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अफ्रीका से लौटे गांधी ने ताकतवर अंग्रेजों को भारतीयता के अस्त्र से हराया
गांधीजी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के साथ प्रयोग’ में इस घटना को विस्तार से लिखा है। किस तरह उन्होंने रात भर मैरिटजबर्ग स्टेशन पर ठिठुरते हुए हिम्मत बटोरी भारत लौटने की कायरता के बजाय। अफ्रीका में रहकर रंगभेद के ख़िलाफ़ लड़ने का मन बनाया।
योगेश मिश्र
तकऱीबन एक सौ पाँच साल पहले इन्हीं दिनों मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्ऱीका से भारत की ज़मीन पर स्वदेश वापस लौटे थे। साल 1915 था। तारीख थी- नौ जनवरी। पर ऐसा नहीं कि गांधी जी की स्वदेश वापसी बिना मक़सद के रही हो। ऐसा भी नहीं कि स्वदेश वापसी के समय तक गांधी जी किसी परिचय के मोहताज रहे हों।ऐसा भी नहीं कि गोरी हुकूमत से लडऩे का हौसला व हुनर उनको यहाँ सीखना पड़ा हो। ऐसा भी नहीं कि वह गोरी हुकूमत को हराने का जो संकल्प यहाँ के लोगों के ज़ेहन के भीतर भर रहे थे, उसका वह सफल प्रयोग न कर चुके हों। बल्कि सच्चाई है कि बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्ऱीका में गोरी सरकार को पराजित कर चुके थे। वहाँ सत्याग्रह का उनका हथियार सफलता की इबारत लिख चुका था।
अंग्रेजों के खिलाफ गांधी जी का पहला अस्त्र सविनय अवज्ञा
वहीं 7 जून,1893 को गांधी जी ने सविनय अवज्ञा पहली बार इस्तेमाल किया। 1893 में एक साल के अनुबंध पर गांधी जी वकालत करने दक्षिण अफ्रीका गये। वहाँ वह नटाल प्रांत में रहते थे। डरबन से प्रिटोरिया क्लाइंट अब्दुल्ला शेठ का केस लडऩे जा रहे थे। उनके पास वैद्य टिकट था। जिस पर वह फस्र्टं क्लास में यात्रा कर रहे थे। पर वह गोरे नहीं थे।
इसलिए नौ बजे रात को नटाल की राजधानी रित्जबर्ग पहुँचे तो रेलवे अधिकारी ने कहा कि आप थर्ड क्लास में जायें क्योंकि फस्ट क्लास में केवल गोरे ही यात्रा कर सकते हैं। गांधी जी ने कहा कि मैं अपने मन से थर्ड क्लास में नहीं जाऊँगा। आप चाहें तो धक्का देकर उतार दें।गांधी जी को जबरन उतार दिया गया। रात भर गांधी जी वहीं स्टेशन पर रहे।
अफ्रीका में रहकर रंगभेद के ख़िलाफ़ लड़ाई
गांधीजी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के साथ प्रयोग’ में इस घटना को विस्तार से लिखा है। किस तरह उन्होंने रात भर मैरिटजबर्ग स्टेशन पर ठिठुरते हुए हिम्मत बटोरी भारत लौटने की कायरता के बजाय। अफ्रीका में रहकर रंगभेद के ख़िलाफ़ लड़ने का मन बनाया ।
नटाल के हादसे के बाद और भी जद्दोजहद करनी पड़ी ।क्योंकि उन्हें प्रीटोरिया पहुँचना था । किसी तरह कुछ सहयोगियों की मदद से अब वह ट्रांसवाल में थे। 37 मील दूर प्रिटोरिया पहुँचने के लिए फिर एक ट्रेन पकडऩी थी । गांधीजी फ़र्स्ट क्लास की यात्रा की ज़िद पर अड़े थे । स्टेशन मास्टर ने उन्हें यह कहते हुए फस्ट क्लास का टिकट दिया,"मैं ट्रांसवाल का नहीं हूँ । आपकी भावनाओं के प्रति हमदर्दी जताता हूँ। लेकिन इस शर्त पर फस्ट क्लास का टिकट दे रहा हूँ कि किसी बखेड़ा होने पर आप मेरा नाम नहीं उछालेंगे।"
