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झगड़ा एमएसपी का: तो कैसे सुलझेगा ये मामला, कानून बनाना बहुत मुश्किल

ये बात सही है कि एमएसपी का कोई वैधानिक आधार नहीं है। ना तो सीएसीपी किसी कानून के तहत बनी थी और ना ही एमएसपी किसी कानून के तहत दी जाती है। फिर भी भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में कृषि की महत्ता को देखते हुए इसे दशकों से हर सरकार ने एक प्रथा की तरह कायम रखा है।

SK Gautam
Published on: 9 Jan 2021 2:49 PM IST
झगड़ा एमएसपी का: तो कैसे सुलझेगा ये मामला, कानून बनाना बहुत मुश्किल
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झगड़ा एमएसपी का: तो कैसे सुलझेगा ये मामला, कानूनन बनाना बहुत मुश्किल

नीलमणि लाल

लखनऊ: किसानों का विरोध कृषि कानूनों में दिए गए अन्य बिन्दुओं के अलावा न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी को लेकर है। किसानों के संगठनों की अहम माँगों में से एक ये है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से कम कीमत पर ख़रीद को अपराध घोषित करे और एमएसपी पर सरकारी ख़रीद लागू रहे। वैसे तो एमएसपी पर ख़ुद प्रधानमंत्री ट्वीट कर कह चुके हैं कि एमएसपी की व्यवस्था जारी रहेगी, सरकारी ख़रीद जारी रहेगी। लेकिन ये बात सरकार बिल में लिख कर देने को तैयार नहीं है। सरकार की दलील है कि इसके पहले के क़ानूनों में भी लिखित में ये बात कहीं नहीं थी इसलिए नए बिल में इसे शामिल नहीं किया गया है।

एमएसपी कृषि मंत्रालय की एक समिति सीएसीपी तय करती है

दरअसल, एमएसपी पर सरकारी ख़रीद चालू रहे और उससे कम पर फसल की ख़रीदने को अपराध घोषित करना, इतना आसान नहीं हैं जितना किसान संगठनों को लग रहा है। दरअसल, भारत सरकार 23 कृषि उत्पादों के लिए साल में दो बार एमएसपी तय करती है।

इनमें सात अनाज (धान, गेहूं, जौ, ज्वार, बाजरा, मक्का और रागी), पांच दालें (चना, अरहर, उड़द, मूंग और मसूर), सात तिलहन और चार व्यावसायिक फसलें (कपास, गन्ना, नारियल और जूट) शामिल हैं। एमएसपी कृषि मंत्रालय की एक समिति सीएसीपी तय करती है जिसका गठन 1965 में हुआ था और इसने पहली बार 1966-67 में हरित क्रांति के दौरान गेहूं का एमएसपी तय किया था।

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एमएसपी का कोई वैधानिक आधार नहीं

ये बात सही है कि एमएसपी का कोई वैधानिक आधार नहीं है। ना तो सीएसीपी किसी कानून के तहत बनी थी और ना ही एमएसपी किसी कानून के तहत दी जाती है। फिर भी भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में कृषि की महत्ता को देखते हुए इसे दशकों से हर सरकार ने एक प्रथा की तरह कायम रखा है।

कैसे तय होता है सरकारी दाम

बता दें कि दाम तय करते समय सीएसीपी जिन बातों का ध्यान रखती है उनमें 2009 में संशोधन किया गया था। इनमें मांग और आपूर्ति, उत्पादन लागत, आंतरिक और अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतों की प्रवृत्ति, अलग अलग फसलों के बीच दाम की समानता, कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों के बीच व्यापार की शर्तें, उत्पादन लागत के ऊपर से न्यूनतम 50 प्रतिशत मुनाफा, और एमएसपी का उस उत्पाद के उपभोक्ताओं पर संभावित असर शामिल हैं।

दाम तय करने से पहले सीएसीपी केंद्रीय मंत्रालयों, एफसीआई, नाफेड जैसे सरकारी संस्थानों, सभी राज्य सरकारों, अलग अलग राज्यों के किसानों और विक्रेताओं के साथ बैठक करती है और बातचीत करती है। इन सबके आधार पर समिति कीमतों की अनुशंसा करती है और सरकार को अपनी रिपोर्ट भेजती है। उसके बाद आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति (सीसीईए) एमएसपी पर अंतिम निर्णय लेती है।

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एमएसपी तय करने के लिए एक नई परिभाषा

हालांकि, अक्सर अपनी फसल के लिए सही दामों को लेकर किसानों की अपेक्षा और सरकार द्वारा तय की गई एमएसपी में फासला रह जाता है। बरसों से इस फासले को कम करने की कोशिशें भी होती रही हैं। पिछले एक दशक से भी ज्यादा से एमएसपी तय करने के लिए एक नई परिभाषा का ही इस्तेमाल किया जा रहा है और उसमें उसके कुल मूल्य का 50 प्रतिशत और जोड़ कर एमएसपी तय की जा रही है।

