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आजाद भारत के असली सितारे- ए.के.रॉय

कम्युनिस्ट होना आसान नहीं है। एक सच्चा कम्युनिस्ट दुनिया का सबसे नेक और ईमानदार इन्सान हो सकता है। ए.के.रॉय ( जन्म-15.6.1935 ) इसके प्रमाण हैं।

Roshni Khan
Published on: 15 Jun 2020 12:39 PM IST
आजाद भारत के असली सितारे- ए.के.रॉय
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साम्यवादी संत ए.के.रॉय

कम्युनिस्ट होना आसान नहीं है। एक सच्चा कम्युनिस्ट दुनिया का सबसे नेक और ईमानदार इन्सान हो सकता है। ए.के.रॉय ( जन्म-15.6.1935 ) इसके प्रमाण हैं। आज की राजनीति काजर की कोठरी है। इस कोठरी में प्रवेश करने वाले का दामन, झूठ-फरेब या भ्रष्टाचार के दाग से बचा नहीं रह सकता। किन्तु ए.के.रॉय के दामन पर कोई दाग नहीं लग पाया। वे इस नामुमकिन को भी मुमकिन बनाने वाले राजनीतिज्ञ थे।

ए.के.रॉय के पास कोई जमीन- जायदाद नहीं थी। उनके पास कोई बैंक-बैलेंस भी नहीं था। किन्तु जब वे ललकारते थे तो धनबाद के माफिया नतमस्तक हो जाते थे। वे जो बोलते थे, वही करते थे। ''आमार रॉय, तोमार रॉय, सोबार रॉय- ए के रॉय'' का नारा कई दशकों तक कोयला की राजधानी कहे जाने वाले धनबाद इलाके की जनता का सबसे प्रिय नारा रहा। वहां की जनता ने अपने खर्चे से चुनाव लड़ाकर अपने 'रॉय दा' को धनबाद लोकसभा क्षेत्र से तीन बार सांसद चुना और सिंदरी से तीन बार विधायक। इतने दिन तक राजनीति में रहने के बावजूद ए.के.रॉय का दामन मृत्युपर्यंत तनिक भी मलिन नहीं हुआ। वे मजदूरों के हक की लड़ाई में इतने रम गए कि खुद शादी भी नहीं की किन्तु उनके चरित्र पर तनिक भी कभी आँच नहीं आई।

ए.के.रॉय का पूरा नाम अरुण कुमार राय था किन्तु ए.के.रॉय के रूप में ही उनकी पहचान थी और प्यार से लोग उन्हें 'रॉय दा' कहते थे। रॉय दा जिन मजदूरों के प्रतिनिधि थे, उन्हीं की तरह का उनका अपना जीवन भी था। वे टायर का चप्पल पहनते थे ताकि वह ज्यादा दिनों तक चले। जीवन में सादगी इतनी कि जैसे मजदूर। वे धनबाद से 15-16 किमी दूर एक गांव में, अपने एक पार्टी कॉमरेड के घर रहते थे।

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नब्बे के दशक में इस प्रस्ताव के विरोध में आए थे सांसद ए.के.राय

नब्बे के दशक में लोकसभा में जब सांसदों के लिए वेतन और पेंशन का प्रस्ताव आया तो सांसद ए.के.राय ने विरोध किया। उनका तर्क था कि लोग एक सांसद को सिर्फ पांच वर्ष के लिए और अपनी सेवा के लिए चुनते हैं, वे कोई नौकरी नहीं करते कि उन्हें वेतन या पेंशन दिया जाय। वे अपने को भी जन-प्रतिनिधि नहीं जन-सेवक ही कहते थे।

ए.के. राय के विरोध के बावजूद सदन में बहुमत के आधार पर सांसदों को वेतन और पेंशन देने का बिल पास हो गया। किन्तु ए.के. राय अपने सिद्धांत के और अपनी जबान के पक्के थे। उन्होंने न कभी वेतन लिया और न पेंशन। पेंशन की राशि राष्ट्रपति कोष में डालने की स्वीकृति दे दी। लोग उनके जीवन यापन के लिए आर्थिक सहयोग देते थे। एक खपड़ैल के घर में बिना बिजली के जिंदगी गुजार देने वाले राय दा आजीवन मजदूरों के हक की लड़ाई लड़ते रहे।

