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मुगल शासक भी खेलते थे होली
होली को आम तौर पर हिंदुओं पर्व माना जाता है। दशहरा और दिवाली के बाद यह हिंदुस्तान का यह तीसरा बसे बड़ा पर्व है। शरद ऋतु के समापन और गृष्म ऋतु आरंभ में पड़ने वाले होली के इस पर्व को मदन उत्सव के रूप में भी मनाया जता है।
दुर्गेश पार्थसारथी
अमृतसर: होली को आम तौर पर हिंदुओं पर्व माना जाता है। दशहरा और दिवाली के बाद यह हिंदुस्तान का यह तीसरा बसे बड़ा पर्व है। शरद ऋतु के समापन और गृष्म ऋतु आरंभ में पड़ने वाले होली के इस पर्व को मदन उत्सव के रूप में भी मनाया जता है।
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लोक गीतों में काशी, अयोध्या और मथुरा में देवताओं के होली खेलने का जीक्र
होली के लोक गीतों में महादेव को जहां काशी में गौरा संग होली खेलते बताया जाता है वहीं, अवध यानी अयोध्या में रघुवीरा अर्थात भगवान श्री राम हो सीता के साथ तो मथुरा और बरसाने की होली तो पूछिए मत। क्योंकि भगवान श्री कृष्ण से जुड़ते ही यह होली रसिकों की होजाती है। तभी इसे रति काल के कवि हो या भक्ति काल के सभी ने इसे अपने-अपने नजरिए से देखा, महसूस और फिर इसे गीतों में ढाला, जिसे आज भी होली के मौके पर गाया और सुना जाता है।
मुगल शासक भी खेलते थे होली
रंगों का पर्व होली इतनी प्रिय है कि हिंदू राजाओं के अलावा मुगलों और अंग्रेजों ने भी मनाया। कहा जता है कि होली का त्योहार मुगल शासक अबकर को भी प्रिय था। इतिहासकारों का तर्क है कि अकबर पर उसकी हिंदू रानी जोधा या हरका बाई का अत्याधिक प्रभाव था। यही नहीं अकबर के दरबार में पलने वाले अब्दुल रहीम खानखाना पर भी भगवान श्रीकृष्ण के भक्त बताए जाते हैं। मुस्लिम कवि सरखान कृष्ण भक्ति से अच्छू नहीं रहे। उन्हें भी होली बेसब्री से इंतजार रहता था।
मुगल काल में होली को कहा जाता था 'ईद-ए-गुलाबी'
इतिहासकारों के मुताबिक शाहजहां के समय में भी होली मनाने की परंपरा थी। इसे 'ईद-ए-गुलाबी' कहा जाता था। हलाकि उस दौर में कई काजियों और मौलवियों ने मुस्लमानों के होली मनाने पर एतराज जताया था। इतिहासकारों के मुताबिक मुगल काल में होली को ईद की तरह मनाया जता था। अकबर का जोधाबाई के साथ और जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने के प्रमाण मिलते हैं। इस प्रमाण को मुगल काल में बनी पेंटिंग से भी बल मिलता है। पेंटिंगों में मुगल बादशाहों को होली खेते दिखाया गया है।
शाहजहां के समय में बदल गया होली का अंदाज
शाहजहां के समय में होली खेलने का मुगलिया अंदाज बदल गया था। इतिहासकारों का कहना है शाहजहां के समय में होली को 'ईद-ए-गुलाबी' या 'आब-ए-पाशी' (रंगों की बौछार) कहा जाता था। यही नहीं इस परंपरा को अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने भी कायम रखा।
बहादुरशाह जफर ने भी कायम रखी परंपरा
होली के प्रेम के गाढ़े रंग को अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने भी कायम रखी। कहा जाता है कि होली के दिन उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे। यही नहीं जफर के बेटे रंगीला भी जमकर होली खेला करते करते थे। होली के समय रंगीला की बेगम उनके पीछे पिचकारी लेकर भागा करती थीं।
जहांगीर के आत्मकथा में मिलता होली का जिक्र
जहांगीर की आत्मकथा 'तुजुक-ए-जहांगिरी' में उल्लेख मिलता है होली के समय जहांगीर महफिल का आयेजन करते थे। जहांगीर के मुंशी जकाउल्लाह अपनी किताब 'तारीख-ए-'तारीख-ए-हिंदुस्तानी' में लिखते हैं कि होली हिंदू, मुस्लमान, अमीर, गरीब सब मिल कर मनाते हैं। अमरी खुसरो, रसखान, नजीर अकबराबादी, महजूर लखनवी और शाहनियाजी ने भी अपनी रचनाओं में 'गुलाबी त्योहार' यानी होली का उल्लेख किया है।
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मोहर्रम के मातम में भी अवध के नवाब ने खेला था होली
अवध के नवाब वाजीद अली शाह के बिना होली की चर्चा बेमानी है। कहा जाता है कि एक बार होली और मोहर्रम एक साथ पड़ा था। हिंदुओं ने मुस्लमानों की भावनाओं का कद्र करते हुए होली नहीं मनाई। इस बात का पता चलते ही नवाब वाजिद अली शाह ने कहा कि यह मुस्लमानों का भी फर्ज बनता है कि वे हिंदुओं की भावनाओं का कद्र करें होली खेलें। इस घोषणा के बाद खुद नवाब होली खेलने वालों में शामिल हुए। वाजिद अली शाह की होली पर लिखी एक ठुमरी ''मोरे कान्हा जो आए पलट, अबके होली मैं खेलूंगी डट के पीछे मैं चुपके से जा के , रंगदूंगी उन्हें भी लिपटके'' जो आज भी बड़े अदब के साथ गायी जाती है।
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