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यहां मरने आते हैं लोग! बस दो ही हफ्ते में हो जाती है मौत

दरअसल, साल 1908 में बने इस भवन को मुक्ति भवन के नाम से जाना जाता है। यहां एक पुस्तक है, जो आने वालों का बहीखाता रखती है। इस किताब में ज्यादातर नाम वही हैं, जो मुक्ति भवन में आने के कुछ दिनों के भीतर नहीं रहे।

Shivakant Shukla
Published on: 20 Oct 2019 12:16 PM GMT
यहां मरने आते हैं लोग! बस दो ही हफ्ते में हो जाती है मौत
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वाराणसी: 'मृत्यु सत्य है' लेकिन, सत्य ये भी है कि लोग जल्दी मरना नहीं चाहते। लेकिन आपको जानकर ये हैरानी होगी कि एक ऐसा भवन है, जहां लोग मौत का इंतजार करने आते हैं। जी हां तो आइए हम आपको बताते हैं इसके बारे में...

दरअसल, साल 1908 में बने इस भवन को मुक्ति भवन के नाम से जाना जाता है। यहां एक पुस्तक है, जो आने वालों का बहीखाता रखती है। इस किताब में ज्यादातर नाम वही हैं, जो मुक्ति भवन में आने के कुछ दिनों के भीतर नहीं रहे।

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हर साल देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से हिंदू धर्म पर आस्था रखने वाले सैकड़ों लोग यहां आते हैं और अपना आखिरी वक्त बिताते हैं। अंग्रेजों के जमाने में बनी इस धर्मशाला में 12 कमरे हैं। साथ में एक छोटा मंदिर और पुजारी भी हैं। इन कमरों में केवल उन्हीं को जगह मिलती है, जो मौत के एकदम करीब हैं। मौत का इंतजार कर रहा कोई भी व्यक्ति 2 हफ्ते तक यहां के कमरे में रह सकता है

कैसी है व्यवस्था?

कमरे का रोज का शुल्क 75 रुपए होता है। इसमें सोने के लिए एक तखत, एक चादर और तकिया होता है। साथ में पीने के लिए मौसम के अनुसार घड़ा या कलश रखा रहता है। गेस्ट हाउस में आने वालों को कम से कम सामान के साथ ही अंदर आने की इजाजत मिलती है।

यहां पुजारी हैं जो रोज सुबह और शाम की आरती के बाद अपने यहां रह रहे लोगों पर गंगाजल छिड़कते हैं ताकि उन्हें शांति से मुक्ति मिल सके।

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2 हफ्ते के भीतर आने वाले की मौत न हो तो बीमार को अपना कमरा और मुक्ति भवन का परिसर छोड़ना होता है इसके बाद आमतौर पर लोग बाहरी धर्मशाला या होटल में ठहर जाते हैं ताकि काशी में ही मौत मिले। कुछ समय बाद दोबारा फिर मुक्ति भवन में जगह तलाश सकते हैं।

क्यों यहां लोग आते हैं मरने

माना जाता है कि काशी में मरने पर सीधे मोक्ष मिलता है। इसका महत्व एक तरह से मुस्लिमों के हज की तरह है। पुराने वक्त में जब लोग कहा करते, काशी करने जा रहे हैं तो इसका एक मतलब ये भी था कि लौटकर आने की संभावना कम ही है। पहले मुक्ति भवन की तर्ज पर कई भवन हुआ करते थे लेकिन अब वाराणसी के अधिकांश ऐसे भवन कमर्शियल हो चुके हैं और होटल की तरह पैसे चार्ज करते हैं। इन जगहों पर मुक्ति भवन से विपरीत पैसे देकर चाहे जितनी मर्जी रहा जा सकता है।

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Shivakant Shukla

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