ए.के. राय की देखभाल करने वाले कार्यकर्ता सबूर गोराई बताते हैं कि ए.के. राय एक संत थे। वे सांसद थे तब भी सामान्य डिब्बों में सफर करते थे। आदिवासियों के गांवों में जाते थे तो उनका हाल देखकर रो पड़ते थे। कहते थे कि इन गरीबों पर मुकदमा हो जाए तो पुलिस तुरंत पकड़ती है। माफिया के लिए वारंट निकलते हैं, तो भी वे धन बल के कारण आराम से घूमते हैं।

धनबाद के माफियाओं ने उन्हें खरीदने अथवा रास्ते से हटाने की बहुत कोशिश की

धनबाद के माफियाओं ने उन्हें खरीदने अथवा रास्ते से हटाने की बहुत कोशिश की किन्तु कामरेड ए.के.रॉय टस से मस नहीं हुए। उनके सादगीपूर्ण सरल और जुझारू व्यक्तित्व का ऐसा प्रभाव था कि जब विरोधियों ने उनकी हत्या की सुपारी एक किलर को दी तो उन्हें देखकर किलर ने हत्या की सुपारी लौटाते हुए कह दिया कि दूसरों की खातिर लड़ने वाले ऐसे शख़्स को वह नहीं मार सकता।

कामरेड ए.के. राय का जन्म पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) के राजशाही जिला अंतर्गत सपुरा गांव में 15 जून 1935 को हुआ था। उनके पिता शिवेश चंद्र रॉय एक प्रतिष्ठित वकील थे और माता का नाम रेणुका रॉय था। वे तीन भाई थे और एक बहन। उनके माता-पिता दोनो स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे और उसके लिए वे जेल भी गए थे। ए.के.रॉय ने अपनी स्कूली शिक्षा रामकृष्ण मिशन स्कूल में पूरी की और सुरेन्द्रनाथ कॉलेज कोलकाता से उन्होंने बी-एस.सी. किया। 1959 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से कैमिकल इंजीनियरिंग से मास्टर डिग्री लेने के बाद उन्होंने दो साल तक कोलकाता के एक प्राइवेट फर्म में काम किया और उसके बाद डॉ. क्षितीश रंजन चक्रवर्ती के सहयोगी के रूप में पीडीआइएल (प्रोजेक्ट एंड डेवलपमेंट इंडिया लिमिटेड) सिंदरी से जुड़ गए। वे केमिकल इंजीनियर थे।

1966 में सरकार विरोधी ‘बिहार बंद’ आंदोलन में भाग लेने पर उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया और पीडीआइएल प्रबंधन ने उन्हेंं नौकरी से बरखास्त कर दिया। ए.के.राय ने न तो नौकरी के लिए प्रबंधन से कोई सिफारिश की और न कहीं अन्यत्र प्रयास। अपने ही कारखाने में मजदूरों के शोषण पर दुखी होकर उन्होंने ट्रेड यूनियन बनाया और उससे अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत की। ए.के.राय अपने स्कूाल के दिनों में ही अंग्रेजी विरोधी आंदोलन में शामिल होने के कारण ढाका सेंट्रल जेल में कई दिन कैद रहे थे । उनकी इसी राजनीतिक चेतना ने सिंदरी खाद कारखाना में मिली नौकरी को तिलांजलि देकर झारखंड और यहां के लोगों की लड़ाई में शामिल होने का रास्ता साफ किया।

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1967 और फिर 1969 में वे सीपीआई(एम) के टिकट पर सिंदरी से विधायक चुने गए

