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बाबर से सुप्रीम कोर्ट के फैसले तक, ऐसा रहा राम जन्मस्थान अयोध्या का सफर

अयोध्या विवाद एक राजनीतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक-धार्मिक विवाद है जो नब्बे के दशक में सबसे ज्यादा उभार पर था। इस विवाद की मुख्य बात  रामलला की जन्मभूमि व बाबरी मस्जिद है। विवाद इस बात को लेकर है कि

suman
Published on: 10 Nov 2019 6:45 AM IST
बाबर से सुप्रीम कोर्ट के फैसले तक, ऐसा रहा राम जन्मस्थान अयोध्या का सफर
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जयपुर : अयोध्या विवाद एक राजनीतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक-धार्मिक विवाद है जो नब्बे के दशक में सबसे ज्यादा उभार पर था। इस विवाद की मुख्य बात रामलला की जन्मभूमि व बाबरी मस्जिद है। विवाद इस बात को लेकर है कि क्या मंदिर को तोड़कर वहां मस्जिद बना या मंदिर को मस्जिद के रूप में बदल दिया गया ।

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बाबर व मीर बाक़ी

जब मुग़ल शासक बाबर 1526 में भारत आया। 1528 तक वह अवध वर्तमान अयोध्या तक पहुँच गया। बाबर के सेनापति मीर बाकी ने 1528-29 में एक मस्जिद का निर्माण कराया था। यह अभी भी रहस्य है कि क्या मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनवाई गई या मंदिर की ही मस्जिद।

सुप्रीम कोर्ट का अयोध्या मामले पर फैसला आने के बाद कई दशक से विवादित बाबरी मस्जिद व रामजन्म भूमि विवाद सुलझ गया है।लंबे समय से विवादों में रहे इस फैसले को देखते हुए देश भर में सुरक्षा के सख्त इंतजाम किए गए हैं। सबने देश में लोगों से शांति बनाए रखने के साथ न्यायालय के फैसले का सम्मान करने की अपील की है।लेकिन जिस मामले पर आज फैसला आया, जानते हैंआखिर उसकी शुरुआत कब और कैसे हुई।

बाबर दिल्ली का पहला मुगल बादशाह था। उसका का पूरा नाम जहिर उद-दिन मुहम्मद बाबर था। बाबर के ही राज में बाबरी मस्जिद का निर्माण हुआ था। बाबर का जन्म 1483 में हुआ था और महज 12 साल की उम्र में वह अपने पिता की जायदाद का वारिस बन गया था। 21 अप्रैल, 1526 को इब्राहिम लोदी को मारकर बाबर दिल्ली का शासक बना। अपने पिता की हत्या के बाद उसने रोजाना डायरी लिखना शुरू कर दिया था। यही वह डायरी है, जो 5 शताब्दी तक गुम रहने के बाद ‘बाबरनामा’ के रूप में सामने आई। इस डायरी का 18 साल के तथ्य नष्ट हो गया है, इसलिए इसमें बाबरी मस्जिद का जिक्र नहीं है।

‘मीर बाकी शिया समुदाय से था। उसने हिंदुओं की भावनाएं आहत करने के लिए मंदिरों के बीचोंबीच मस्जिद का निर्माण करवाया था। यह कहना गलत नहीं होगा कि उसी ने मंदिर-मस्जिद विवाद के बीज बोए थे। मीर बाबर का सेनापति था और बाबर के साथ ही भारत आया था। वह ताशकंद का रहने वाला था। बाबर ने उसे अवध का गवर्नर बनाया था। ‘बाबरनामा’ ग्रंथ में मीर बाकी को बाकी ताशकंदी के नाम से भी बुलाया गया है। मस्जिद के शिलालेखों के अनुसार मुगल बादशाह बाबर के आदेश पर मीर बाकी ने सन 1528—29 में इस मस्जिद का निर्माण करवाया था। माना जाता है कि मीर बाकी ने मस्जिद बनाने के लिए राम जन्म स्थान को चुना और राम मंदिर को तुड़वाया था।

