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हजारों साल पुराने इस विश्व विद्यालय ने दिया था विश्व को ज्ञान, अब खंडहरों में है स्मृति शेष

भारत का इतिहास बहुत पुराना व गौरान्वित करने वाला है।  चाहे यहां के धर्म संस्कृति  हो या रहन सहन वो हमें दूसरों से अलग और दूसरों के लिए प्रेरणादायक बनाती है। ऐसे ही हमारा देश विश्व का गुरू नहीं कहलाया था।  यहां की गुरुकुल परंपरा सदियों से है जो विश्व को आकर्षित करती है।

suman
Published on: 9 April 2023 4:02 PM GMT
हजारों साल पुराने इस विश्व विद्यालय ने दिया था विश्व को ज्ञान, अब खंडहरों में है स्मृति शेष
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जयपुर: भारत का इतिहास बहुत पुराना व गौरान्वित करने वाला है। चाहे यहां के धर्म संस्कृति हो या रहन सहन वो हमें दूसरों से अलग और दूसरों के लिए प्रेरणादायक बनाती है। ऐसे ही हमारा देश विश्व का गुरू नहीं कहलाया था। यहां की गुरुकुल परंपरा सदियों से है जो विश्व को आकर्षित करती है। देश प्राचीनता और अद्भुत ज्ञान के लिए विश्व में अपनी साख रखता है। एक वक्त था जब विदेशों से लोग पढ़ने आते थे और ज्ञान अर्जित करके जाते थे। इस देश ने जितना ज्ञान दुनिया को दिया है उतना शायद ही किसी और देश से मिला है। इतिहास में पढ़ा था नालंदा विश्वविद्यालय का समृद्धशाली इतिहास, आज अचानक जानने की इच्छा हुई की कैसा था वो अद्भुत ज्ञान का केंद्र, जहां आते थे विश्व के कोने- कोने से लोग।

इसी ज्ञान की नगरी के सबसे पुराने विश्वविद्यालय की बात कर रहे है जहां पहले विश्व के कोने कोने से लोग पढ़ाई करने आते थे। यह विश्वविद्यालय लभगभ 3000 साल पुराना था औऱ जहां कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत और तुर्की से स्टूडेंट्स और टीचर्स पढ़ने-पढ़ाने आते थे। इसका नाम नालंदा विश्वविद्यालय था जो उस समय देश का सबसे बड़ा विद्या का केंद्र था।

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विदेशों से आते थे छात्र

6ठी शताब्दी में नालंदा विश्वविद्यालय तब राजगीर का एक उपनगर हुआ करती थी। यह राजगीर से पटना को जोड़ने वाली रोड पर स्थित है। यहां पढ़ने वाले ज्यादातर छात्र विदेशी थे। उस वक्त यहां 10 हजार छात्र पढ़ते थे, जिन्हें 2 हजार शिक्षक मार्गदर्शन करते थे। महायान बौद्ध धर्म के इस विश्वविद्यालय में हीनयान बौद्ध धर्म के साथ ही दूसरे धर्मों की भी शिक्षा दी जाती थी। मशहूर चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी यहां से शिक्षा ली थी। यह वर्ल्ड की ऐसी पहली यूनिवर्सिटी थी, जहां रहने के लिए हॉस्टल भी थे।

नालंदा यूनिवर्सिटी की स्थापना गुप्त वंश के शासक कुमारगुप्त प्रथम ने 450-470 ई. के बीच की थी। यूनिवर्सिटी स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना थी। इसका पूरा कैम्पस एक बड़ी दीवार से घिरा हुआ था जिसमें आने-जाने के लिए एक मुख्य दरवाजा था। नॉर्थ से साउथ की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में भगवान बुद्ध की मूर्तियां थीं। विश्वविद्यालय की सेंट्रल बिल्डिंग में 7 बड़े और 300 छोटे कमरे थे, जिनमें लेक्चर हुआ करते थे। मठ एक से अधिक मंजिल के थे। हर मठ के आंगन में एक कुआं बना था। 8 बड़ी बिल्डिंग्स, 10 मंदिर, कई प्रेयर और स्टडी रूम के अलावा इस कैम्पस में सुंदर बगीचे और झीलें भी थीं। नालंदा को हिंदुस्तानी राजाओं के साथ ही विदेशों से भी आर्थिक मदद मिलती थी। विश्वविद्यालय का पूरा प्रबंध कुलपति या प्रमुख आचार्य करते थे जिन्हें बौद्ध भिक्षु चुनते थे।

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फ्री थी शिक्षा

नालंदा विश्वविद्यालय में शिक्षा, आवास, भोजन आदि का कोई शुल्क छात्रों से नहीं लिया जाता था। सभी सुविधाएं नि:शुल्क थीं। राजाओं और धनी सेठों द्वारा दिए गए दान से इस विश्वविद्यालय का व्यय चलता था। इस विश्वविद्यालय को 200 ग्रामों की आय प्राप्त होती थी। विद्यार्थियों का प्रवेश नालंदा विश्वविद्यालय में काफी कठिनाई से होता था, क्योंकि केवल उच्च कोटि के विद्यार्थियों को ही प्रविष्ट किया जाता था। इसके लिए बाकायदा परीक्षा ली जाती थी।

4थी से 11वीं सदी तक इस विश्वविद्यालय की अंतररराष्ट्रीय ख्याति थी, लेकिन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी नामक एक लुटेरे ने 1199 ईस्वी में इसे जलाकर नष्ट कर दिया। इस कांड में हजारों दुर्लभ पुस्तकें जलकर राख हो गईं। महत्वपूर्ण दस्तावेज नष्ट हो गए। कहते है कि वहां इतनी पुस्तकें थीं कि आग लगने के बाद भी 3 माह तक किताबें जलती रहीं। कई अध्यापकों और बौद्ध भिक्षुओं ने अपने कपड़ों में छुपाकर पांडुलिपियों को बचाया और उन्हें तिब्बत की ओर ले गए। भले ही पहले वाली बात नही रही, लेकिन आज भी इस विश्व विद्यालय का नाम जीवित रखा गया है । पढाई होती है, लेकिन 3000 साल पहले वाली बात नहीं रही। अब तो बस ऐतिहासिक स्थलों व शिलाओं के रुप में समृति शेष रह गई है।

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