एक अनुमान के अनुसार देश में केवल 6 फीसदी किसानों को एमएसपी मिलता है, जिनमें से सबसे ज्यादा किसान पंजाब हरियाणा के हैं। वर्तमान में देश में किसानों की संख्या (किसान परिवार) 14.5 करोड़ है, इस लिहाज से 6 फीसदी किसान मतलब कुल संख्या 87 लाख हुई।

कानूनी जामा पहनाना मुश्किल

एमएसपी को कानूनन अनिवार्य बनाना बहुत मुश्किल है। एमएसपी की कानूनी अनिवार्यता का सीधा सा मतलब यह भी होगा कि एमएसपी का अधिकार। ऐसे में जिसे एमएसपी नहीं मिलेगा वह कोर्ट जा सकता है और न देने वाले को सजा हो सकती है।

जब फसल की लागत हर प्रदेश में अलग-अलग, तो एमएसपी पूरे देश में एक सामान करना बहुत मुश्किल होगा। यदि किसी फसल की कीमतें बहुत गिर जाती हैं तो कंपनियां कानून के डर से कम कीमत में फसल खरीदेंगी ही नहीं। ऐसे में फसल किसानों के पास ऐसी ही रखी रह जायेगी।

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1-देश में अभी जिन फसलों की खरीद एमएसपी पर हो रही है, उसके लिए हमेशा एक ‘फेयर एवरेज क्वॉलिटी’ तय होता है। मतलब फसल की एक निश्चित गुणवत्ता तय होती है। यदि कोई फसल गुणवत्ता के मानकों पर खरी नहीं उतरती तो उसे कैसे खरीदा जायेगा? यदि एमएसपी का कानून बन गया निश्चित क्वालिटी लागू करना मुश्किल होगा।

2-अगर केंद्र सरकार एमएसपी को अनिवार्य कानून बनाती है तो उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती पैसों की होगी और इसका इसका एक असर यह भी होगा कि देश में कृषि उत्पादों का आयात बढ़ सकता है।

3-सरकार अगर एमएसपी को अनिवार्य कानून बना देगी तो धान या गेहूं के अलावा दूसरी फसलों के किसान भी इसकी मांग करेंगे। अगर यह हुआ तो अभी के कुल बजट का लगभग 85 फीसदी हिस्सा सरकार एमएसपी पर ही खर्च कर देगी।

4-अंतरराष्ट्रीय बाजारों में भारत की उपज की कीमत वैसे ही कई देशों की अपेक्षा ज्यादा है। ऐसे में अगर एमएसपी को अनिवार्य कानून बनाया गया तो व्यापारी आयात करने लगेंगे और सरकार उन्हें रोक भी नहीं पायेगी। ऐसे में सरकार को किसानों से सारी फसलें खरीदनी पड़ेंगी।

5-ज्यादा एमएसपी की मतलब उपज की कीमत बाजार में बढ़ेगी।

6-भारत में किसानों को एमएसपी या या जो सब्सिडी दी जाती है, डब्ल्यूटीओ उसकी गिनती सब्सिडी में करता है और उसे ख़राब सब्सिडी बताता है। क्योंकि उसके अनुसार इससे बाजार प्रभावित होता है। विश्व व्यापार संगठन एमएसपी जैसी नीतियों का हमेशा से विरोध करता रहा है। डब्ल्यूटीओ में शामिल विकसित देश आरोप लगाते हैं कि भारत कृषि क्षेत्र में सीधे सब्सिडी देकर अंतरराष्ट्रीय बाजार में हस्तक्षेप कर उपज की कीमत को प्रभावित करता है।

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पंजाब के किसान और एमएसपी की व्यवस्था

दिल्ली की सीमा पर जमे किसानों में सबसे ज्यादा संख्या पंजाब से आये किसानों की है। कृषि संबंधी कानूनों के बारे में उनकी चिंता है कि नए कानूनों से उनकी आय पर विपरीत प्रभाव पड़ने वाला है। पूरे भारत में किसान परिवारों की संख्या करीब 15 करोड़ है जिसमें से पंजाब का हिस्सा मात्र मात्र दस लाख है।

इसके विपरीत पंजाब के किसानों को राज्य सरकार द्वारा 8275 करोड़ रुपये की मुफ्त बिजली दी जाती है। 2019-20 के बजट में पंजाब को उर्वरक सब्सिडी के लिए केंद्र सरकार ने 5 हजार करोड़ रुपये दिए।

सिर्फ बिजली और उर्वरक सब्सिडी में ही पंजाब 13,275 करोड़ रुपये देता है। इसका मतलब ये हुआ कि प्रति किसान परिवार को 2019-20 में करीब 1 लाख 22 हजार रुपये की सब्सिडी मिली। ये पूरे भारत में सबसे ज्यादा है। इसके अलावा पंजाब के औसत किसान परिवार की औसत आय देश के औसत से ढाई गुना ज्यादा है।