लेकिन इसका कोई रिकार्ड नहीं है मस्जिद के लिए बाबर अथवा मीर बाक़ी ने यह ज़मीन कैसे ली और मस्जिद से पहले वहां क्या था? अंग्रेजों के समय मस्जिद के रख-रखाव के लिए वक़्फ़ के ज़रिए एक निश्चित रक़म मिलती थी। कई बार इस मस्जिद को लेकर स्थानीय हिंदुओं और मुसलमानों में कई बार लड़ाई हुई। इसके पीछे वजह है कि मस्जिद के आस-पास की जगह को राम जन्मस्थान माना जाना था।

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विवाद की ऐसे हुई शुरुआत

1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों की न्याय व्यवस्था लागू हुई। उसी समय हिंदुओं ने मस्जिद के बाहर चबूतरा बना लिया और पूजा शुरू कर दी, जिसको लेकर झगड़े होते रहते थे। बाबरी मस्जिद के मौलवी मोहम्मद असग़र ने 30 नवंबर 1858 को लिखित शिकायत की कि हिंदूओं ने मस्जिद के पास चबूतरा बना लिया है और दीवारों पर राम-राम लिख दिया है। शांति व्यवस्था क़ायम करने के लिए प्रशासन ने चबूतरे और मस्जिद के बीच दीवार बना दी लेकिन मुख्य दरवाज़ा एक ही रहा. इसके बाद भी मुसलमानों की तरफ़ से लगातार लिखित शिकायतें होती रहीं 1883 में निर्मोही अखाड़ा ने डिप्टी कमिश्नर फ़ैज़ाबाद को अर्ज़ी देकर मंदिर बनाने की अनुमति माँगी, मगर मुस्लिम समुदाय की आपत्ति पर अर्ज़ी नामंज़ूर हो गई. इसमें दावा किया गया कि वह इस ज़मीन के मालिक हैं और उनका मौक़े पर क़ब्ज़ा है. सरकारी वक़ील ने जवाब में कहा कि वादी को चबूतरे से हटाया नहीं गया है, इसलिए मुक़दमे का कोई कारण नहीं बनता। मोहम्मद असग़र ने अपनी आपत्ति में कहा कि प्रशासन बार-बार मंदिर बनाने से रोक चुका है जज पंडित हरिकिशन ने जांच किया।

अयोध्या में विवाद की नींव

अयोध्या में विवाद की नींव करीब 400 साल पहले पड़ी थी, लेकिन पहली बार अदालत की दहलीज पर यह मामला 1885 में पहुंचा था. इसके बाद से एक-एक कर हिंदू-मुस्लिम पक्षकार आते गए और कानूनी दांवपेच में यह मामला उलझता ही चला गया। आजादी के 70 दशक गुजरने के बाद अब फैसला आने जा रहा है, जिस पर देश की लोगों की नजर लगी हुई है।

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मंदिर बनाने का पहला मुक़दमा

अदालत की दहलीज पर पहली बार अयोध्या का मामला 1885 में पहुंचा। बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद में निर्मोही अखाड़ा के महंत महंत रघुबर दास ने 1885 में फैजाबाद की जिला अदालत में पहली बार याचिका दायर की थी. उन्होंने फैजाबाद कोर्ट से बाबरी मस्जिद के पास ही राम मंदिर निर्माण की इजाजत मांगी. हालांकि अदालत ने महंत की अपील ठुकरा दी। इसके बाद से मामला गहराता गया और सिलसिलेवार तारीखों का जिक्र मिलता है.इतना सब रिकॉर्ड करने के बाद जज पंडित हारि किशन ने यह भी लिखा कि चबूतरा और मस्जिद बिलकुल अग़ल-बग़ल हैं, दोनों के रास्ते एक हैं और मंदिर बनेगा तो शंख, घंटे वग़ैरह बजेंगे, जिससे दोनों समुदायों के बीच झगड़े होंगे लोग मारे जाएँगे इसीलिए प्रशासन ने मंदिर बनाने की अनुमति नहीं दी। जज ने यह कहते हुए निर्मोही अखाड़ा के महंत को चबूतरे पर मंदिर बनाने की अनुमति देने से इनकार कर दिया कि ऐसा करना भविष्य में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दंगों की बुनियाद डालना होगा। इस तरह मस्जिद के बाहरी परिसर में मंदिर बनाने का पहला मुक़दमा निर्मोही अखाड़ा साल भर में हार गया।

