन यूनियन में हर किसान को 1068 डॉलर की सब्सिडी मिलती है। नॉर्वे में 22509 डॉलर की सब्सिडी मिलती है। इसके मुकाबले भारत के किसान को 49 डॉलर की सब्सिडी मिलती है।

एक नजर इधर भी गौर फरमाएं

पंद्रहवें वित्त आयोग के अनुसार किसानों को केंद्र सरकार की सब्सिडी अनुमान कुल 1, 20, 500 करोड़ रुपये बैठता है। 2018 के आँकड़े के मुताबिक़ इसमें 70 हजार करोड़ रुपये फर्टीलाइजर पर, क्रेडिट सब्सिडी 20 हजार करोड़ रुपये, फसल बीमा सब्सिडी 6500 करोड़ रुपये, समर्थन मूल्य सब्सिडी 24 हजार करोड़ रुपये है।

राज्य सरकारों की सब्सिडी का अनुमान कुल 1,15,500 करोड़ रुपये का है। इसमें बिजली सब्सिडी 90 हजार करोड़ रुपये। सिंचाई सब्सिडी 17500 करोड़ रुपये। फसल बीमा सब्सिडी 6500 करोड़ रुपये है।

अब यहाँ भारतीय किसान व खेती की त्रासदी का ज़िक्र ज़रूरी हो जाता है। गत बीस वर्षों में करीब सवा तीन लाख किसानों ने देश के विभिन्न हिस्सों में आत्महत्या की है। पंजाब जैसे समृद्ध प्रदेश में भी किसान आत्महत्या करने लगे हैं।

किसान सात दशक से हाशिये पर

आजादी के सात दशकों में देश की सत्ता पर अनेक राजनैतिक दलों की सरकारें सत्तासीन होती रहीं। पर किसानों की समस्याओं का वास्तविक समाधान नहीं निकाला जा सका। आजादी के समय देश की जीडीपी में कृषि का योगदान 55 फ़ीसदी था। जो घटकर मात्र 15 फ़ीसद ही रह गया है । जबकि कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या 24 करोड़ से बढ़कर 72 करोड़ हो गयी। देश के लगभग 85फीसदी किसान परिवारों के पास 2 हेक्टेयर से कम जमीन है।


पश्चिम बंगाल, जम्मू, हिमाचल प्रदेश और बिहार में एक किसान के पास औसतन आधा हैक्टेयर जमीन है। इसी तरह उत्तराखंड में 0.7, उत्तरप्रदेश में 0.8, तमिलनाडु में 1.1, मध्यप्रदेश, हरियाणा और महाराष्ट्र में 1.7 राजस्थान में 1.9 और नगालैंड में 2.1 हैक्टेयर कृषि भूमि है। नाबार्ड के 2018 के अध्ययन के मुताबिक भारत में 10.07 करोड़ किसानों में से 52.5 प्रतिशत क़र्ज़ में दबे हुए हैं।

किसान की दिहाड़ी 61 रुपये

वर्ष 2017 में एक किसान परिवार की कुल मासिक आय 8,931 रुपये थी। नफ़ीस शीर्षक से जारी नाबार्ड की यह रिपोर्ट बताती है कि एक किसान परिवार की कुल मासिक आय 8,931 रुपये थी।

एक कृषि आधारित परिवार में वर्ष 2016-17 की स्थिति में औसतन सदस्य संख्या 4.9 थी। केरल में एक परिवार में 4 सदस्य, उत्तर प्रदेश में 6, मणिपुर में 6.4, पंजाब में 5.2, बिहार में 5.5, हरियाणा में 5.3 कर्नाटक और मध्य प्रदेश में 4.5 और महाराष्ट्र में 4.5 सदस्य थी।

इस लिहाज़ से यह आमदनी प्रति सदस्य 61 रुपये प्रतिदिन बैठती है। देश में किसानों की सबसे कम मासिक आय मध्य प्रदेश में 7,919 रुपये है। बिहार में 7,175 रुपये, आंध्र प्रदेश में 6,920 रुपये, झारखंड में 6,991 रुपये, ओडिशा में 7,731 रुपये, त्रिपुरा में 7,592 रुपये, उत्तर प्रदेश में 6,668 रुपये और पश्चिम बंगाल में 7,756 रुपये है।

जबकि किसानों की ऊंची औसत मासिक आय पंजाब में 23,133 रुपये और हरियाणा में 18,496 रुपये दर्ज की गई।

छोटे काश्तकारों की व्यथा

नाबार्ड का यह अध्ययन बताता है कि उत्तर प्रदेश में प्रति सदस्य आय 37 रुपये है। झारखंड में किसान परिवार की आय के मौजूदा स्तर के हिसाब से प्रति सदस्य आय महज 43 रुपये है।मणिपुर में 51 रुपये, मिजोरम में 57 रुपये, छत्तीसगढ़ में 59 रुपये और मध्य प्रदेश में 59 रुपये है।जबकि पंजाब में प्रति सदस्य आय 116 रुपये, केरल में 99 रुपये, नगालैंड और हरियाणा में 91 रुपये के स्तर पर है।

