×

'अभया' और 'निर्भया' के अर्थ भी समान हैं और व्यथाएँ भी !

दोनों पादरियों और आपत्तिजनक आचरण में सहभागी 'सिस्टर' ने मिलकर अभया की कुल्हाड़ी से हत्या कर दी और उनकी लाश को कुएँ में धकेल दिया।

Newstrack
Published on: 25 Dec 2020 11:14 AM GMT
अभया और निर्भया के अर्थ भी समान हैं और व्यथाएँ भी !
X

श्रवण गर्ग

लखनऊ: देश में सबसे शिक्षित माने जाने वाले राज्य केरल में कोट्टायम स्थित एक कैथोलिक कॉन्वेंट की सिस्टर अभया को उनकी नृशंस तरीक़े से की गई हत्या के अट्ठाईस साल और नौ महीने बाद क्रिसमस की पूर्व संध्या पर 'न्याय' मिल गया। अभया की लाश अगर कॉन्वेंट परिसर के कुएँ से नहीं मिलती तो वे इस समय सैंतालीस वर्ष की होतीं और आज क्रिसमस के पवित्र त्यौहार पर किसी गिरजाघर में आँखें बंद किए हुए अपने यीशु की आराधना में लीन होतीं। सिस्टर अभया की हत्या किसी विधर्मी ने नहीं की थी। वे अगर अपनी ही जमात के दो पादरियों और एक 'सिस्टर' को 27 मार्च 1992 की अल सुबह कॉन्वेंट के किचन में आपत्तिजनक स्थिति में देखते हुए पकड़ नहीं ली जातीं तो निश्चित ही आज जीवित होतीं।

ये भी पढ़ें:बेकाबू हुए किसान, रोकने के चक्कर में BJP के दर्जनों नेताओं ने खाई पुलिस की लाठियां

केवल एक औरत को न्याय मिलने में लगभग तीन दशक लग गए

दोनों पादरियों और आपत्तिजनक आचरण में सहभागी 'सिस्टर' ने मिलकर अभया की कुल्हाड़ी से हत्या कर दी और उनकी लाश को कुएँ में धकेल दिया।अभया तब केवल उन्नीस वर्ष की थीं और इतनी सुबह बारहवीं की परीक्षा की पढ़ाई करने बैठने के पहले पानी पीने के लिए किचन में पहुँचीं थीं। केवल एक औरत को न्याय मिलने में लगभग तीन दशक लग गए। इस दौरान वह सब कुछ हुआ जो हो सकता था।

कठुआ, उन्नाव, हाथरस और अन्य सभी जगह हो रहा है

जैसा कि कठुआ, उन्नाव, हाथरस और अन्य सभी जगह हो रहा है। एक जघन्य हत्या को आत्महत्या में बदलने की कोशिशों से लगाकर समूचे प्रकरण को बंद करने के दबाव ।इनमें तीन-तीन बार नई जाँच टीमों का गठन भी शामिल है।तीनों आरोपियों को अभया की हत्या में संलिप्तता के आरोप में नवम्बर 2008 में गिरफ़्तार भी कर लिया गया था पर सिर्फ़ दो महीने बाद ही सब ज़मानत पर रिहा हो गए और पिछले ग्यारह वर्षों से आज़ाद रहते हुए चर्च की सेवा में भी जुटे हुए थे।

एक उन्नीस-वर्षीय ईसाई सिस्टर की इतनी निर्ममता के साथ हत्या कर दी गई

विडम्बना इतनी ही नहीं है कि एक उन्नीस-वर्षीय ईसाई सिस्टर की इतनी निर्ममता के साथ हत्या कर दी गई, बल्कि यह भी है कि अभया को जब हत्या के इरादे से 'पवित्र पुरुषों' और उनकी सहयोगी 'सिस्टर' द्वारा भागते हुए पकड़ा गया होगा तब वे या तो चीखी-चिल्लाई ही नहीं होंगी या फिर उनकी चीख कॉन्वेंट में मौजूद कोई सवा सौ रहवासियों द्वारा, जिनमें कि कोई बीस 'नन्स' भी शामिल रही होंगी, अनसुनी कर दी गई जैसे कि इस तरह की आवाज़ें 'आई रात' की बात हो ।

इस बात का शक इससे भी होता है

इस बात का शक इससे भी होता है कि कुएँ से अभया की लाश के प्राप्त होने के बाद भी कॉन्वेंट में कोई असामान्य क़िस्म की बेचैनी या असुरक्षा की भावना महसूस नहीं की गई।सार्वजनिक तौर पर तो उन सिस्टरों द्वारा भी नहीं जो अभया की साथिनें रही होंगी।पादरियों द्वारा यीशु की अच्छाई के सारे उपदेश भी इस दौरान यथावत जारी रहे।अभया की हत्या की रात कॉन्वेंट में ताम्बे के तारों की चोरी के इरादे से घुसे एक शख़्स की गवाही और एक गरीब सामाजिक कार्यकर्ता की लगभग तीन दशकों तक धार्मिक माफिया के ख़िलाफ़ लड़ाई अगर अंत तक क़ायम नहीं रही होती तो किसी भी अपराधी को सजा नहीं मिलती ।थिरुवनंथपुरम की सी बी आई अदालत ने एक पादरी और 'सिस्टर' को उम्रक़ैद की सजा सुनाई है । पर आगे सब कुछ होना सम्भव है।