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23 दिसंबर को पुलिस ने मस्जिद में मूर्तियां रखने का मुकदमा दर्ज किया था, जिसके आधार पर 29 दिसंबर 1949 को मस्जिद कुर्क कर उस पर ताला लगा दिया गया था. कोर्ट ने तत्कालीन नगरपालिका अध्यक्ष प्रिय दत्त राम को इमारत का रिसीवर नियुक्त किया था और उन्हें ही मूर्तियों की पूजा आदि की जिम्मेदारी दे दी थी।

सांकेतिक कारसेवा

कुछ सालों बाद समाजवादियों ने कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई और आचार्य नरेंद्र देव समेत सभी विधायकों ने विधानसभा से त्यागपत्र दे दिया। मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने अयोध्या उपचुनाव में आचार्य नरेंद्र देव के ख़िलाफ़ एक बड़े हिंदू संत बाबा राघव दास को उम्मीदवार बनाया। अयोध्या में मंदिर निर्माण इस चुनाव में अहम मुद्दा बन गया और बाबा राघव दास को समर्थन मिलने लगा। मुख्यमंत्री पंत ने अपने भाषणों में बार-बार कहा कि आचार्य नरेंद्र देव राम को नहीं मानते। समाजवाद के पुरोधा आचार्य नरेंद्र देव चुनाव हार गए। वक़्फ़ इंस्पेक्टर मोहम्मद इब्राहिम 10 दिसंबर 1948 को अपनी रिपोर्ट में मस्जिद पर ख़तरे के बारे में प्रशासन को विस्तार से सतर्क करते हैं। उन्होंने लिखा कि हिंदू वैरागी वहाँ मस्जिद के सामने तमाम कब्रों-मज़ारों को साफ़ करके रामायण पाठ कर रहे हैं और वे जबरन मस्जिद पर क़ब्ज़ा कर रहे हैं। दिसंबर 1992 में फिर कारसेवा का ऐलान हुआ। कल्याण सरकार और विश्व हिंदू परिषद नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट में वादा किया कि सांकेतिक कारसेवा में मस्जिद को क्षति नहीं होगी।

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कल्याण सिंह ने पुलिस को बल प्रयोग न करने की हिदायत दी. कल्याण सिंह ने स्थानीय प्रशासन को केंद्रीय बलों की सहायता भी नहीं लेने दी. उसके बाद छह दिसंबर को जो हुआ वह इतिहास में दर्ज हो चुका है. आडवाणी, जोशी और सिंघल जैसे शीर्ष नेताओं, सुप्रीम कोर्ट के ऑब्ज़र्वर ज़िला जज तेजशंकर और पुलिस प्रशासन की मौजूदगी में लाखों कारसेवकों ने छह दिसंबर को मस्जिद की एक-एक ईंट उखाड़कर मलवे के ऊपर एक अस्थायी मंदिर बना दिया। वहाँ पहले की तरह रिसीवर की देखरेख में दूर से दर्शन-पूजन शुरू हो गया. मुसलमानों ने केंद्र सरकार पर मिलीभगत और निष्क्रियता का आरोप लगाया पर प्रधानमंत्री ने सफ़ाई दी कि संविधान के अनुसार शांति व्यवस्था राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी थी और उन्होंने क़ानून के दायरे में रहकर जो हो सकता है किया. उन्होंने मस्जिद के पुनर्निर्माण का भरोसा भी दिया। मस्जिद ध्वस्त होने के कुछ दिनों बाद हाईकोर्ट ने कल्याण सरकार की ज़मीन अधिग्रहण की कार्रवाई को ग़ैरक़ानूनी क़रार दे दिया। जनवरी 1993 में केंद्र सरकार ने मसले के स्थायी समाधान के लिए संसद से क़ानून बनाकर विवादित परिसर और आसपास की लगभग 67 एकड़ ज़मीन को अधिग्रहीत कर लिया।

