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नई राह पर अरब-इज़रायल, क्या बदलने जा रहा है शक्ति संतुलन

केंद्र की वर्तमान सरकार में सब बदला है। सरकार अल्पसंख्यक तुष्टिकरण से दूर रहती है। तो विदेश नीति को तो इससे अलग लग रखना लाज़िमी है। पर जिस तरह अरब देश इज़रायल को लेकर अपना नज़रिया बदल रहे हैं, उससे यह तय दिख रहा है कि यह ‘एलीमेन्ट’ ही सिरे से ग़ायब हो जायेगा।

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Published on: 17 Sep 2020 9:24 AM GMT
नई राह पर अरब-इज़रायल, क्या बदलने जा रहा है शक्ति संतुलन
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Arab-Israel on new path, what is going to change the balance of power

योगेश मिश्र

मिस्र, जॉर्डन, यूएई और अब बहरीन। इन मुस्लिम देशों ने अपने कट्टर दुश्मन इजरायल से हाथ मिला लिया है। मुस्लिम देशों ने इज़रायल को मान्यता देकर एक नया इतिहास लिख दिया है। अरब देशों और इजरायल की दुश्मनी को दोस्ती में बदलने का श्रेय अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के खाते में है। पहले ट्रम्प ने यूएई और इजरायल के बीच, अब इजरायल और बहरीन के बीच शांति समझौता कराया। इस तरह अरब देशों और मध्य पूर्व में ट्रंप की कोशिशों ने शांति का नया अध्याय लिख दिया।

हमास की निंदा

हालाँकि फिलीस्तीन के लिए संघर्ष करने वाले सशस्त्र संगठन हमास ने बहरीन के कदम की निंदा की है। संगठन के प्रवक्ता हाजेम कासिम ने कहा, ”बहरीन का इजरायल के साथ रिश्तों को सामान्य करने का फैसला फिलीस्तीन मुद्दे को नुकसान पहुंचाएगा।”

कभी अरब जगत की मांग थी कि इजरायल फिलीस्तीन के कथित कब्जा किए हुए क्षेत्रों से अपनी सेना वापस बुलाये। फिलीस्तीन राज्य को मान्यता दे। इसके बाद ही अरब देश इजरायल को स्वतंत्र और संप्रभु देश की मान्यता देंगे। पर यह हुए बिना मान्यता देने का दौर चल निकला।

इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने कहा, "यह शांति का एक नया युग है। शांति के लिए शांति. अर्थव्यवस्था के लिए शांति। हमने कई साल तक शांति के लिए कोशिशें कीं।”

ट्रंप के दामाद जैरेड की अहम भूमिका

राष्ट्रपति ट्रंप और उनके दामाद जैरेड कशनर ने बहरीन और यूएई के साथ समझौते की पटकथा लिखी। इनकी कोशिश है कि इसके मार्फ़त ये “सदी के सौदे" यानी इसराइल-फ़लस्तीन शांति समझौते से सबका ध्यान हटा सकेंगे, जिसे हासिल करने में ये नाकाम रहे हैं।

trumph netanyahu

संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से 164 ने इजरायल को मान्यता दे रखी है। हालाँकि 29 देश इजरायल के अस्तित्व को नहीं स्वीकारते हैं। इनमें 16 देश अरब लीग के सदस्य– अल्जीरिया, कोमोरोस, दिजिबुती, ईराक, कुवैत, लेबनान, लीबिया, मोरक्को, ओमान, क़तर, सऊदी अरब, सोमालिया, सूडान, सीरिया, ट्यूनीशिया और यमन हैं।

इजरायल को मान्यता न देने वाले 9 देश वह हैं जो आर्गेनाईजेशन ऑफ़ इस्लामिक कोऑपरेशन (आईओसी) के सदस्य- अफगानिस्तान, बांग्लादेश, ब्रुनेई, इंडोनेशिया, ईरान, मलेशिया, माली, नाइजर और पाकिस्तान हैं। इनके अलावा भूटान, क्यूबा, नार्थ कोरिया और वेनेज़ुएला ने भी इजरायल को मान्यता नहीं दी है।

1999 में उत्तर-पश्चिम अफ्रीका में अरब लीग के एक सदस्य मौरीटानिया ने इसराइल के साथ राजनयिक संबध स्थापित किए थे, लेकिन 2010 में संबंधों को तोड़ दिया। अरब देश और पूरी दुनिया के मुस्लिम समुदाय के इजरायल से खफा होने का कारण इजरायल की स्थापना और फलस्तीन से इजरायल का विवाद है।