चर्च से जुड़ी अधिकांश नन्स या सिस्टर्स सब कुछ शांत भाव से स्वीकार करती रहती हैं

एक अनुमान के मुताबिक़, लगभग डेढ़ करोड़ की आबादी वाले कैथोलिक समाज में पादरियों और ननों की संख्या डेढ़ लाख से अधिक है। कोई पचास हज़ार पादरी हैं और बाक़ी नन्स हैं। ऊपरी तौर पर साफ़-सुथरे और महान दिखने वाले चर्च के साम्राज्य में कई स्थानों पर नन्स के साथ बंधुआ मज़दूरों या ग़ुलामों की तरह व्यवहार होने के आरोप लगाए जाते हैं। ईश्वर के नाम पर होने वाले अन्य भ्रष्टाचार अलग हैं। दुखद स्थिति यह भी है कि चर्च से जुड़ी अधिकांश नन्स या सिस्टर्स सब कुछ शांत भाव से स्वीकार करती रहती हैं।

अगर कोई कभी विरोध करता है तो उसे अपनी लड़ाई अकेले ही लड़नी पड़ती है जैसा कि एक अन्य प्रकरण में केरल में ही पिछले दो वर्षों से हो रहा है। यौन अत्याचार की शिकार एक नन आरोपित पादरी के ख़िलाफ़ अकेले लड़ रही है। केरल के ही एक विधायक ने तो सम्बंधित नन को ही 'प्रोस्टिट्यूट' तक कह दिया था।पीड़ित नन के साथ चर्च की महिलाएँ भी नहीं हैं।यीशु अगर पादरी नहीं बने और एक साधारण व्यक्ति ही बने रहे तो उसके पीछे भी ज़रूर कोई कारण अवश्य रहा होगा।

दो वर्ष पूर्व प्रकाशित एक आलेख की शुरुआत मैंने अपनी एक कविता से की थी

उक्त प्रकरण पर केंद्रित दो वर्ष पूर्व प्रकाशित एक आलेख की शुरुआत मैंने अपनी एक कविता से की थी : 'वह अकेली औरत कौन है / जो अपने चेहरे को हथेलियों में भींचे / और सिर को टिकाए हुए घुटनों पर / उस सुनसान चर्च की आख़िरी बैंच के कोने पर बैठी हुई / सुबक-सुबक कर रो रही है ?/ वह औरत कोई और नहीं है / हाड़-माँस का वही पुंज है / जो यीशु को उनके 'पुरुष शिष्यों' के द्वारा अकेला छोड़ दिए जाने के बाद / उनकी ढाल बनकर अंत तक उनका साथ देती रही / जो उनके 'पुनरुज्जीवन' के वक्त भी उपस्थित हुई उनके साथ / और वही औरत आज उन्हीं 'पुरुष शिष्यों' के बीच सर्वथा असुरक्षित है / और हैं अनुपस्थित यीशु भी।'

हमें केवल वृंदावन के आश्रमों में कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत करने वाली परित्यक्ताओं अथवा किसी जमाने की देवदासियों के दारुण्यपूर्ण जीवन की कहानियाँ या फिर महिलाओं के लिए निर्धारित मनुस्मृति में उद्धृत 'उचित स्थान' के वर्णन ही सुनाए जाते हैं। उन तथाकथित सभ्य प्रतिष्ठानों में महिलाओं और बच्चों के साथ होने वाले शोषण के बारे में बाहर ज़्यादा पता नहीं चलता, जिन्हें सबसे अधिक सुरक्षित समझा जाता है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि उच्च पदस्थ धर्म गुरुओं द्वारा किए जाने वाले सभी तरह के यौन दुराचारों के क़िस्से इस समय दुनिया भर के देशों में उजागर हो रहे हैं।

ये भी पढ़ें:जौनपुर: असलहा के नोक पर लुट गए सोनार, इलाके के व्यापारियों में दहशत

'अभया' को अंतिम रूप से न्याय मिल गया है

'अभया' को अंतिम रूप से न्याय मिल गया है यह उसी तरह का भ्रम है जैसा कि 'निर्भया' या उसके जैसी हज़ारों-लाखों बच्चियों और महिलाओं को इस 'पित्र-सत्तात्मक' समाज में प्राप्त होने वाले न्याय को लेकर बना हुआ है। 'निर्भया' और 'अभया' दोनों के ही शाब्दिक अर्थ भी एक जैसे हैं और व्यथाएँ भी।

दोस्तों देश दुनिया की और खबरों को तेजी से जानने के लिए बनें रहें न्यूजट्रैक के साथ। हमें फेसबुक पर फॉलों करने के लिए @newstrack और ट्विटर पर फॉलो करने के लिए @newstrackmedia पर क्लिक करें।

Newstrack

Newstrack

Next Story