भारत के 60 करोड़ किसानों में 82 फीसदी लघु और सीमान्त किसान है जो देश के कुल अनाज उत्पादन में 40 फीसदी का योगदान करते हैं। यही नहीं, फल, सब्जी, तिलहन और अन्य फसलों में छोटे किसानों की हिस्सेदारी 50 फीसदी है।

कृषि और सम्बंधित क्षेत्रों पर देश की 60 फीसदी आबादी आश्रित है। ग्रामीण क्षेत्रों में 70 फीसदी आबादी खेती-किसानी पर निर्भर है। वर्ष 2010-11 की कृषि जनगणना के अनुसार भारत में किसानों की कुल जनसंख्या में 67 फ़ीसदी सीमान्त किसान परिवार हैं, जिनके पास एक हेक्टेयर से कम कृषि योग्य भूमि हैl

74 फीसद तंगहाली में नहीं करा पाते बीमा

देश में एक किसान के पास औसतन 1.1 हेक्टेयर जमीन हैं। जिसमें से 60 प्रतिशत असिंचित है।केवल 26 प्रतिशत किसान के पास किसी भी तरह का बीमा है।

17 प्रतिशत किसानों के पास जीवन बीमा है। केवल 5 प्रतिशत किसानों के पास स्वास्थ्य बीमा है।66.8 प्रतिशत किसान कहते हैं कि उनके पास इतना धन भी नहीं बचता है कि वे बीमा करवा सकें। जबकि 32.3 प्रतिशत किसान नियमित आय न होने के कारण बीमा नहीं करवा पाते।

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना जैसी महत्वाकांक्षी योजना भी अपने मौजूदा स्वरूप में किसानों का भरोसा नहीं जीत सकती। केवल 5.2 प्रतिशत किसानों के पास ट्रैक्टर हैं। 1.8 प्रतिशत के पास पावर टिलर, 0.8 प्रतिशत के पास स्प्रिंकलर, 1.6 प्रतिशत के पास ड्रिप सिंचाई व्यवस्था और 0.2 प्रतिशत के पास हार्वेस्टर हैं।

प्रतिबंधित पेस्टिसाइड के इस्तेमाल को मजबूर

जबकि पंजाब में 31 प्रतिशत किसानों के पास ट्रैक्टर हैं, गुजरात में 14 प्रतिशत और मध्यप्रदेश में 13 प्रतिशत किसानों के पास ट्रैक्टर हैं। जबकि देश का औसत 5.2 प्रतिशत बैठता है। इसी तरह आंध्र प्रदेश में 15 प्रतिशत और तेलंगाना के 7 प्रतिशत किसानों के पास पावर टिलर हैं, जबकि भारत का औसत 1.8 प्रतिशत है। 51 से ज्यादा ऐसे पेस्टिसाइड हैं जो दुनिया के बाकी देशों में प्रतिबंधित है पर भारत सरकार ने उनको हमारे देश में अब भी प्रयोग करने की इजाजत दी हुई है।

वर्ष 2012-13 में नेशनल सैंपल सर्वे आर्गनाइजेशन ने किसान परिवारों की आय, व्यय, उत्पादक परिसंपत्तियों और कर्जे की स्थिति का अध्ययन किया था। जिसके मुताबिक़ वर्ष 2012-13 की स्थिति में भारत में एक किसान की औसत मासिक आय 6,426 रुपये थी। जिसमें 39 प्रतिशत की वृद्धि हुई।पर इसमें से 48 प्रतिशत यानी 3,081 रुपये की आय ही फसल से हासिल होती थी।

पांच साल में 59 रुपये

2016-17 में नाबार्ड रिपोर्ट के मुताबिक़ यह आय घट कर 35 प्रतिशत पर आ गई।इस वर्ष किसान परिवार की कुल मासिक आय 8,931 रुपये थी, जिसमें से केवल 3,140 रुपये यानी 35 प्रतिशत की आय खेती से हुई । सीधा है कि 5 साल में केवल 59 रुपये की वृद्धि हुई.

