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अनुच्छेद 370 के बाद पूरा हुआ मोदी-शाह का ये दूसरा बड़ा वादा
भाजपा और संघ के नेता शुरू से ही एनआरसी के पक्ष में रहे हैं। भाजपा के इस रुख को विपक्ष की ओर से कभी धार्मिक नजरिये से तो कभी राष्ट्रवाद के नजरिये से देखा गया है।
रामकृष्ण वाजपेयी
लखनऊ : असम में बहुप्रतीक्षित राष्ट्रीय नागरिक पंजी. (एनआरसी) की अंतिम सूची शनिवार को ऑनलाइन जारी होने के साथ एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है। ये सवाल है इस सूची में शामिल न हो पाने वाले लोगों को देश से निकालने का।
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एनआरसी के पक्ष में भाजपा
भाजपा और संघ के नेता शुरू से ही एनआरसी के पक्ष में रहे हैं। भाजपा के इस रुख को विपक्ष की ओर से कभी धार्मिक नजरिये से तो कभी राष्ट्रवाद के नजरिये से देखा गया है। संघ और भाजपा के नेता खुले मंचों से लगातार इसके पक्ष में बोलते रहे हैं जबकि अन्य दल वोट बैंक के लालच में हाशिये पर सिमटते चले गए हैं।
मोटेतौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह (वर्तमान में केंद्रीय गृहमंत्री) कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने में कामयाबी मिलने के बाद अब राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर पूरे देश में लाने की तरफ बढ़ रहे हैं ऐसा विपक्ष का मानना है।
वास्तव में देखा जाए तो देश को आजादी मिलने के बाद से यह देश लगातार घुसपैठ की समस्या झेलता रहा है। वोट बैंक के लालच में पूरे देश में झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले घुसपैठियों की तादाद लगातार बढ़ती गई और वह जुगाड़ लगाकर वोटर भी बनते रहे। इसके अलावा देश के संसाधनों में उनकी भागीदारी भी बढ़ती गई जिससे जो वास्तव में इसके हकदार थे वह वंचित होते चले गए।
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आज देश के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या घुसपैठ करने वाले सहानुभूति के पात्र हैं। क्या कुछ वर्ष तक यहां रहने मात्र से इन्हें नागरिकों के सारे अधिकार मिल जाने चाहिए। क्या इन्हें भारतीय नागरिक मान लिया जाए। निश्चय ही नहीं।
और ऐसे में जबकि देश के एक सीमावर्ती राज्य में 19 लाख से अधिक लोगों को एनआरसी में जगह नहीं मिली हो यदि पूरे देश में इनकी गणना होने लगे तो यह आंकड़ा बीस पच्चीस करोड़ से ऊपर भी जा सकता है।
असम में एनआरसी की सूची में शामिल होने के लिए आवेदन करने वाले 3.30 करोड़ से अधिक आवेदकों में से 3.11 करोड़ से अधिक लोगों को एनआरसी की अंतिम सूची में जगह मिली है। और यह पूरा काम सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हुआ है।
एनआरसी के राज्य समन्वयक प्रतीक हजेला ने एक प्रेस वक्तव्य जारी कर कहा, “एनआरसी की अंतिम सूची में शामिल होने के लिए कुल 3,11,21,004 लोगों को योग्य पाया गया जबकि अपनी नागरिकता के संबंध में आवश्यक दस्तावेज प्रस्तुत न कर पाने वाले 19,06,657 लोगों को इस सूची से बाहर रखा गया है।”
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कहा गया है कि लोग एनआरसी की वेबसाइट www.nrcassam.nic.in पर नामों को देख सकते हैं।लेकिन सुबह 10 बजे अंतिम सूची प्रकाशन के साथ इसको लेकर विरोध के स्वर उठने शुरू हो गए हैं हालांकि यह पूरी प्रक्रिया असम के संगठनों के साथ पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हुए समझौते के अनुरूप हो रही है इसलिए कांग्रेस इस मामले में भी विरोध करने की स्थिति में नहीं है।