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मुझे इनके साथ सफऱ करने में कोई तक़लीफ नहीं
जर्मीस्टन तक पहुँचने के बाद टिकट चेक करने के लिए गार्ड गांधी जी के पास पहुँचा। उसकी आँखों में ग़ुस्सा था। गांधी जी ने अपना टिकट दिखाया। गार्ड ने थर्ड क्लास में जाने की बात कहकर नाराजग़ी जतायी । जबकि फ़र्स्ट क्लास के पूरे कंपार्टमेंट में गांधीजी के अलावा सिर्फ़ एक गोरा यात्री सफऱ कर रहा था । उसने कहा,"आप इन्हें परेशान करते हैं, इनके पास टिकट है तो सही । मुझे इनके साथ सफऱ करने में कोई तक़लीफ नहीं है ।"
गार्ड से यह कहने के बाद इस व्यक्ति ने गांधी जी से कहा,"आप जहाँ हैं,वहाँ आराम से बैठकर सफऱ कीजिए ।"लेकिन गार्ड ने कहा कि ,"अगर आप को कुली की साथ सफऱ करने में दिक़्क़त नहीं तो मुझे क्या।"गांधी जी फस्ट क्लास में यात्रा करते हुए प्रिटोरिया पहुँच गये।
अनुबंध ख़त्म होने के बाद गांधी जी ने अफ्ऱीका में ही रहने का फ़ैसला किया। 1894 में उन्होंने नटाल इंडियन कांग्रेस का गठन किया। दक्षिणी अफ्ऱीका में भारतीयों की दयनीय हालत की ओर दुनिया का ध्यान खींचा। 1906 में ट्रांसवाल सरकार ने भारतीयों के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने का फ़ैसला किया। उसी समय पहली बार गांधी जी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ा।
फ़ीनिक्स व टॉलस्टॉय आश्रम की स्थापना
वहाँ वह कई बार गिरफ़्तार हुए। 1913 में गांधी जी ने अफ्रीकी सरकार द्वारा भारत के बंधुआ मज़दूर पर लगाये गये टैक्स का विरोध शुरू किया।गांधी जी की जीत हुई। अफ्रीका में उन्होंने फ़ीनिक्स व टॉलस्टॉय आश्रम की स्थापना की। 1 जनवरी, 1897 में जब गांधी जी भारत की संक्षिप्त यात्रा के बाद अफ्ऱीका लौटे तब गोरों ने उन पर हमला करके उन्हें घायल कर दिया।
गांधी जी पहली बार आम आदमी के सामने भाषण देने को तब उतरे जब बनारस के हिंदू विश्वविद्यालय को चौथाई सदी के बाद विश्वविद्यालय का दर्जा मिल रहा था। उस मंच पर गांधी जी इकलौते आदमी थे , जो सफ़ेद धोती कुर्ता यानी भारतीय पहनावे में थे। सब लोगों ने अंग्रेज़ी में भाषण दिया। पर गांधी जी हिंदी में बोले।
'द लाइफ़ एंड डेथ ऑफ महात्मा गांधी'
राबर्ट पेन की किताब ‘द लाइफ़ एंड डेथ ऑफ महात्मा गांधी’के अनुसार, जब गांधी जी ने कहा," वह भाषण तैयार करके नहीं बोल रहे थे। वास्तव में ऐसे भाषण की ज़रूरत भी नहीं थी।" उन्होंने काशी विश्वनाथ मंदिर के आसपास पसरी गंदगी के बारे में कहा,"एक हिंदू होने के नाते आपसे पूछना चाहता हूँ कि क्या हमारे पवित्र मंदिर की ओर जाने वाली गलियाँ इतनी ही गंदी होनी चाहिए ।