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हाईकोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट

हाईकोर्ट में चल रहे मुक़दमे समाप्त करके सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी गई कि क्या बाबरी मस्जिद का निर्माण कोई पुराना हिंदू मंदिर तोड़कर किया गया था यानी विवाद को इसी भूमि तक सीमित कर दिया गया। इस क़ानून की मंशा थी कि कोर्ट जिसके पक्ष में फ़ैसला देगी उसे अपना धर्म स्थान बनाने के लिए मुख्य परिसर दिया जाएगा और थोड़ा हटकर दूसरे पक्ष को ज़मीन दी जाएगी. दोनों धर्म स्थलों के लिए अलग ट्रस्ट बनेंगे. यात्री सुविधाओं का भी निर्माण होगा. फ़ैज़ाबाद के कमिश्नर को केंद्र सरकार की ओर से रिसीवर नियुक्त किया गया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस सवाल का जवाब देने से इनकार कर दिया कि क्या वहाँ मस्जिद से पहले कोई हिंदू मंदिर था. जजमेंट में कहा गया कि अदालत इस तथ्य का पता लगाने में सक्षम नहीं है।सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट में चल रहे मुक़दमों को भी बहाल कर दिया, जिससे दोनों पक्ष न्यायिक प्रक्रिया से विवाद निबटा सकें।

हाईकोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग से बाबरी मस्जिद और राम चबूतरे के नीचे खुदाई करवाई जिसमें काफ़ी समय लगा। रिपोर्ट में कहा गया कि नीचे कुछ ऐसे निर्माण मिले हैं जो उत्तर भारत के मंदिरों जैसे हैं। इसके आधार पर हिंदू पक्ष ने नीचे पुराना राम मंदिर होने का दावा किया, जबकि अन्य इतिहासकारों ने इस निष्कर्ष को ग़लत बताया।

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लंबी सुनवाई, गवाही और दस्तावेज़ी सबूतों के बाद 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जजमेंट दिया। तमाम परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर तीनों जजों ने यह माना कि भगवान रामचंद्र जी का जन्म मस्जिद के बीच वाले गुंबद वाली ज़मीन पर हुआ होगा। लेकिन ज़मीन पर मालिकाना हक़ के बारे में किसी के पास पुख़्ता सबूत नहीं थे। दीर्घकालीन क़ब्ज़े के आधार पर भगवान राम, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के बीच तीन हिस्सों में बाँट दिया. इसे एक पंचायती फ़ैसला भी कहा गया, जिसे सभी पक्षकारों ने नकार दिया।

एक दशक बाद सुप्रीम कोर्ट को अंतिम निर्णय देना है। अदालती विवाद अब महज़ आधा बिस्वा या लगभग 1500 वर्ग-गज ज़मीन का है जिस पर विवादित बाबरी मस्जिद ज़मीन खड़ी थी। लेकिन धर्म, इतिहास, आस्था और राजनीति के घालमेल ने इसे इतना जटिल और संवेदनशील बना दिया है कि सुप्रीम कोर्ट का आने के बाद देखना होगा कि जनमानस इसे किस रुप में लेती है। क्या यह फैसला दोनों संप्रदाय के भविष्य के लिए सुखद परिणाम लेकर आएगा।

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