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सेना का ये रेजिमेंट: दुश्मन का सर एक वार में धड़ से अलग, नाम गोरखा
नेपाल में एक प्रतिबंधित पार्टी ने कहा कि भारतीय फौज में शामिल गोरखा सैनिक छुट्टी पर हों तो वापस ड्यूटी पर न जाएं। ताकि अगर भारत और चीन के बीच युद्ध की नौबत आ जाए तो नेपाल के गोरखाओं को चीन के खिलाफ न लड़ना पड़े।
नई दिल्ली: भारतीय सेना का एक अहम् हिस्सा है गोरखा रेजिमेंट, यह रेजिमेंट बहुत ही बहादुर होती है। आजकल भारत-नेपाल में तनाव का दौर चल रहा है। इन सबके बीच एक ऐसी खबर सुनने में आ रही है कि नेपाल में एक प्रतिबंधित पार्टी ने कहा कि भारतीय फौज में शामिल गोरखा सैनिक छुट्टी पर हों तो वापस ड्यूटी पर न जाएं। ताकि अगर भारत और चीन के बीच युद्ध की नौबत आ जाए तो नेपाल के गोरखाओं को चीन के खिलाफ न लड़ना पड़े। फिलहाल नेपाल पूरी तरह से चीन के प्रभाव में है और उसके इशारे पर चल रहा है।
यहां हम आपको ये बताते हैं कि क्यों गोरखा रेजिमेंट के सिपाही अपनी बहादुरी और जंग में अपने मजबूत इरादों के लिए जाने जाते हैं। गोरखा रेजिमेंट की बहादुरी की कहानियां और कुछ खास बातें।
महाबलिदान का गोरखा उत्सव
यहां हम आपको बता दें कि हर साल दशहरे के मौके पर गोरखा रेजिमेंट में एक बड़ा उत्सव होता। इसे महाबलिदान कहा जाता था। इसमें खुखरी से भैंस की बलि देने का रिवाज रहा। मान्यता है कि खुकरी के एक ही वार से भैंस का सिर कटे तो गोरखा सैनिकों की जंग में कभी हार नहीं होती। ऐसा इसलिए भी किया जाता था ताकि वे भीतर से मजबूत हो सकें और लड़ाई के मैदान में मुश्किल हालातों में भी उनका दिल कच्चा न पड़ जाए। परंपरा के तहत रेजिमेंट में सबसे ऊंची पोस्ट पर बैठे अधिकारी को ये परंपरा निभानी होती थी, बाकी गोरखा वहां जमा होकर उसे देखते थे। हालांकि कई बार अधिकारी के अनुपस्थित होने पर जूनियर पदों के सिपाही भी ये प्रथा पूरी करते थे।
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देवी को भैंसों की बलि
देवी को भैंसों (आमतौर पर ये नर भैंस होते थे) की बलि देते हुए ये जरूरी था कि भैंस का सिर खुखरी के एक ही वार से कटे। प्रशिक्षित और मजबूत दिल-दिमाग वाले गोरखाओं के साथ बहुत कम ही ऐसा होता था कि एक बार में जान न निकले। ऐसे में भैंस पर वार करने वाले गोरखाओं के लिए एक अजीब सजा मुकर्रर थी। स्क्रॉल के मुताबिक अधमरी भैंस का खून ऐसे गोरखा को अपने चेहरे पर लगाना होता था।
पशु प्रेमियों ने भैंस या भेड़-बकरियां मारने पर आपत्ति जताई
बाद में इसपर काफी फसाद होने लगा। पशु प्रेमियों ने भैंस या भेड़-बकरियां मारने पर आपत्ति की। जिसके बाद साल 2018 में रक्षा मंत्रालय ने सेना से कहा कि वो भैंसों की बलि की ये प्रथा बंद कर दे। वैसे पहले से ही गोरखा रेजिमेंट में ये प्रथा कम होने लगी थी। खासकर साल 1970 में यूके, हांगकांग और ब्रूनई में तैनात गोरखाओं ने लगभग पूरी तरह से महाबलिदान की परंपरा बंद कर दी थी।
अंग्रेजों और नेपाल राजशाही के बीच सुगौली संधि
एक ही वार में किसी का सिर कलम करने की बात हो या न हो लेकिन सेना की इस रेजिमेंट को हमेशा से ही अपने शौर्य और ताकत से लिए पहचाना जाता रहा। जैसे साल 1815 में जब ईस्ट इंडिया कंपनी का युद्ध नेपाल राजशाही से हुआ था, तब नेपाल को हार मिली थी लेकिन नेपाल के गोरखा सैनिक बहादुरी से लड़े थे। बाद में जब 1816 में अंग्रेजों और नेपाल राजशाही के बीच सुगौली संधि हुई तो तय हुआ कि ईस्ट इंडिया कंपनी में एक गोरखा रेजिमेंट बनाई जाएगी, जिसमें गोरखा सैनिक होंगे।