मंदिर के आस-पास बेतरतीब से बने घर हैं। रास्ते संकरे व खऱाब हैं। जब हमारे सबसे पवित्र स्थान मंदिर का यह हाल है तो हमारी सरकार का क्या होगा? अंग्रेज जब देश छोडक़र चले जायेंगें तब क्या हमारे मंदिर स्वच्छता, पवित्रता व शांति का घर बनेंगे।
गांधी जी के भाषण से मंच पर बैठे महाराजा दरभंगा व ऐनी बेसेंट नाराज़ हो गयी। महाराज मंच छोड़ कर चले गये। ऐनी बेसेंट ने कहा, ‘बस बहुत हो गया।’ भारत आने के बाद गोपाल कृष्ण गोखले जी ने गांधी जी को भारत देखने का काम सौंपा । उनके आदेश के बाद गांधी जी ने रेलगाड़ी से पूरे देश में यात्राएँ की।
उस समय ट्रेनों में पहला, दूसरा व तीसरा श्रेणी होता था। वातानुकूलित क्लास नहीं होता था। 1917 में चंपारन ज़िले में। आंदोलन शुरू हुआ। नील किसानों के शोषण के ख़िलाफ़ शुरू हुए आंदोलन ने गांधी जी बड़ी ख्याति दिला दी।
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टॉलस्टाय उनके आध्यात्मिक गुरू थे
टॉलस्टाय उनके आध्यात्मिक गुरू थे। इनकी किताब ‘ईश्वर की सत्ता तुम्हारे अंदर ही है’ गांधी जी को प्रिय थी। गांधी जी ने लार्ड इंटर के सामने सत्याग्रह की व्याख्या करते हुए कहा था,"यह ऐसा आंदोलन है जो पूरी तरह सच्चाई पर कायम है। अहिंसा के उपायों के एवज़ में चलाया जा रहा है।"
गांधी जी जान चुके थे कि गोरों को हथियारों से नहीं हराया जा सकता है। गांधी जी के भारत आने से पहले स्वतंत्रता सेनानी स्वतंत्रता आंदोलन की अलग-अलग इलाक़ों में अलख जगा रहे थे। पर यह समूचा आंदोलन बेहद बिखरा था। 1857 की क्रांति भारत में विफल हो चुकी थी। उस समय के ब्रिटिश इतिहासकार इसे गदर कह कर ख़ारिज कर रहे थे। पर यह ग़दर था नहीं। हाँ, यह बात ज़रूर थी कि इसमें अहिंसा नहीं शामिल थी। लोग मरने व मारने पर उतारू थे।
गोरों को हथियारों वाली लड़ाई में नहीं पराजित किया जा सकता-गांधी जी
गांधी जी जानते थे कि गोरों के पास इतने आधुनिक हथियार हैं कि उन्हें हथियारों वाली लड़ाई में नहीं पराजित किया जा सकता है। उन्हें इस बात का भान था कि उज़बेकिस्तान से आये चंगेज़ ख़ान के वंशज बाबर की तोप के आगे पानीपत में दिल्ली सल्तनत के अंतिम सुल्तान इब्राहीम लोदी कैसे पराजित हुए थे। बाबर ने 1526 में तोप का इस्तेमाल पहली बार किया था। 1919 में जलियाँवाला बाग कांड में जनरल डायर ने रास्ते में तोपें खड़ी करके गोलियों से 388 लोगों को मौत के घाट उतार दिया ।
वह जानते थे कि गोरों की तरफ़ से हथियार चलाने वाला, लडऩे वाला भी भारतीय ही है। मरने व मारने वाले दोनों भारतीय होते हैं ।गांधी जी ने भारत भ्रमण करके यह जानकारी हासिल कर ली थी कि गोरों को उनके पिच पर, उनके हथियार से नहीं जीता जा सकता है। तभी तो उनने अपना मैदान तैयार किया। अपने हथियार गढ़े।