हरित क्रांति में भूमिका

दरअसल, पंजाब के किसानों की भूमिका भारत की हरित क्रांति में बहुत महत्वपूर्ण रही है। साठ के दशक में भारत अनाज की कमी से बुरी तरह जूझ रहा था और गेहूं के लिए अमेरिका पर आश्रित था जहाँ से पीएल480 गेहूं का बड़े पैमाने पर आयात किया जाता था। हर साल एक करोड़ टन पीएल480 भारत आता था जिसका भुगतान भारत को रुपये में करना पड़ता था। इसकी वजह भारत के पास विदेशी मुद्रा का न होना था।

इन हालातों में 1965 में एक उपाय सोचा गया कि कैसे देश में अनाज का अधिक उत्पादन कराया जाए। ये उपाय था न्यूनतम समर्थन मूल्य का। ये हरित क्रांति की शुरुआत थी और पंजाब ने इसमें अगुवाई की। राज्य को केंद्र का सपोर्ट एमएसपे, अच्छे बीज और उर्वरक पर भरी सब्सिडी के तौर पर मिलने लगा। इसके बाद 1970 में नार्मन बोरलौग ने हरित क्रांति के असली चरण की शुरुआत की जिसमें उच्च उत्पादकता का गेहूं शामिल था।

इस हरित क्रांति में उच्च किस्म के बीज, ट्रेक्टर, सिंचाई सुविधा, कीटनाशक और रासायनिक उर्वरकों का व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल किया गया और देखते देखते पंजाब ने हरित क्रांति का परचम लहरा दिया।

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एफसीआई

अनाज खरीदने वाली मुख्य सरकारी एजेंसी है फ़ूड कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया जो आमतौर पर सिर्फ धान और गेंहू एमएसपी पर खरीदती है। यही अनाज सब्सिडी पर गरीबों को बेचा जाता है। एक बात ध्यान देने वाली है कि एफसीआई की खरीद पूरे देश में एक सामान नहीं है। मिसाल के तौर पर बिहार में कुल उत्पादन का दो फीसदी से भी कम खरीद एफसीआई द्वारा होती है।

नतीजतन अधिकांश किसानों को एमएसपी से 25 से 35 फीसदी कम पर किसानों को अपना उत्पाद बेचना पड़ता है। वहीं पंजाब और हरियाणा से एफसीई लाखों टन धान और गेंहू खरीदता है। आज एफसीआई के गोदाम ठसाठस भरे हैं। इस साल जून में 97 मिलियन मीट्रिक टन का स्टॉक था जबकि बफर स्टॉक की सीमा 41.2 एमएमटी है।

किस राज्य से कितनी खरीद

वर्ष 2019 – 20 में गेंहू खरीद की बात करें तो पंजाब से 129.12 लाख टन (एलएमटी) खरीद हुई। हरियाणा में 93.2 एलएमटी, यूपी में 37, मध्य प्रदेश में 67.25, बिहार में 0.03, उत्तराखंड में 0.42, चंडीगढ़ में 0.13, गुजरात में 0.05, हिमाचल में 0.01 एलएमटी खरीद की गयी। वहीं 2020-21 में पंजाब में १२७.14, हरियाणा में 74, यूपी में 35.77, मध्य प्रदेश में 129.42, बिहार में 0.05, राजस्थान में 22.25, उत्तराखंड में 0.38, चंडीगढ़ में 0.11, गुजरात में 0.77, हिमाचल में 0.03 एलएमटी खरीद हुई।

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धान की खरीद

2019-20 में पंजाब में 108.76 एलएमटी, हरियाणा में 43.07, आंध्र प्रदेश में 55.33, तेलंगाना में 74.54, असम में 2.11, बिहार में 13.41, चंडीगढ़ में 0.15, छत्तीसगढ़ में 52.24, गुजरात में 0.14, झारखण्ड में 2.55, कर्नाटक में 0.41, केरल में 4.83, मध्य प्रदेश में 17.4, महाराष्ट्र में 11.57 ओडीशा में 47.98, तमिलनाडु में 22.04, यूपी में 37.9, बंगाल में 18.38 और उत्तराखंड में 6.81 एलएमटी के खरीद हुई। साफ़ है कि धान और गेहूं की सरकारी खरीद में पंजाब और हरियाणा आगे हैं।

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बदलाव जरूरी

पंजाब और हरियाणा के किसानों का एमएसपी और सरकारी मंडियों से प्रेम सब्सिडी और सरकारी सुविधाओं की वजह से है। इस व्यवस्था में ट्रेडर्स या आढ़ती की भी बड़ी भूमिका है। हरित क्रांति से उपजी इस व्यस्था को बदलने के लिए प्रयास पहले भी हुए हैं लेकिन आधे अधूरे मन से। पंजाब में किसानों को धान- गेहूं के अलावा अन्य फसलोन की ओर प्रेरित करने की कोशिशें की गयीं हैं लेकिन उन स्कीमों के लिए बहुत ही कम संसाधन लगाये गए।

अपनी कृषि में पंजाब को बदलाव करने के लिए बड़ा पैकेज और प्लान चाहिए जो कम से कम पांच साल के लिए हो। जब किसान अपने उत्पाद में विभिन्नता ले आएंगे तभी वे एमएसपी के जाल से बाहर निकल सकेंगे। इस काम को राज्य और केंद्र मिल कर ही अंजाम दे सकते हैं।

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