1967 और फिर 1969 में वे सीपीआई(एम) के टिकट पर सिंदरी से विधायक चुने गए। उस समय सीपीआई(एम) के कुछ नेता कार की सवारी करते थे। ए.के. राय ने अखबार में लेख लिख कर इस पर आपत्ति की। तर्क था कि जब बड़ी आबादी के पास न भोजन है न वस्त्र तो फिर वामपंथ को मानने वालों की यह जीवन शैली आदर्श नहीं हो सकती। ए.के.राय को इस तथाकथित गलती के लिए पार्टी से नोटिस भेजी गई। ए.के.राय ने माकपा को अलविदा कह दिया तथा एम.सी.सी. (मार्क्सिस्ट कोआर्डीनेशन कमेटी) का गठन किया। हालांकि, उनका मजदूर संगठन बिहार कोयिलरी कामगार यूनियन, सीटू से संबद्ध था। एम.सी.सी ऐसा दल था जिसमें सभी वाम दलों के अच्छे और ईमानदार नेताओं के लिए जगह थी। यह घटना 1971 की है। 1972 में वे एम.सी.सी से फिर विधायक चुने गए।

धनबाद की पहचान कोयला माफिया की नगरी के रूप में हैं। कोयलांचल में जब कोयला माफिया का बोलबाला था, उस दौर में ए.के.रॉय तीन बार क्रमश: 1977, 1980 तथा 1989 में धनबाद के सांसद चुने गए थे। कहा जाता है कि वे सार्वजनिक मंच से माओवादियों का समर्थन और उनके हक की वकालत करते थे। फिर भी धनबाद के मजदूर उन्हें ‘राजनीति के संत’ के रूप में देखते हैं क्योंकि उनका जीवन संत जैसा ही था।

15 नवंबर 2000 को बिहार से अलग होकर झारखंड राज्य बना। इस आन्दोलन के प्रमुख सूत्रधार ए.के.राय थे। जिस झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता के तौर पर शिबू सोरेन जाने जाते हैं, उसका गठन ए.के. रॉय के नेतृत्व में हुआ था और आन्दोलन की रूपरेखा उन्होंने ही तैयार की थी। फरवरी 1973 में धनबाद के जिस गोल्फ मैदान में झामुमो के गठन की ऐतिहासिक घोषणा हुई थी, उसकी बुनियाद ‘लाल-हरे की मैत्री’ थी। इसमें लाल रंग कॉमरेड राय लेकर आए थे। सोरेन उनके सहयोगी थे। लेकिन रॉय का उद्देश्य न तो झारखंड का मुख्यमंत्री बनना था और न केंद्र की सरकार में जगह बनाना। ए.के.रॉय ने स्वयं को झारखंड मुक्ति मोर्चा से अलग कर लिया और अलग झारखंड राज्य के गठन का श्रेय लेने से भी खुद को दूर रखा।

सन 70 के दशक में लोकप्रिय अंग्रेजी साप्ताहिक ‘संडे’ में जननेता ए.के.रॉय के बारे में एक लेख छपा था, जिसका शीर्षक था ‘नेक्सलाइट, मैड ऑर गॉड’ अर्थात ‘नक्सल, पागल या देवता!’ लेख का यह शीर्षक ए.के.रॉय के संबंध में तत्कालीन कोयलांचल में बनी उनकी छवि को प्रतिबिम्बित करता है। उनके समय के अधिकांश राजनेताओं के लिए ए.के.रॉय ‘पागल’ थे, क्योंकि सुविधाभोगी राजनीति से वह कोसों दूर थे। राज्य-सरकार उन्हें नक्सलियों का समर्थक समझती थी और क्षेत्र की जनता उन्हें अपना भगवान।

उत्कृष्ट बौद्धिकता और उसका जमीनी जुड़ाव यदा कदा दिखाई देता है। ए.के.राय इसका विरल उदाहरण हैं। आजीवन आगे रहते हुए उन्होंने जमीनी स्तर पर जनांदोलनों का नेतृत्व भी किया और सिद्धांतों का भी प्रतिपादन किया। कोयलांचल के आम मजदूरों के मानस में ए.के.रॉय के करिश्मादई व्यक्तित्व का निर्माण जमीनी संघर्ष में उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की वजह से संभव हुआ है।