उन्होंने विदेश से लौटने के बाद विदेशी भाषा, विदेशी भूषा को सबसे पहले त्याग दिया। वह जान चुके थे कि हिंदी भारत को जोडऩे वाली भाषा है। वह मूलत: गुजराती भाषी थे। पर हिंदी को उनने अपना माध्यम बनाया। उन्होंने विदेश से लौटने के बाद एक बड़ी प्रेस कॉन्फ्ऱेंस में यह एलान किया, "दुनिया से कह दो गांधी अंग्रेज़ी नहीं जानता है।"
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मुग़लों की लंबी ग़ुलामी भारतीयों के रहन सहन को बदल दिया
गांधी जी ने अपने लेख, अपनी किताबें अंग्रेज़ी में नहीं लिखी अंग्रेज़ी में उनका अनुवाद हुआ । यही नहीं, जब गांधी अफ्रीका से लौटकर भारत आये तब तक मुग़लों की लंबी ग़ुलामी व गोरों की ग़ुलामी ने हमारे रहन सहन, चाल, चरित्र व चेहरा तथा सामाजिक तानाबाना इतना गडमगड कर दिया था कि कथनी व करनी में बहुत अंतर साफ़ देखा जा सकता था। गांधी जी ने इसे ही अपने रहन सहन व जीवन का आधार बनाया। कथनी व करनी को अपने स्तर पर एका करके दिखाया। इसके चलते गांधी जी न केवल जन मन के प्रिय हुए। बल्कि उस समय के कांग्रेस के दिग्गज नेताओं को भी गांधी का नेतृत्व स्वीकार करने में कोई हिच नहीं हुई।
गांधी जी को नैतिक बल और इस बल की ताक़त का अहसास था। वह इसी बल के बूते गोरों के लिए सिर दर्द बने थे। गांधी जी का विरोध करने वालों के पास गांधी जी को लेकर कई अनुत्तरित प्रश्न है। मसलन, गांधी जी चाहते तो भगत सिंह की फांसी रोक सकते थे। गांधी जो को हरिपुरा कांग्रेस में सुभाष चन्द्र बोस की जीत के बाद उन्हें इस्तीफ़ा देने को नहीं कहना चाहिए था।जब कांग्रेस की सारी कमेटियों ने सरदार पटेल का नाम पार्टी अध्यक्ष के लिए प्रस्तावित किया था। तब जवाहर लाल नेहरू के नाम को आगे नहीं लाना चाहिए था। भारत पाक बँटवारा गांधी जी के नाते हुआ।
गांधी जी पर बनी रिचर्ड एटनबरो की फ़िल्म ‘गांधी’
ये और इससे मिलती जुलती एकाध शिकायत और होगी। इसे मैं इस आधार पर कह रहा हूँ कि हमें अब तक जो गांधी जी के आलोचक मिले हैं। उन सब ने ये ही कीचड़ गांधी पर उछाले हैं । यही शिकायत की है। इन्हीं को लेकर नाराजग़ी जताई है । इन सब सवालों व शिकायतों के जवाब भारतीय इतिहास पर लिखी गयी किसी न किसी किताब में हैं । कुछ के जवाब तो गांधी जी पर बनी रिचर्ड एटनबरो की फ़िल्म ‘गांधी’ तथा अनिल कपूर की फ़िल्म ‘गांधी माई फादर’में मिल जाते हैं। यह फ़िल्म गांधी जी के सबसे बड़े बेटे हीरालाल गांधी पर बनी है।
पर हमारे पास समय नहीं है। सवाल से काम चल जाता है तो जवाब तलाशने में अनिश्चित जीवन के निश्चित काल खंड क्यों खर्च किये जायें । यह मानसिकता भी काम करती है। इन शिकायतों का नीचे से संक्षिप्त, कम समय में समझ में आने वाला जवाब कुछ यूँ बनता है। गांधी जी को भारत की आज़ादी व बँटवारे की शर्त पर आज़ादी के बारे में पता ही नहीं था।