यहूदी और फलस्तीन

14वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी के मध्य तक पूरे मध्य-पूर्व में शक्तिशाली ऑटोमन साम्राज्य रहा। यहूदी उस वक्त पूरी दुनिया में फैले थे। लेकिन यूरोप के कई देशों में यहूदियों का बड़े पैमाने पर नरसंहार किया गया। नतीजतन, 1890 के आसपास थियोडोर हर्जल नाम के एक यहूदी के नेतृत्व में यहूदियों के मन में स्वदेश की भावना जागी।

आज से करीब 3000 साल पहले फलस्तीन की धरती पर यहूदी साम्राज्य हुआ करता था। यहीं से यहूदी धर्म की शुरुआत हुई थी। नतीजतन, पूरी दुनिया में सताए जा रहे यहूदियों ने फलस्तीन की ओर रूख किया। इसी दौरान प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हो गया। हिटलर ने यहूदियों पर अत्याचार किये। ब्रिटेन ने एक समझौते के तहत फलस्तीन को यहूदियों का देश मान लिया। वहीं अरब देशों से भी वादा कर दिया कि फलस्तीन अरब देशों को दे दिया जाएगा।

यहीं से इजरायल-फलस्तीन विवाद का बीजारोपण हुआ। प्रथम विश्व युद्ध के बाद फलस्तीन ब्रिटेन के प्रभाव में आ गया। जब फलस्तीन में यहूदियों की संख्या बढ़ने लगी तो 1936 में स्थानीय अरब लोगों ने यहूदियों के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी।

कुछ समय बाद द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया। जिसमें जर्मनी में यहूदियों का बड़े पैमाने पर नरसंहार किया गया। हालात इस कदर डरावने हो गए कि पूरी दुनिया से यहूदी भागकर फलस्तीन (वर्तमान इज़रायल)पहुंच गए।

इजरायल का उदय

फलस्तीन में स्थानीय अरब लोगों और यहूदियों में टकराव जब बेकाबू हो गया तो मामला संयुक्त राष्ट्र पहुंचा। साल 1947 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने फलस्तीन का बंटवारा कर दिया। जिन इलाकों में मुस्लिम आबादी थी, वह हिस्सा फलस्तीन के पास रहा।

जिस इलाके में यहूदी आबादी बहुसंख्यक थी, वह हिस्सा इजरायल कहलाया। राजधानी यरुशेलम में मिश्रित आबादी थी, इसलिए यरुशलम को अन्तरराष्ट्रीय शहर घोषित कर दिया गया। दोनों देशों को यरुशलम पर समान अधिकार दिया गया।

पहला अरब-इजरायल युद्ध

फलस्तीन के बंटवारे पर अरब देशों में नाराजगी बढ़ गयी। इजरायल के अस्तित्व में आते ही 1948-49 में मिस्र, सीरिया, इराक और जॉर्डन जैसे अरब देशों ने इजरायल पर हमला कर दिया। इन अरब देशों की कोशिश थी कि इजरायल का अस्तित्व ही खत्म कर दिया जाए। लेकिन हुआ इसके बिल्कुल उल्टा। फलस्तीन के कई इलाकों पर जॉर्डन और मिस्र का कब्जा हो गया। फलस्तीन का ही अस्तित्व समाप्त हो गया।

दूसरा अरब-इजरायल युद्ध

मिस्र, जॉर्डन और सीरिया ने मिलकर 1967 में एक बार फिर इजरायल पर हमला बोला। यह लड़ाई सिर्फ 6 दिन 5 जून से 11 जून, 1967 तक चली। इज़रायल ने मिस्र को गाज़ा से, सीरिया को गोलन पहाड़ियों से और जॉर्डन को पश्चिमी तट और पूर्वी यरूशलम से धकेल दिया।

1973 में मिस्र और सीरिया ने अपने हिस्सों को वापस पाने के लिए फिर इजरायल पर हमला किया। यह लड़ाई मार्च 1974 तक जारी रही। इस लड़ाई के बाद मिस्र और इजरायल में एक समझौता हुआ जिसके तहत इजरायल ने मिस्र के जीते हुए हिस्सों पर अपना कब्जा हटा लिया।