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आदिवासी जनता के प्रति उनकी प्रतिद्धता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है सभी वाम दलों के विरोध के बावजूद उन्होंने झारखंड के अलग राज्य की मांग का समर्थन किया था। वे झारखंड को समाजवादी आंदोलन के लिए उर्वर भूमि मानते थे। उनका कहना था कि आदिवासी से अधिक सर्वहारा आज की तारीख में है कौन? जमीनी स्तर पर उनकी समझ और विचारधारा का अनुमान उनके निम्नलिखित वक्तव्य से समझा जा सकता है जिसे प्रख्यात कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह से एक बात चीत में उन्होंने व्यक्त किया था। अब्दुल बिस्मिल्लाह के शब्दों में, ''अक्सर वे कहा करते थे कि झारखंड की असली ऊर्जा है झारखंडी भावना। इसीलिए तमाम झारखंडी नेताओं को खरीद कर भी झारखंड आंदोलन समाप्त नहीं किया जा सका और अंत में अलग झारखंड राज्य का गठन करना पड़ा। अलग राज्य के रूप में झारखंड के गठन के पूर्व भी इस क्षेत्र का विकास हुआ था। बहुत सारे उद्योग धंधे लगे थे। सार्वजनिक क्षेत्र में लगी कुल पूंजी का बड़ा भाग इसी राज्य में लगा। सिंदरी एफसीआई, बोकारो स्टील प्लांट, एचईसी, बीसीसीएल, सीसीएल, डीवीसी आदि पीएसयू इसके उदाहरण हैं। लेकिन तमाम विकास बाहर से आये। विकसित लोगों का चारागाह बनता रहा। झारखंडियों का विकास नहीं हुआ, बल्कि उन्हें विस्थापन, उपेक्षा और शोषण का शिकार होना पड़ा।''

कॉमरेड ए.के.रॉय के अनुसार झारखंडी जनता इस थोपे हुए विकास से नफरत करती है। जिस विकास में उनसे पूछा नहीं जाता, जिसमें उनकी कोई भागीदारी नहीं, उस विकास का वे विरोध करते हैं। किसी भी क्षेत्र का विकास उस क्षेत्र विशेष के जन समुदाय के सक्रिय सहयोग और उत्साह के बिना एक सीमा से ऊपर नहीं जा सकता।

ए.के.रॉय कहते हैं कि ''झारखंडी आंदोलन बुनियादी रूप से एक सामाजिक आंदोलन है जो एक स्तर के बाद अलग राज्य के आंदोलन में बदल गया और उन्हें अलग राज्य मिल भी गया। अब इस अलग राज्य को उनके अपने राज्य में बदलना है तो उनके सामाजिक आंदोलन के सूत्र को पकड़ कर उसे समाजवादी आंदोलन में बदलना पड़ेगा। झारखंडी नेतृत्व के अंदर समाजवादी एवं वामपंथी विचारधारा उनके अस्तित्व रक्षा के लिए नितांत जरूरी है। लेकिन एक साजिश के तहत इसे पीछे ढकेला जा रहा है और उसकी जगह संप्रदायवादी, जातिवादी और उपभोक्तावादी रुझान पैदा किया जा रहा है।''

ए.के.रॉय झारखंड में बाहर से आकर बसे श्रमिकों और झारखंड की मूल जनता के बीच एक पुल की तरह थे। यही उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी। यदि वहाँ मजदूर आंदोलन और झारखंड के रूप में अलग राज्य की मांग के आंदोलन के बीच कभी टकराव की स्थिति नहीं पैदा हुई तो इसका श्रेय उन्हें भी जाता है। 70 के दशक में लाल और हरे झंडे की मैत्री ने झारखंड आंदोलन को दिशा देने में अहम भूमिका निभाई थी।

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इमरजेंसी के दौरान ए.के.रॉय जेल में बंद थे