गौरतलब है कि एनडीए दो के कार्यकाल का आरंभ होने के साथ प्रधानमंत्री मोदी ने पहले तो जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाकर पूरे देश को चौंका दिया। जिसका उन्हें कश्मीर से लेकर पूरे देश में एकमत से समर्थन मिला।
सकारात्मक की बजाय नकारात्मक असर
अब तो हाल यह है कि विपक्षी नेताओं के सुर भी बदल गए हैं और वह इस मसले पर मोदी के पीछे लामबंद होते देख रहे हैं। इसकी वजह है जनभावनाएं। विपक्ष ने देख लिया कि उनके विरोध का जनता पर सकारात्मक असर होने के बजाय नकारात्मक असर हो रहा है। ऐसे में उनकी मजबूरी बन गया था कश्मीर पर एकजुटता दिखाना।
इसी के साथ अब मोदी के दूसरे वादे को पूरा करने का समय भी आ गया। यह वादा नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनावों के दौरान असम की जनता से किया था। उन्होंने कहा था कि असम राज्य में जो लोग अवैध तरीके से आ के रहने लगे हैं उन्हें निकला जायेगा और उसके लिए राज्य में रहने वाले स्थानीय लोगों को एनआरसी के तहत खुद को पंजीकृत करवाना होगा।
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शरणार्थी और घुसपैठ में अंतर
दरअसल 1947 में देश आज़ाद होने के बाद पूर्वी पकिस्तान से तमाम लोग असम आकर बस गए थे।इसकी वजह यह थी कि सीमावर्ती राज्य असम उनके सबसे ज़्यादा करीब था।
शरणार्थियों की बड़ी तादाद को देखते हुए सरकार ने 1951 की जनगणना के बाद पहला राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तैयार किया। लेकिन लोगों के इस राज्य में आकर बसने का सिलसिला थमा नहीं तत्कालीन सरकारों ने भी विकराल रूप लेती इस समस्या पर लचर रुख अपनाए रखा।
इसके बाद 1971 पाकिस्तान से हुई जंग के बाद जब बांग्लादेश अलग देश बना उस समय लगभग 10 लाख लोग बांग्लादेश से असम आ गए थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा भी था कि शरणार्थियों का बोझ नहीं झेला जायेगा और उन्हें वापस भेजा जायेगा। लेकिन आज भी असम में बांग्लादेशियों की बड़ी तादाद रह रही है।
किसी भी स्थान पर यदि विदेशी संस्कृति के लोगों की तादाद बढ़ने लगे तो वहां की स्थानीय संस्कृति के प्रति असुरक्षा की भावना पैदा होने लगती है। और इसी भावना ने आंदोलन का रूप लिया। जिसमें आल असम स्टूडेंट यूनियन और असम गण संग्राम परिषद का नाम प्रमुखता से सामने आया।
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इस आंदोलन को असमिया लोगों का मुख्य रूप से समर्थन था। इसके बाद 1978 में एक बार फिर सामने आया कि 35 प्रतिशत आबादी बांग्लादेशी थी ये सभी अवैध रूप से राज्य में रह रही थी। ये सभी वोटर बन गए थे।
इस चौंकाने वाले आंकड़े ने राज्य के लोगों के होश उड़ा दिये। आंदोलन ने उग्र रूप ले लिया। लगभग छह साल चले इस आंदोलन में लगभग एक हजार लोगों की जान गई। इसके बाद 15 अगस्त 1985 को राहुल गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में असम समझौता हुआ जिसमे कुछ शर्ते राखी गयी जिनमे से एक शर्त थी कि 25 मार्च 1971 के बाद असम में आने वाले लोगों को विदेशी माना जायेगा।
इसके अलावा 1951 से लेकर 1961 में जो लोग असम आये थे उन्हें नागरिक माना जायेगा और मत देने का अधिकार प्राप्त होगा। लेकिन इसके साथ उन्होंने एक और शर्त रखी कि 1961 से लेकर 1971 के बीच जो लोग आये उन्हें नागरिकता तो मिलेगी लेकिन मताधिकार नहीं दिया जायेगा।