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हिन्दी का दुश्मन कौनः कब बनेगी रोजगार की जुबान, इसलिए चाहिए अंग्रेजी

अंग्रेज़ी भाषा बन कर सिर्फ़ ज़ुबान पर नहीं बल्कि स्टेट्स बन कर दिमाग़ पर छा गयी है। यह इससे समझा जा सकता है कि यदि कोई टूटी- फूटी हिंदी बोलता है तो उसे सम्मान की नज़र से देखा जाता है। जबकि कोई टूटी फूटी अंग्रेज़ी बोलने की कोशिश करता दिखे तो वह उपहास का पात्र बन जाता है।

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Published on: 12 Sept 2020 3:38 PM IST
हिन्दी का दुश्मन कौनः कब बनेगी रोजगार की जुबान,  इसलिए चाहिए अंग्रेजी
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Who is the enemy of Hindi: when will it become a source of employment

योगेश मिश्र

यह सवाल बहुत दुख देने वाला है। इस सवाल का जवाब और भी दुख देने वाला है। बहुत कम सवाल और जवाब दोनों दुख देने वाले होते हैं। प्राय: जब सवाल दुख देने वाला होता है तो जवाब सुखदायी होता है। लेकिन हिंदी के मामले में यह लागू नहीं होता। यदि हम हिंदी के दुश्मन तलाशने निकलें तो ऐसा लगेगा कि हम सब लोग किसी आइने वाली गली से गुजर रहे हैं। जिसके हर तरफ सिर्फ़ हमारा-अपना ही चेहरा नज़र आ रहा है। गुनहगार के सवाल पर हमेशा अपना ही चेहरा होने का दर्द समझा जा सकता है।

दुनिया में जो हैसियत अंग्रेजी की हमारे यहां हिन्दी की

यह तो रहा हिंदी के प्रचार प्रसार न हो पाने के कारणों का लब्बो लुबाब। पर यदि हम हिंदी के प्रचार प्रसार का काम करते नज़र भी आ जायें तो लगेगा कि गंजों के शहर में कंघी बेचने निकले हैं।

हालाँकि इस हक़ीक़त से आँख नहीं बंद की जा सकती है कि हिंदी की अपने देश में वही हैसियत है जो दुनिया में अंग्रेज़ी की है। यह नि:संदेह संपर्क भाषा है। पूरा का पूरा स्वतंत्रता संग्राम हिंदी में ही लड़ा गया।

तभी तो विदेश से तालीम लेकर आये मोहनदास करम चंद गांधी ने भारत आने के बाद यह घोषणा कर दी कि दुनिया से कह दो गांधी अंग्रेज़ी नहीं जानता।

जर्मन व अंग्रेज़ी पर समान अधिकार रखने वाले डॉ. राम मनोहर लोहिया को शायद ही किसी ने इन भाषाओं में बोलते सुना हो। ये कुछ उदाहरण हैं। सभी स्वतंत्रता संग्राम में जुटे लोगों ने हिंदी अपनाया। भले उनकी मातृभाषा चाहे जो रही हो।

हिन्दी से दूर करने की साजिश

लेकिन आज़ादी जैसे जैसे हमारे क़रीब आती गयी, वैसे वैसे कुछ मुट्ठी भर लोगों ने मिलकर हमको हिंदी से दूर करना शुरू कर दिया। संविधान सभा की बहसें इसकी गवाही देती हैं।

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2011 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार आज भी देश की 53 करोड़ आबादी हिन्दी भाषी है। दूसरी ओर अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या दो लाख साठ हजार, यानी मात्र .02 प्रतिशत है।

यानी, देश के 99.08 प्रतिशत भारतीय भाषाएं बोलने वालों पर .02 प्रतिशत लोग शासन कर रहे हैं। उनमें भी लगभग आधे लोग सिर्फ एक भाषा बोलते हैं जिसे हमारा संविधान राजभाषा कहता है।

अरे 0.2 फीसद ही हैं अंग्रेजी मातृभाषा वाले

सोचिये जिस देश में आज भी शून्य दशमलव दो फ़ीसदी लोग ही अंग्रेज़ी को अपनी मातृभाषा जनगणना के आँकड़ों में लिखवाते हैं। उसका संविधान अंग्रेज़ी में लिखा गया? बाद में हिंदी में उसका अनुवाद हुआ।

यही नहीं, जो देश गोरों से स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा था, उस देश के संविधान का मूल आधार, जिसे आप हम मिलकर आत्मा कह सकते हैं, पहले गोरों की संसद में पास हुआ?