इसके एवज में मिस्र ने इजरायल को एक अलग देश के रूप में मान्यता दे दी। मिस्र का बहिष्कार हुआ। मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सादात 19 नवम्बर , 1977 को यरुशलम पहुँच इज़रायल संसद में भाषण दिया।

sadat

सादात की हत्या

इसी समझौते के कारण ही इस्लामी चरमपंथियों ने 1981 में सादात की हत्या कर दी। फिर जॉर्डन ने 1994 में इस दिशा में क़दम बढ़ाया। लेकिन बाद में यह सिलसिला रूक गया था। जो अब ट्रंप की कोशिशों के चलते शुरू हुआ है।

कभी अमेरिका की पहल पर पहली बार व्हाइट हाउस में बिल क्लिंटन के दौर में इजरायली प्रधानमंत्री यित्जाक राबिन और फ़लस्तीनी नेता अराफ़ात को लोगों ने हाथ मिलाते देखा था।

इज़रायल एक मात्र यहूदी देश है। कुल जनसंख्या 85 लाख है। 19 वीं सदी तक फ़िलिस्तीन में 87 फ़ीसदी मुसलमान,10 फ़ीसदी इकाई और 3 फ़ीसदी यहूदी रहते थे। यह सौवाँ सबसे छोटा देश है।

भारत में 6 हजार यहूदी

भारत में भी 6 हज़ार यहूदी रहते हैं। यहूदी बच्चा जन्म किसी भी देश में ले पर उसे नागरिकता अपने आप इज़रायल की मिल जाती है। कोई यहूदी इज़रायल में आकर बसने को स्वतंत्र है। वहाँ लोकतंत्र है। पर संविधान लिखित नहीं। हिब्रू भाषा है। जिसे दायें से बांये की ओर लिखा जाता है।

इज़रायल की बोली में मराठी का अंश मिल सकता है। यहाँ की सेना में महिलाएँ भी हैं। 15 साल की उम्र में बच्चों का सैन्य प्रशिक्षण शुरू हो जाता है। परिवार के हर सदस्य को हथियार चलाना आता है।

इज़रायल का मूल मंत्र है कि यदि कोई हमारे देश के एक आदमी को मारेगा तो हम एक हज़ार को मार गिरायेंगे। आपरेशन ब्लैक सेप्टेंबर के बाद उसने यह कर दिखाया है। यह परमाणु संपन्न देश है।

मोसाद की ताकत

इज़रायल की ताक़त वहाँ की खुफिया एजेंसी मोसाद है। कारगिल युद्ध हो या फिर मुंबई हमला इन सब में इसएजेंसी ने भारत की मदद की।

पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर मोरारजी देसाई तक की विदेश नीति में इज़राइल के लिए जगह नहीं थी। ये नेता यह मानते थे कि इससे मुसलमान बिदक जायेगा। वह जेहाद बोल देगा।

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1977 में इज़रायल के विदेश मंत्री वोसे नियर भारत यात्रा पर आये थे। उनसे भारतीय नेताओं की मुलाक़ात अमावस की रात में सीरी फ़ोर्ट में हुई। उन दिनों एम जे अकबर कलकत्ता के अख़बार में संपादक थे। उनने कहीं से फ़ोटो छाप दी।

इज़रायल-भारत दोनों के बीच स्वास्तिक उंभयनिष्ठ है। यरूशलम जायें तो आपको अयोध्या याद हो उठेगी। पर नरेंद्र मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं जिनने इज़रायल की यात्रा की है।

इसलिए नहीं मिला इजरायल को महत्व

इज़रायल को महत्व न मिलने की वजह देश की विदेश नीति पर क्षेत्रीय दलों का प्रभावी प्रभाव होना रहा है। एनडीए व यूपीए या तीसरे मोर्चे की बात कहें कोई भी अपने बलबूते पर चुनाव में बहुमत साबित नहीं कर पाया।

क्षेत्रीय दलों की मजबूरी या उनकी सियासी ज़रूरत तुष्टिकरण उनकी राजनीतिक का सबसे धारदार हथियार है। नतीजतन इज़रायल के लिए जगह नहीं बन पाई।

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केंद्र की वर्तमान सरकार में सब बदला है। सरकार अल्पसंख्यक तुष्टिकरण से दूर रहती है। तो विदेश नीति को तो इससे अलग लग रखना लाज़िमी है। पर जिस तरह अरब देश इज़रायल को लेकर अपना नज़रिया बदल रहे हैं, उससे यह तय दिख रहा है कि यह ‘एलीमेन्ट’ ही सिरे से ग़ायब हो जायेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ।)

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