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JEE और NEET के चक्कर में बच्चों का बचपन न छीनिए, उन्हें जीने दीजिए, कोटा में छात्रों की आत्महत्याओं ने उठाए कई सवाल
Kota Coaching: देशभर में इंजीनियरिंग और मेडिकल प्रवेश परीक्षा में सफलता का सपना दिखाने वाले कोचिंग संस्थानों ने बच्चों से उनका बचपन छीन लिया है. जिम्मेदार सिर्फ कोचिंग संस्थान ही नहीं हैं
Kota Coaching: देश के कोचिंग हब राजस्थान के कोटा से आने वाली खबरें दहलाने वाली हैं. कोचिंग कर रहे छात्र लगातार आत्महत्या कर रहे हैं. अगस्त महीने में अब तक सात बच्चे जान दे चुके हैं. साल 2003 के पहले आठ महीनों में अब तक कुल 23 बच्चे कोचिंग के फंदे का शिकार हो चुके हैं. बात सिर्फ कोटा की ही नहीं है. देशभर में इंजीनियरिंग और मेडिकल प्रवेश परीक्षा में सफलता का सपना दिखाने वाले कोचिंग संस्थानों ने बच्चों से उनका बचपन छीन लिया है. जिम्मेदार सिर्फ कोचिंग संस्थान ही नहीं हैं. अभिभावक भी अपने बच्चों को जल्दी ही सेटल कर देने के चक्कर में उनपर इतना बोझ डाल रहे हैं कि ये मासूम समय से पहले ही मुरझा जा रहे हैं.
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कोचिंग को बढ़ाने में सरकारों व स्कूलों का भी रोल कम नहीं-
कोचिंग के इस मायाजाल को बढ़ावा देने में सरकारों और स्कूलों का भी रोल कम नहीं है. इसके साथ ही परीक्षा लेने वाली एजेंसियां भी अपने दायित्व का निर्वहन ठीक से नहीं कर रही हैं. सबसे पहले बात करते हैं स्कूलों की, तो इंटरमीडिएट तक के स्कूल चाहे वो सीबीएससी बोर्ड के हों, आईसीएसई बोर्ड के या फिर किसी भी राज्य के बोर्ड के, उनमें होने वाली पढ़ाई और जेईई व नीट की प्रवेश परीक्षा के पैटर्न में काफी अंतर है. एक छात्र स्कूल में तो अच्छे नंबर ला सकता है लेकिन प्रवेश परीक्षाओं में इसकी गारंटी नहीं है. यहीं से कोचिंग का खेल शुरू होता है. कोचिंग में वही पढ़ाया जाता है जो इन प्रवेश परीक्षाओं में आता है।
जाहिर है अभिभावक के सामने अब दो रास्ते होते हैं एक या तो वह बच्चे को सिर्फ स्कूल में पढ़ाकर 12 वीं कराए या फिर 12 वीं के साथ इंजीनियरिंग और मेडिकल की तैयारी कराए. अधिकतर अभिभावक यह सोचने लगते हैं कि सिर्फ इंटर पास करके तो कुछ होने वाला नहीं है ऐसे में कोचिंग पर जोर देते हैं और बोर्ड में सिर्फ पास करने या 75 प्रतिशत न्यूनतम अंक तक लाने के हिसाब से सोचते हैं. चूंकि जेईई के लिए इंटरमीडिएट में न्यूनतम 75 प्रतिशत अंक जरूरी होते हैं. यहीं से बच्चे की स्कूल और कोचिंग के बीच की दौड़ शुरू हो जाती है.
कोचिंग के कई माड्यूल हैं
कोचिंग वालों ने भी अपने कई तरह के माड्यूल विकसित कर लिए हैं. एक तो यह कि रेगुलर स्कूल के साथ कोचिंग, दूसरा स्कूल से टाइअप करके स्कूल में ही स्कूल के साथ कोचिंग, जिसमें कोचिंग के शिक्षक स्कूल जाकर पढ़ाते हैं, बच्चे का समय बचाने को. और तीसरा है डमी स्कूल का कांसेप्ट. इसमें कोचिंग वाले ही बच्चे का एडमीशन किसी ऐसे स्कूल में करा देते हैं जहां बच्चे को स्कूल जाना जरूरी नहीं होता है. छात्र कोचिंग में ही स्कूल और प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी करता है।
कोटा माडल इसी तीसरे तरह के माड्यूल का और कठिन स्वरूप है. इसमें बच्चे को कोटा जाकर रेजीडेंशिलय कोचिंग संस्थान में रहना पड़ता है और वहीं स्कूल की भी सुविधा होती है. अब कोटा माडल में बच्चे पर अधिकतम दबाव होता है. चूंकि बच्चे के माता पिता का एकमात्र उद्देश्य बच्चे को जेईई या नीट में सफल कराना होता है तो वह उस पर दबाव भी बहुत डालते हैं. चूंकि अभिभावक इसके लिए मोटी रकम खर्च करते हैं ऐसे में बच्चे पर भी इसका भावनात्मक दबाव रहता है. बच्चा यदि सफल नहीं हो पाता है तो वह खुद को मां बाप का दोषी मानने लगता है. 16 से 18 साल का एक मासूम बच्चा इन दबावों से इतना टूट जाता है कि अपनी जान देने पर आ जाता है.
स्कूल की पढाई और प्रवेश परीक्षाओं में तालमेल न होने से समस्या
दरअसल इस पूरी समस्या की जड़ स्कूल की पढाई और प्रवेश परीक्षाओं में तालमेल न होना है. प्रवेश परीक्षा एजेंसियों को इस तरह पेपर बनाने चाहिए जिससे स्कूल जाने वाले छात्र सफल हो सकें. इन एजेंसियों को कोचिंग के पैटर्न को डिमोरलाइज करना चाहिए, लेकिन हो इसका उल्टा रहा है. अभिभावकों में भी इंटरमीडिएट के तुरंत बाद ही अपने बच्चों को सेटल कर देने की मानसिकता को छोड़ना चाहिए. हर बच्चे का अपना स्वभाव और अपनी विशेषता होती है. उन्हें जबरन किसी क्षेत्र में जाने के लिए विवश नहीं करना चाहिए. जिस तरह से कोटा में आत्महत्याएं हो रही हैं उससे सरकार को कोटा में कोचिंग संस्थानों पर पूरी तरह से रोक लगा देनी चाहिए. फिलहाल तो यही एकमात्र समाधान नज़र आता है.