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मेरे दल के साथी नहीं चाहते थे कि मैं एवरेस्ट फतह करूं : बछेंद्री पाल

बछेंद्री पाल ने आज से 35 साल पहले 23 मई 1984 में सगरमाथा पर कदम रखकर नया इतिहास रचा था। आज अपना 65वां जन्मदिन मना रही इस पर्वतारोही ने हालांकि पहली बार खुलासा किया 'अहं भाव' के कारण उनके साथी नहीं चाहते थे कि वह साउथ पोल सम्मिट नामक स्थान से एवरेस्ट की तरफ बढ़े।

Roshni Khan
Published on: 24 May 2019 1:35 PM IST
मेरे दल के साथी नहीं चाहते थे कि मैं एवरेस्ट फतह करूं : बछेंद्री पाल
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जमशेदपुर: अगर बछेंद्री पाल के साथ एवरेस्ट की तरफ बढ़ रहे उनके दल के साथियों का वश चलता तो शायद वह दुनिया के सबसे ऊंचे शिखर को फ़तह करने वाली पहली भारतीय महिला नहीं बन पाती।

बछेंद्री पाल ने आज से 35 साल पहले 23 मई 1984 में सगरमाथा पर कदम रखकर नया इतिहास रचा था। आज अपना 65वां जन्मदिन मना रही इस पर्वतारोही ने हालांकि पहली बार खुलासा किया 'अहं भाव' के कारण उनके साथी नहीं चाहते थे कि वह साउथ पोल सम्मिट नामक स्थान से एवरेस्ट की तरफ बढ़े।

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बछेंद्री ने भाषा से विशेष साक्षात्कार में कहा, "मैं आज तक यह बात कहने से बचती रही, लेकिन कब तक इसे मन में दबाये रखूं। मैंने जिन लोंगों के साथ एवरेस्ट तक जाना था उन्होंने साउथ पोल के करीब पहुंचने के बाद कह दिया था कि बछेंद्री को हम यहां से आगे साथ लेकर नहीं जाएंगे। " देश के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पदमभूषण से सम्मानित और टाटा स्टील की मदद से देश मे पर्वतारोहण को नई दिशा देने वाली बछेंद्री ने इसका कारण उनके पुरूष साथियों का अहं भाव बताया।

उन्होंने कहा, "उनके अहं को ठेस पहुंची थी क्योंकि मैं तब बाकी पर्वतारोहियों की मदद के लिये साउथ पोल से नीचे आ गई थी। इस बीच टीम लीडर से मेरी शिकायत कर दी गयी थी। टीम लीडर चाहते थे कि एवरेस्ट फतह करूं पर बाकी साथी ऐसा नहीं चाहते थे। " बछेंद्री ने कहा, " उन्होंने मुझे अपना फैसला भी सुना दिया था। वे अभी कुछ योजना बना ही रहे थे कि मैं एक शेरपा के साथ एवरेस्ट की तरफ निकल पड़ी। मेरे पास रस्सी भी नहीं थी। आखिर में काफी आगे जाने के बाद उस शेरपा ने ही मुझे रस्सी दी। जब मैं शिखर पर पहुंची तो उस शेरपा ने मुझे गले लगा दिया और कहा 'तुम दुनिया की सर्वश्रेष्ठ पर्वतारोही हो।' मेरे साथी तब काफी पीछे थे। " अर्जुन पुरस्कार विजेता बछेंद्री ने कहा कि उन्हें ईश्वर पर विश्वास था और जब वह शिखर पर पहुंची तो उन्होंने तिरंगा और टाटा स्टील के ध्वज के अलावा दुर्गा की तस्वीर भी स्थापित की।

बछेंद्री को इससे पहले भी कई चुनोतियो का सामना करना पड़ा था। उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के छोटे से गांव में 24 मई 1954 को जन्मी बछेंद्री को आज भी याद है कि जब एम ए बी एड करने के बाद उन्होंने शिक्षिका बनने के बजाय पर्वतारोही बनने की ठानी तो लोगों ने उनका मजाक बनाया था।

उन्होंने कहा, "खुद मेरे बड़े भाई मेरे छोटे भाई को बोलते थे कि तुम पर्वतारोही बनो। मैं सोचती थी मुझे क्यों नहीं बोलते। बस मैंने तभी इरादा किया था कि मैं पर्वतारोही बनूँगी। बाद में जब एवरेस्ट पर जाने के लिए मेरा चयन हुआ तो भाई छुट्टी लेकर आये और फिर उन्होंने पूरा साथ दिया। " बछेंद्री ने एक किस्सा सुनाया कि किस तरह से पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनके इलाके के लोगों को उनकी उपलब्धि से अवगत कराया।

उन्होंने कहा," मैं एवरेस्ट से लौटने के बाद तमाम कार्यक्रमों में व्यस्त हो गई थी। मैं तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी मिली। प्रधानमंत्री उसके तुरंत बाद उत्तरकाशी के दौरे पर चली गई और उन्होंने वहां मेरा जिक्र किया। बाद में जब मैं गांव गईं तो लोंगो को मेरी यह बड़ी उपलब्धि लग रही थी कि इंदिरा जी ने मेरा नाम लिया। इंदिरा जी ही लोगों को जवाब देकर चली गई थी। "

बछेंद्री ने टाटा स्टील एडवेंचर फाउंडेशन (TSAF) के साथ मिलकर कई पर्वतारोही देश को दिये जिनमें से दस एवरेस्ट पर चढ़ने में भी सफल रहे। इनमें सबसे अधिक उम्र में इस शिखर पर चढ़ने वाली भारतीय महिला पर्वतारोही प्रेमलता अग्रवाल और रेल दुर्घटना में अपना एक पांव गंवाने के बावजूद अदम्य साहस की प्रतिमूर्ति बनी अरुणिमा सिन्हा भी शामिल हैं।

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बछेंद्री इस महीने के आखिर में 35 साल की सेवा के बाद सेवानिवृत्त हो रही हैं।

उन्होंने कहा, "यह शानदार यात्रा रही। मैं जिंदगी भर टाटा स्टील की ऋणी रहूंगी। अब मैं देहरादून में बस जाऊंगी लेकिन साहसिक खेलों के क्षेत्र में अपना योगदान देती रहूंगी। "

(भाषा)



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Roshni Khan

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