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दिल्ली दंगों का तरीका और इस्तेमाल हथियार पर नक्सलवाद की छाया
दिल्ली दंगों में भी जिनकी हत्या की गई उनको बर्बर तरीके से मारा गया। मारे गए लोगों के शरीर पर अत्याधिक संख्या में वार किए गए। ऐसा इसलिए क्योंकि नक्सल नेताओं का मानना था कि हत्या जितनी बर्बर और नृशंस होगी आंदोलन का खौफ और असर उतना ही ज्यादा होगा।
लखनऊ: दिल्ली के उत्तर पूर्वी इलाके में अब हिंसा थम चुकी है और तनावपूर्ण शांति है लेकिन महज तीन दिनों में ही दंगाइयों ने दिल्ली को वह घाव दिए है जो अरसे तक रिसते रहेंगे। इन तीन दिनों में दंगाइयों ने दिल्ली में जिस तरीके से हिंसा को अंजाम दिया और उसमे जिन वस्तुओं को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया वह 1969-70 में पश्चिम बंगाल में हुए नक्सली हमले की याद ताजा कर गए।
पश्चिम बंगाल के नक्सबाड़ी गांव से शुरू होने के कारण इस आंदोलन को नक्सलवाद कहते है। भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल द्वारा वर्ष 1969 में शुरू किए गए इस उग्र आंदोलन में भी गोली-बंदूक से ज्यादा, पत्थर, बांका, डण्डों, भालों आदि आसानी से उपलब्ध होने वाले हथियारों को इस्तेमाल किया गया था।
इसके अलावा दिल्ली दंगों में भी जिनकी हत्या की गई उनको बर्बर तरीके से मारा गया। मारे गए लोगों के शरीर पर अत्याधिक संख्या में वार किए गए। ऐसा इसलिए क्योंकि नक्सल नेताओं का मानना था कि हत्या जितनी बर्बर और नृशंस होगी आंदोलन का खौफ और असर उतना ही ज्यादा होगा।
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1969 में सत्ता के खिलाफ एक हिंसक आंदोलन शुरु किया
दिल्ली दंगे में भी दंगाइयों ने इसी तरीके को अमल में लाया। गोली-बंदूक से ज्यादा इसमे भी आसानी से मिलने वाली वस्तुओं को ही बतौत हथियार इस्तेमाल किया गया। एक विशेष आकार में टूटे पत्थरों के टुकड़े, इन टुकड़ों को दूर तक फेंकने के लिए गुलेल, शीशी-बोेतलों में पेट्रोल बम, पालिथीन बैग में केमिकल और लाल मिर्च पाउडर का इस्तेमाल किया गया। इसके साथ ही जो हत्याएं इस दंगे में की गई उनका भी तरीका बहुत ही वीभत्स था। आईबी कर्मचारी अंकित शर्मा के नाले से मिले शव का पोस्टमार्टम करने वाले चिकित्सकों ने बताया कि अंकित के शरीर पर ऐसा कोई भी अंग नहीं था जहां चाकू से वार नहीं किया गया, यहां तक की उसकी आंते तक बाहर निकाल ली गई।
भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारु माजूमदार और कानू सान्याल ने 1969 में सत्ता के खिलाफ एक हिंसक आंदोलन शुरु किया। माजूमदार चीन के कम्यूनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बड़े प्रशसंक थे। इसी कारण नक्सलवाद को माओवाद भी कहा जाता है। 1968 में कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ मार्क्ससिज्म एंड लेनििनज्म का गठन किया गया जिनके मुखिया दीपेन्द्र भट्टाचार्य थे। यह लोग मार्क्स और लेनिन के सिद्धांतों पर काम करने लगे, क्योंकि वे उन्हीं से ही प्रभावित थे। वर्ष 1969 में पहली बार चारु माजूमदार और कानू सान्याल ने भूमि अधिग्रहण को लेकर पूरे देश में सत्ता के खिलाफ एक व्यापक लड़ाई शुरू कर दी।
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नक्सल आन्दोलन ने देश में नया रूप धारण किया
भूमि अधिग्रहण को लेकर देश में सबसे पहले आवाज नक्सलबाड़ी से ही उठी थी। आंदोलनकारी नेताओं का मानना था कि ‘जमीन उसी को जो उस पर खेती करें’। सामाजिक जागृति के लिए शुरु हु्ए इस आंदोलन पर कुछ सालों के बाद राजनीति का वर्चस्व बढ़ने लगा और आंदोलन जल्द ही अपने मुद्दों और रास्तों से भटक गया। जब यह आंदोलन फैलता हुआ बिहार पहुंचा तब यह अपने मुद्दों से पूरी तरह भटक चुका था। अब यह लड़ाई जमीनों की लड़ाई न रहकर जातीय वर्ग की लड़ाई शुरू हो चुकी थी। यहां से उच्च वर्ग और मध्यम वर्ग के बीच का उग्र संघर्ष शुरू हो गया, जिससे नक्सल आन्दोलन ने देश में नया रूप धारण किया।
श्रीराम सेना जो माओवादियों की सबसे बड़ी सेना थी, उसने उच्च वर्ग के खिलाफ सबसे पहले हिंसक प्रदर्शन करना शुरू किया। वर्ष 1972 में आंदोलन के हिंसक होने के कारण चारु माजूमदार को गिरफ्तार कर लिया गया और 10 दिन के लिए कारावास के दौरान ही उनकी जेल में ही मौत हो गयी। नक्सलवादी आंदोलन के प्रणेता कानू सान्याल ने आंदोलन के राजनीति का शिकार होने के कारण और अपने मुद्दों से भटकने के कारण तंग आकर 23 मार्च, 2010 को आत्महत्या कर ली।