इमरजेंसी के दौरान ए.के.रॉय जेल में बंद थे। उन्हीं के साथ शिबू सोरेन और बिनोद बिहारी महतो भी जेल में बंद थे। शिबू सोरेन और बिनोद बिहारी महतो तो जल्दी ही जेल से छूट गए किन्तु कामरेड ए.के.रॉय पूरी इमरजेंसी जेल में रहे और इमरजेंसी के बाद 1977 में हुए संसदीय चुनाव जेल में रहते हुए ही लड़े और धनबाद से जीत कर पहली बार सांसद बने थे।

ईश मिश्र ने लिखा है, ''1980 में जेएनयू में एसएफआइ (सीपीएम के छात्र संगठन) से निकलकर हम लोगों ने आर (रिबेल) एसएफआइ बनाया था। हम (मैं और कॉमरेड दिलीप उपाध्याय [दिवंगत]) आरएसएफआइ की पहली पब्लिक मीटिंग के लिए, 1970 के दशक में सीपीएम से निकलकर मार्क्सवादी कोआर्डिनेशन कमेटी के संस्थापक ए.के. रॉय को आमंत्रित करने उनके सांसद निवास पर गए। वे खाना बना रहे थे। चटाई पर बैठकर भोजन करते हुए घंटों हम लोगों से उन्होंंने बात की, लेकिन जेएनयू आने से मना कर दिया।''

ए.के. रॉय के साथी और बांकुड़ा के पूर्व सांसद वासुदेव आचार्य के अनुसार ए.के.रॉय अपनी पूरी जिंदगी वामपंथ और इसकी विचारधारा को आगे ले जाने में जुटे रहे। संसद में और इसके बाहर भी ए.के.रॉय वामपंथ तथा मजदूरों के हित के लिए लड़ते रहे।

ए.के.राय एक प्रतिष्ठित लेखक भी हैं, किन्तु वे ऐसे लेखक हैं जिनकी पुस्तकों के एक- एक शब्द आन्दोलन की भट्ठी में तपकर ढले हुए हैं। ‘आजादी की लड़ाई अब मजदूर वर्ग को ही लड़नी है’, ‘नई जनक्रान्ति’, ‘मनमोहन सिंह के भारत में भगत सिंह की खोज’, ‘धर्म और राजनीति’, ‘साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता, अलगाववाद की समस्या पर एक मार्क्सवादी विवेचन’ ‘योजना और क्रांति’, ‘झारखंड और लालखंड’, ‘बिरसा से लेनिन’ और ‘नई दलित क्रांति’ आदि उनके प्रमुख प्रकाशन हैं। इसके अलावा पत्र पत्रिकाओं में उनके अनेक सामयिक आलेख प्रकाशित होते रहे, खासतौर पर अंग्रेजी में। वे जमीनी स्तर की लड़ाई से प्रेरित होकर ही सिद्धांतों की बात करते हैं, बंद कमरे में लिखी सैद्धांतिक पुस्तकों से जमीनी लड़ाई की बात नहीं करते। इसी अर्थ में वे दूसरों से भिन्न हैं। जिस दौर में नक्सल आन्दोलन चरम पर था उस दौर में भी मार्क्सवाद को अपनाते हुए ए.के.रॉय ने हिंसा केन्द्रित मार्क्सवाद को खारिज किया और उसके भारतीयकरण की बात की। इस मामले में उनके विचार नक्सलियों से तो अलग थे ही अपितु भारत की संसदीय व्यवस्था में शामिल मार्क्सवादियों से भी अलग थे। यही कारण है की 80 के दशक में लिखी गई अपनी पुस्तक ‘बिरसा से लेनिन’ में जहां वे लेनिन से शोषित राष्ट्रीयताओं के सिद्धांत को अपनाते हैं, वहीं आंदोलन के प्रतीक के रूप में झारखंड के भूमि पुत्र आदिवासी नायक भगवान बिरसा को भी अपनाते हैं।

