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Violence In West Bengal: पश्चिम बंगाल में पावर गेम का हिस्सा है मारकाट, आखिर क्यों?
Violence In West Benga Panchayat Elections 2023: पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिंसा कोई नई बात नहीं है। राज्य के हर गुप्त चुनावी मौसम के दौरान यह सत्तारूढ़ दल और विपक्ष के बीच खूनी टकराव के रूप में उबलता है, फूटता है और फैलता है। दशकों से ऐसा ही होता आया है।
Violence In West Bengal Update: पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिंसा कोई नई बात नहीं है। दशकों से यही चला आ रहा है। शेषन तक इस परंपरा को खत्म नहीं कर सके। पंचायत चुनावों में यही सिलसिला फिर सामने है। राज्य के हर गुप्त चुनावी मौसम के दौरान यह सत्तारूढ़ दल और विपक्ष के बीच खूनी टकराव के रूप में उबलता है, फूटता है और फैलता है। यह बंगाल के लिए सामान्य है। दशकों से ऐसा ही होता आया है।
पुराना सिलसिला
पश्चिम बंगाल में व्यापक रूप से जागरूक और राजनीतिक रूप से सक्रिय आबादी के बावजूद इतनी हिंसा होना और सरकारों द्वारा इस हिंसा को ख़त्म करने में विफल रहना - एक बेहद परेशान करने वाली बात है।
2013 और 2018 में गोलीबारी, बमबारी, आगजनी, पत्थरबाजी और मारकाट की घटनाएं खूब हुईं। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 2018 के पंचायत चुनावों में 23 लोग मारे गए जबकि चुनावों से पहले 30 लोगों की मौत हो गई। 2003 और 2008 में, जब वामपंथी सत्ता में थे तब पंचायत चुनावों में क्रमशः लगभग 70 और 36 मौतें हुईं थीं।
सभी शामिल
बंगाल के पंचायत चुनाव में हिंसा सिर्फ एक पार्टी तक सीमित नहीं रही है। सभी पार्टियाँ आंतरिक गुटीय संघर्षों के अलावा पूरे चुनावी मौसम में हिंसा की संस्कृति में संलग्न रहती हैं।
आखिर क्यों
एनसीआरबी डेटा के मुताबिक, बंगाल में 1999 से हर साल औसतन 20 राजनीतिक हत्याएं दर्ज की जा रही हैं। राज्य में 2010 और 2019 के बीच सबसे अधिक राजनीतिक हत्याएं (161) देखी गईं। हालांकि पिछले तीन दशकों में केरल में 200 से अधिक राजनीतिक हत्याएं हुई हैं, लेकिन पर्यवेक्षकों का कहना है कि पश्चिम बंगाल सबसे आगे है।
पर्यवेक्षकों का कहना है कि इस क्षेत्र में राजनीतिक हिंसा लगभग एक परंपरा की तरह है। यहां हिंसक टकराव हिसाब-किताब बराबर करने का एक तरीका है और उनकी तीव्रता चुनौती देने वाले और प्रमुख बल की ताकत पर निर्भर करती है।
दरअसल, पश्चिम बंगाल में सीपीएम के शासन के दौरान हिंसा चुनाव जीतने का एक साधन बना दी गई थी। सीपीएम शासन के दौरान जो कोई भी सत्तारूढ़ राजनीतिक ताकत के साथ गठबंधन नहीं करता था उसे अक्सर प्रतिशोध का सामना करना पड़ता था। तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन के सख्त कार्यकाल के दौरान बिहार जैसे पड़ोसी राज्यों और यहां तक कि उत्तर प्रदेश में भी स्थिति में सुधार हुआ, लेकिन बंगाल में मतदाताओं को डराने-धमकाने का सिलसिला जारी रहा और हालात बहुत नहीं बदले।
बंगाल तो अलग किस्म का है
सच्चाई ये है कि बंगाल गंभीर सामाजिक असमानताओं वाला एक अनोखा राज्य रहा है। ये, संगीत, लेखकों, फिल्मी हस्तियों, चिंतकों और चित्रकारों के लिए जाना जाता है, तो दूसरा पहलू गहरी आर्थिक कलह और असमानता का भी है। तमिलनाडु, महाराष्ट्र, पंजाब, तेलंगाना या आंध्र प्रदेश के विपरीत, बंगाल में विकास न्यायसंगत नहीं रहा है। बंगाल अपने पड़ोसी बिहार की तरह भी नहीं है जहां गरीबी और पिछड़ापन उसके परिदृश्य में रचा बसा है।
वामपंथी असर
बंगाल के कम्युनिस्ट शासन के दौरान वर्ग और जाति विभाजन का अजीब असर देखा गया। शीर्ष नेता ब्राह्मण और कायस्थ जैसी उच्च जातियों से आते थे। परिणामी असंतोष के कारण दूसरे वर्गों में एकजुटता और हिंसा हुई। लोग जानते थे कि पुलिस उनकी मदद नहीं करेगी, इसलिए उन्होंने अपने समुदाय के सदस्यों को संगठित किया। जब ऐसे लोग राजनीति में आए, तो हिंसा एक साधन बन गई। बंगाल में जब नक्सलवाद उपजा और फैला तो हिंसा का एक नया मंजर देखा गया। ये हिंसा अब समूचे राजनीतिक परिदृश्य में समा गई है।
चुनाव का मतलब है पैसा और पावर, इन दोनों के लिए हिंसा का जम कर इस्तेमाल हुआ है और इन चुनावों में भी जारी है। ये सिलसिला कभी खत्म भी होगा कि नहीं, कोई निश्चित तौर पर नहीं कह सकता।