इस प्रस्ताव पर मुहर लगाने के लिए कांग्रेस की दो बैठक हुई थी , उसकी विवरण देते हुए बैठक में आमंत्रित सदस्य के रूप में शरीक होने वाले डॉ राम मनोहर लोहिया जी ने यह लिखा है कि जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल के मुँह से गांधी जी को बैठक में सब बात पता चली।
पटेल जी की जगह गांधी जी ने नेहरू को पार्टी अध्यक्ष के लिए गांधी क्यों चाहते थे। इस बारे में गांधी जी ने स्वयं सरदार पटेल जी से बात की थी। सब लोग यह जानते थे कि जो पार्टी का अध्यक्ष होगा वही प्रधानमंत्री भी बनेगा।
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भारत के एकीकरण का काम सरदार पटेल को सौंपा
जब देश आज़ाद हुआ तो नेहरू जी की अंतरराष्ट्रीय समझ भारत के लिए अनिवार्य थी। सरदार पटेल जी घरेलू मोर्चे पर ज़्यादा काम कर सकते थे। उन्हें ज़्यादा काम करना था। गांधी जी जानते थे कि भारत के एकीकरण का काम सरदार पटेल जी के सिवाय कोई नहीं कर सकता। नेहरू के सिवाय अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भारत के लिए ज़रूरी प्लेटफ़ॉर्म कोई और नहीं बना सकता।
यही नहीं, सरदार पटेल जी ने ही गांधी जी के समझाने के बाद नेहरू जी के नाम का प्रस्ताव करने को कांग्रेस का इकाइयों को कहा। आज जो लोग सरदार पटेल जी के हितैषी बन कर गांधी जी पर सवाल उठाते हैं। उनके लिए यह समझना ज़रूरी हो जाता है कि सरदार पटेल जी यदि गांधी जी की बात मान गये। तो ज़रूर उन्हें देश के लिए कोई सिल्वर लाइन दिखी होगी।
सरदार पटेल ने सारे देश को एक करके दिखाया
आज भी कहा जाता है कि जम्मू कश्मीर का विलय नेहरू जी पर छोड़ा गया तो समस्या आज भी बनी हुई है। सरदार पटेल ने सारे देश को एक करके दिखाया। जरा सोचिये सरदार पटेल जी की जगह कोई और होता तो देश में कितने जम्मू कश्मीर आज होते। हरिपुरा कांग्रेस व सुभाष चन्द्र बोस के सवाल पर आते हैं। इसे थोड़ा ठीक से जानने की ज़रूरत है। गांधी जी ने सुभाष चन्द्र बोस जी के सामने पट्टाभिरमैया को मैंदान में उतारा था। गांधी जी ने पट्टाभिरमैया के बारे में कहा था कि उनकी हार मेरी हार है।
पर हक़ीक़त यह है कि सुभाष चन्द्र बोस जी ने इस्तीफ़ा इसलिए दिया क्योंकि उन दिनों के कांग्रेस के नेता जिसको जिसको कमेटी में रखवाना चाहते थे, सुभाष बाबू उसके लिए तैयार नहीं थे। इस सूची में कई गांधी जी के पसंद के लोग भी थे।
सुभाष चन्द्र बोस जी कांग्रेस को अपने ढंग से चलाना चाहते थे। पर गांधी जी का मानना था कि कांग्रेस को बहुत मेहनत व रणनीति के बाद अंग्रेजों के हाथ से मुक्त करा कर स्वतंत्रता आंदोलन का प्लेटफ़ॉर्म बनाया गया है। यदि किसी एक की चलेगी तो अंग्रेज फिर इस पर क़ाबिज़ होने की कोशिश करेंगे। कांग्रेस उस समय तक एक बड़ा प्लेटफ़ॉर्म बन चुकी थी।
गांधी जी भगत सिंह जी की फाँसी को लेकर ख़ामोश क्यों रहे?