तब से नेपाल की पहाड़ियों के ये मजबूत युवा भारतीय सेना का हिस्सा हैं। इन्होंने लगभग हर युद्ध में अपनी बहादुरी से दुश्मनों को डराया। फिर चाहे वो विश्व युद्ध हों या फिर अफगानिस्तान की लड़ाई। भारत के अलावा गोरखाओं के साहस के कारण उन्हें कई दूसरे देशों जैसे यूके, सिंगापुर, मलेशिया में भी सेना में शामिल किया गया है।
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गोरखा सैनिकों की बहादुरी की कहानी
गोरखा सैनिकों की बहादुरी की किसी से तुलना नहीं। इसे एक छोटे से उदाहरण से समझा जा सकता है। दूसरे विश्न युद्ध के दौरान की बात है। जब राइफलमैन ब्रिटिश सेना की तरफ से भारत के सिपाही की तरह लड़े रहे थे। वे अपने दो साथियों के साथ थे कि तभी जापानी सेना की 200 सिपाहियों की टुकड़ी वहां आते दिखी। राइफलमैन अपने साथियों के साथ फुर्ती से खाई में जा छिपे, तभी जापानी सेना ने उन्हें देख लिया और एक के बाद एक ग्रेनेड फेंकने लगी।
इस दौरान साथी घायल हो गए और राइफलमैन अकेले ही ग्रेनेड खाई से बाहर फेंकने लगे। इस दौरान एक ग्रेनेड उनके दाएं हाथ में फट गया। पूरा का पूरा हाथ उड़ गया लेकिन राइफलमैन ने हार नहीं मानी। वो दूसरे हाथ से राइफल चलाने लगे और 31 जापानी सैनिकों को एक ही हाथ से मार दिया। बाद में उन्हें विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया।
इस लिए गोरखा सैनिकों की जंग में कभी हार नहीं होती
सेना की वो रेजिमेंट, जो एक वार में भैंस का सिर काटने में सिद्धहस्त होती है खुकरी के एक ही वार से भैंस का सिर कटे तो गोरखा सैनिकों की जंग में कभी हार नहीं होती भैंस की जान एक ही वार में न निकले तो वार करने वाले सिपाही को भैंस का खून अपने चेहरे पर मलना होता था। इसे महाबलिदान कहा जाता था।
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गोरखा दिल-दिमाग से तो मजबूत होते हैं लेकिन शारीरिक ताकत के लिए वे पक्की ट्रेनिंग से गुजरते हैं
तब से नेपाल की पहाड़ियों के ये मजबूत युवा भारतीय सेना का हिस्सा हैं। इन्होंने लगभग हर युद्ध में अपनी बहादुरी से दुश्मनों को डराया। फिर चाहे वो विश्व युद्ध हों या फिर अफगानिस्तान की लड़ाई। भारत के अलावा गोरखाओं के साहस के कारण उन्हें कई दूसरे देशों जैसे यूके, सिंगापुर, मलेशिया में भी सेना में शामिल किया गया है।
गोरखाओं को यूके, सिंगापुर, मलेशिया में भी सेना में शामिल किया गया है
वैसे गोरखा दिल-दिमाग से तो मजबूत होते हैं लेकिन शारीरिक ताकत के लिए वे पक्की ट्रेनिंग से गुजरते हैं। जैसे ब्रिटिश सेना में भर्ती होने के लिए उन्हें ब्रिटिशर लोगों से ज्यादा मुश्किल परीक्षा देनी होती है। इसके तहत उन्हें 1 मिनट में 75 बेंच जंप करने होते हैं। 2 मिनट में 70 उठक-बैठक लगानी होती है। इसके बाद की कसरस और मुश्किल है। इसमें गोरखाओं को 25 किलो का वजन पीठ पर लेकर हिमालय के कठिन पहाड़ों पर 5 किलोमीटर तक बिना रुके दौड़ना पड़ता है।
हर गोरखा के पास एक खुखरी होती है
हर गोरखा के पास एक खुखरी होती है। ये लगभग 18 इंच का मुड़ा हुआ-सा चाकू होता है। गोरखाओं का विश्वास है कि खुखरी को दुश्मन का खून चाहिए ही होता है। अगर ऐसा न हो सका तो म्यान में रखने से पहले गोरखा को खुद अपना खून इस चाकू को देना होता है।
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जय महाकाली, आयो गोरखाली
मुसीबत के समय में आम लोगों को बचाने के लिए जाना हो या युद्ध में हल्ला बोलना। ‘गोरखा’ सिपाही जब भी दुश्मन पर हमले के लिए आगे बढ़ते हैं तो उनकी जुबान पर नारा होता है- “जय महाकाली, आयो गोरखाली”। यहां तक कि आइएमए देहरादून में हर साल होने वाली पासिंग आउट परेड के दौरान भी गोरखा रेजिमेंट का यह नारा गूंजता है। गोरखा की बहादुरी के चलते भारतीय सेना द्वारा जितने भी ऑपरेशन किए जाते हैं, उन तमाम में गोरखा का योगदान जरुर होता है।