ए.के.रॉय के लिए मार्क्सवाद, शोषितों और वंचितों की लड़ाई में सहायता देने वाला एक हथियार है, जिसको भारतीय परिस्थिति के अनुसार ढालकर उपयोग में लाना होगा। 'लालखंड से झारखंड' नामक अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में ए.के.रॉय लेटिन अमरीकी वामपंथी दार्शनिक पॉल बारां और पौल स्विजी के सिद्धांतों को झारखंड के संदर्भ में समझाते हुए आंतरिक उपनिवेशवाद के सिद्धांत को पेश करते हैं। उनकी हर पुस्तक अपने समय का एक दस्तावेज है।

उम्र के साथ ए.के.रॉय को कई गंभीर बीमारियों ने घेर लिया था। पक्षाघात हुआ तो कोलकाता में रहने वाले भाई तापस राय आए। वे उन्हें कोलकाता ले जाना चाहते थे। रॉय दा ने अपने कैडरों को नहीं छोड़ा। मधुमेह के कारण उनकी सेहत गिरती गई किन्तु समाजसेवा का जुनून अंत तक उनकी आंखों में देखा जा सकता था। उनके कमरे में एक तख्त, कुछ किताबें, अखबार और एक कोने में रखे हुए लाल झंडे अंत तक उनके साथी रहे। वे जबसे सार्वजनिक जीवन में आए, तब से जमीन पर चटाई बिछा कर सोते रहे। खाने को कुछ भी मिल जाय, कोई आपत्ति नहीं। डॉक्टरों की लाख कोशिशों के बावजूद उनकी हालत में सुधार नहीं हो रहा था। और 21 जुलाई 2019 को उन्होंने अन्तिम साँस ली।

उनके निधन पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के प्रोफेसर डॉ. संदीप चटर्जी की प्रतिक्रिया महत्वपूर्ण है, वे लिखते हैं, “अपने शोध के दौरान राय बाबू से कई बार लंबी बात करने का मौका मिला, इस शहर धनबाद में जहां मेरा बचपन गुजरा और जहां से मैंने अपने स्कूली जीवन की शुरुआत की उस शहर को, वहां के लोगों को और उस इलाके के इतिहास और राजनीति को नये तरीके से देखने का एक नया आयाम राय बाबू के साथ हुई इन लंबी बातों से मिला।

राय बाबू की स्पष्ट राजनीतिक समझ, बोलने का प्रवाह, भाषा पर पकड़ और जटिल सिद्धांतों को सरल शब्दों में बताने की शैली ने मुझको अपने पूर्वाग्रहों से बाहर निकल कर कई नये प्रश्नों के उत्तर ढूंढने को प्रेरित किया। आज से 3-4 साल पहले जब उनसे मिला था तो उनकी तबीयत ठीक नहीं थी लेकिन फिर भी अपने शोध की एक प्रति उनको भेंट देकर थोड़ा ही सही लेकिन मैं भार मुक्त हुआ था। बहुत अच्छा होता अगर वे मेरे लिखे को पढ़कर उसकी त्रुटियों को बताते। लेकिन ऐसा हो नहीं सका।

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आज से कुछ दिन पूर्व जब धनबाद के सेंट्रल हॉस्पिटल में उनको देखने गया तो मन उदास सा हुआ, ये वह राय बाबू नहीं थे जिनके साथ मैंने घंटों बातें की थी, जिन्होंसने मुझे एडगर स्नो का लिखा 'रेड स्टार ओवर चाइना' पढ़ने को प्रेरित किया था। जो मजदूर आंदोलन की बात करते हुए, झारखंडी अस्मिता की बात करते हुए, मार्क्सवाद समझाते हुए मुझसे उपनिषदों की बात भी करने लग जाते थे। जिनको लेनिन के साथ-साथ भगवदगीता के श्लोक भी कंठस्थ थे। जो मेरे जैसे युवा शोधकर्ता से ज्यादा जोशीले अंदाज वाले थे और मेरे लिए चलते फिरते एनसाइक्लोपीडिया थे। आज जब वे चले गये हें तब मैं उन पुराने राय बाबू को याद करना चाहता हूं, जो मेरे शोध प्रबंध के केंद्र में है।“ आज जन्मदिन के अवसर पर ऐसे साम्यवादी संत का हम स्मरण करते हैं और श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।

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