गांधी जी भगत सिंह जी की फाँसी को लेकर ख़ामोश क्यों रहे? इस सवाल का सीधा जवाब भगत सिंह जी ने अपनी किताब में साफ लिखा है। भगत सिंह के चाचा करतार सिंह व छोटे भाई कुलतार सिंह जी जब उनसे फाँसी से कुछ दिन पहले मिलने गये तब भगत सिंह ने कहा था कि वह कोई माफ़ीनामा लिख कर नहीं देंगे। फिर गांधी कैसे दे सकते थे ? जब वो लोग रोने लगे तब भगत सिंह जी ने कहा," आंसू बहाने के लिए नहीं है। बलिदान के बाद क्रांति की मशाल जलाये रखने की ज़िम्मेदारी अगली पीढ़ी की है।"
भगत सिंह अंतिम बार रसगुल्ला खाया था
भगत सिंह को निर्धारित समय से एक दिन पहले फाँसी दी गयी थी। अंतिम बार उन्होंने रसगुल्ला खाया था। यही नहीं, भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों को लेकर जेल के क़ैदियों में इतना जुनून था कि उनकी फाँसी के बाद उनके सामानों की बाक़ायदा जेल में नीलामी की गयी। यह सब क़ैदियों ने ही किया। उन्हीं ने खऱीदा।
यह भी बहुत कम लोग जानते होंगे कि गोरों ने भारत को आज़ाद करने की बात पहली बार जब सोची तो इसका श्रेय भी गांधी जी को ही जाता है। वाकय़ा नमक सत्याग्रह के समय का है। गांधी ने सत्याग्रहियों का इस कदर ब्रेनवाश किया था कि जब पुलिस की लाठियाँ उन पर पड़ती थी तो वे लाठियाँ पकडऩे की जगह जहां लाठी पड़ी होती थी उसे पकड़ कर बैठ जाते थे, दूसरा जत्था पीछे से आगे आ जाता था। स्वयंसेवक घायल को किनारे लाकर उसकी मरहम पट्टी करने लगते थे। डांडी मार्च जारी रहता था। यह 12 मार्च ,1930 से 6 अप्रैल, 1930 तक हुआ था।
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गांधी ने भारत के लोगों को मैस्मेराइज यानी सम्मोहित कर रखा है
जब इसकी फ़िल्म एलिज़ाबेथ की उपस्थिति में देखी गयी तब लोगों को भान हुआ कि गांधी ने भारत के लोगों को मैस्मेराइज यानी सम्मोहित कर रखा है। अगर सत्याग्रही पुलिस के साथ प्रतिरोध नहीं कर रहे हैं तो साफ़ है कि गांधी का जादू इनके सर चढ़ कर बोल रहा है। गांधी जो चाहते हैं वह करना पड़ेगा। भारत को आज़ाद करने के सिवाय कोई रास्ता नहीं है। उन पर अब राज करना संभव नहीं है ।
यह फ़िल्म बहुत छोटी थी। उस समय रामसे मैकडोनाल्ड ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे। आज भी ब्रिटेन का प्रधानमंत्री एलिज़ाबेथ के सामने एक बार में बीस मिनट से ज़्यादा नहीं रूक सकता। इसकी एक वजह यह है कि वह यह नहीं मानती कि किसी समस्या समाधान निकलने में बीस मिनट से ज़्यादा का समय लग सकता। दूसरे प्रधानमंत्री को एलिज़ाबेथ के सामने बैठना नहीं है। खड़ा ही रहना है। वह बीस मिनट से ज्यादा खड़ा नहीं रह सकता।
पृथ्वी का जबसे ज्ञात इतिहास है तब से आज तक गांधी जी के सिवाय कोई ऐसा दुनिया में शख़्स नहीं है जिसे 130 देश के लोग सम्मान देते हों। जिस पर सबसे ज़्यादा लिखा गया हो। जो दुनिया में सबसे ज़्यादा पढ़ा गया हो। जिसकी समाधि पर इतने ज़्यादा लोगों ने सिर झुकाया हो।
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