इसी तरह वर्ष 2012-13 में 763 रुपये यानी 12 प्रतिशत की आय पशुपालन से होती थी।जिसमें कमी हुई।

वर्ष 2016-17 में किसान की पशुपालन से आय घट कर 711 रुपये यानी कुल मासिक आय में से 8 प्रतिशत ही रह गई। इन पांच सालों में किसानों की कुल मासिक आय में हुई वृद्धि में सबसे बड़ा हिस्सा मजदूरी से होने वाली आय का रहा है। जो 2,071 रुपये यानी 32 प्रतिशत से बढ़कर 3,025 रुपये यानी 34 प्रतिशत पहुँच गयी।

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2012-13 के अध्ययन के मुताबिक 6,426 रुपये की मासिक आय में से 3,844 रुपये यानी 60 प्रतिशत फसल और पशुधन से मिल रहे थे। पांच साल बाद यह योगदान 43 प्रतिशत पर आ गया।

वर्ष 2016-17 में किसान की 8,931 रुपये की आय में से केवल 3,851 रुपये की आय फसल और पशुधन से हुई। बाकी 57 प्रतिशत हिस्सा अन्य स्रोतों मुख्यतः मजदूरी से हासिल हुआ। इस तरह देखें तो सीधे कृषि से आय में केवल 7 रुपये प्रतिमाह की वृद्धि हुई है।

नौकरी पेशा बनाम किसान

बढ़ती महंगाई व बढ़ते लागत मूल्य के हिसाब से किसान की आमदनी नहीं बढ़ती बल्कि नौकरी पेशा आदमी के वेतन में 1976 को आधार वर्ष मानें तो 120 से 150 गुना तक की बढ़ोतरी हुई है। जबकि किसान की उपज महज गेंहू को लें तो उसके समर्थन मूल्य मात्र तीन चार गुना बढ़ा है। जो लागत मूल्य के साथ न्याय नहीं है ।

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सातवाँ वेतन आयोग बताता है कि चपरासी का वेतन 18 हज़ार रूपये प्रति माह होगा। पर दो तीन एकड़ का किसान भी इतनी आमदनी नहीं कर पाता है। वह भी तब जब कृषि लागत व मूल्य आयोग कहता है कि गेंहूं और चावल पैदावार से किसान को तीन हजार रूपए प्रति हेक्टर की आय होती है । उन्हें अपनी रोज़ की मजदूरी भी नसीब नहीं होती। यानी किसान को ऊपज पर परिश्रम का फल भी नहीं मिलता है।

किसानी खत्म करो पर काम

इस असमानता को देख कर यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उभर रहा है कि वर्ष 2022 तक किसानों की आय दो गुना करने का सूत्र क्या होगा? भारत सरकार के कृषि लागत और मूल्य आयोग ने अपनी विभिन्न रिपोर्टों में किसान की आय दो गुनी करने के लिए 8 बातें कही हैं।

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आयोग अपनी सिफारिशों में कहता है कि किसान की आय को बढ़ाने के लिए उत्पादकता बढ़ानी है, खेती की लागत घटानी है, किसान की उपज को अच्छी और लाभदायक कीमत दिलवाना है, सिंचाई और सघनता बढ़ानी है, बेहतर नियोजन करना है, किसानों की क्षमता बढ़ानी है, किसान उत्पादक संगठनों को बढ़ावा देना है और आखिर में लोगों को खेती से निकाल कर गैर-कृषि काम में लगाना है।

यानी भारत में इस आयोग की आखिरी सिफारिश को ही लागू किया जा रहा है, शेष तो नीति बिंदु भर हैं। मौजूदा बेरोजगारी की दर ,जो कि लगभग 6 प्रतिशत है, को देखते हुए, यह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि खेती के उपक्रम से लोगों को निकाल कर उन्हें अन्य उपक्रमों में अवसर दिलवा पाने की भी कोई भी तैयारी दिखाई नहीं देती । यही वजह है कि सरकार से किसानों की नाराज़गी सड़क पर है।

भरोसा खो दिया सरकार ने

किसानों का भरोसा जीतने में सरकार इस कदर नाकाम हुई है कि वार्ता के दौरान किसानों ने सरकार का दिया भोजन और चाय-पानी भी कुबूल नहीं किया। शनिवार को पांचवें दौर की वार्ता के मौके पर किसान इतने आक्रोशित दिखे कि जब चार घंटे की बैठक हो गई, तो आखिरी एक घंटे में किसानों ने मौन साध लिया। मुंह पर उंगली रखकर बैठ गए।

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उन्होंने सरकार से तीन सवाल पूछे और हां या ना में जवाब मांगा। कहा- सरकार बताए कि वह कृषि कानूनों को खत्म करेगी या नहीं? MSP को पूरे देश में जारी रखेगी या नहीं? और नए बिजली कानून को बदलेगी या नहीं?पिछले कई साल से खेती की स्थिति को लेकर एक खतरनाक आक्रोश पनप रहा है।

समय रहते समझकर समाधान न किया गया तो देश एक भयंकर आंदोलन की चपेट में आ सकता है। इतने बड़े और इतने महत्वपूर्ण तबके का अशांत होना देश के लिए अच्छा नहीं है। वैसे भी विकास का कोई और किसी सरकार का दावा इनके साथ लिये बिना पूरा नहीं हो सकता।

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार व न्यूजट्रैक के संपादक हैं ।)

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