ब्रिटिश इंडिया एक्ट-1935 वह दस्तावेज है। नि:संदेह गोरों की संसद से पास हुआ होगा तो हिंदी में नहीं अंग्रेज़ी में ही लिखा गया होगा।

संविधान का प्रारूप अंग्रेज़ी में बना था। संविधान की बहस अधिकांशतः अंग्रेज़ी में हुई। हिंदी के अधिकांश पक्षधर भी अंग्रेज़ी भाषा में ही बोले। यह बहस 12 सितंबर, 1949 को 4 बजे दोपहर में शुरू हुई। 14 सितंबर, 1949 को समाप्त हुई।

प्रारंभ में संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अंग्रेज़ी में ही एक संक्षिप्त भाषण दिया। उन्होंने कहा कि भाषा के विषय में आवेश उत्पन्न करने या भावनाओं को उत्तेजित करने के लिए कोई अपील नहीं होनी चाहिए।

भाषा के प्रश्न पर संविधान सभा का विनिश्चय समूचे देश को मान्य होना चाहिए। उन्होंने बताया कि भाषा संबंधी अनुच्छेदों पर लगभग तीन सौ या उससे भी अधिक संशोधन प्रस्तुत हुए।

संघ के प्रशासन की भाषा

14 सितंबर की शाम बहस के समापन के बाद जब भाषा संबंधी संविधान का तत्कालीन भाग 14 क और वर्तमान भाग 17, संविधान का भाग बन गया तब डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपने भाषण में बधाई के कुछ शब्द कहे। उन्होंने तब कहा था, ‘आज पहली ही बार ऐसा संविधान बना है जब कि हमने अपने संविधान में एक भाषा रखी है, जो संघ के प्रशासन की भाषा होगी।‘

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उन्होंने कहा, ‘इस अपूर्व अध्याय का देश के निर्माण पर बहुत प्रभाव पड़ेगा।‘ उन्होंने इस बात पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की कि संविधान सभा ने अत्यधिक बहुमत से भाषा-विषयक प्रावधानों को स्वीकार किया।

अपने वक्तव्य के उपसंहार में उन्होंने कहा – ‘यह मानसिक दशा का भी प्रश्न है जिसका हमारे समस्त जीवन पर प्रभाव पड़ेगा। हम केंद्र में जिस भाषा का प्रयोग करेंगे उससे हम एक-दूसरे के निकटतर आते जाएँगे।

अंग्रेजी से हम निकटतर आए

आख़िर अंग्रेज़ी से हम निकटतर आए हैं, क्यों कि वह एक भाषा थी। अंग्रेज़ी के स्थान पर हमने एक भारतीय भाषा को अपनाया है। इससे अवश्यमेव हमारे संबंध घनिष्ठतर होंगे, विशेषतः इसलिए कि हमारी परंपराएँ एक ही हैं, हमारी संस्कृति एक ही है।

हमारी सभ्यता में सब बातें एक ही हैं। अतएव यदि हम इस सूत्र को स्वीकार नहीं करते तो परिणाम यह होता कि या तो इस देश में बहुत-सी भाषाओं का प्रयोग होता या वे प्रांत पृथक हो जाते जो बाध्य होकर किसी भाषा विशेष को स्वीकार करना नहीं चाहते थे।

हमने यथासंभव बुद्धिमानी का कार्य किया है। मुझे हर्ष है, मुझे प्रसन्नता है और मुझे आशा है कि भावी संतति इसके लिए हमारी सराहना करेगी।‘

आयंगर-मुंशी फ़ार्मूला

-संविधान-सभा की भाषा-विषयक बहस लगभग 278 पृष्ठों में छपी है। भाषा-विषयक समझौते की बातचीत में डॉ. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी एवं गोपाल स्वामी आयंगार की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही।

यह सहमति हुई कि संघ की भाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी, किंतु देवनागरी में लिखे जाने वाले अंकों तथा अंग्रेज़ी को 15 वर्ष या उससे अधिक अवधि तक प्रयोग करते रहने के बारे में बड़ी लंबी बहस हुई।

अंत में आयंगर-मुंशी फ़ार्मूला भारी बहुमत से स्वीकार हुआ। वास्तव में अंकों को छोड़कर संघ की राजभाषा के प्रश्न पर अधिकांश सदस्य सहमत हो गए।

अंकों के बारे में भी यह स्पष्ट था कि अंतरराष्ट्रीय अंक भारतीय अंकों का ही एक नया संस्करण है। कुछ सदस्यों ने रोमन लिपि के पक्ष में प्रस्ताव रखा, किंतु देवनागरी के पक्ष में ही अधिकांश सदस्यों ने अपनी राय दी।

गोपाल स्वामी आयंगर

-संविधान सभा में गोपाल स्वामी आयंगर ने अपने भाषण में यह स्पष्ट कह दिया था कि हमें अंग्रेज़ी भाषा को कई वर्षों तक रखना पड़ेगा।

लंबे समय तक उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में भी सभी कार्यवाहियाँ, अंग्रेज़ी भाषा में ही होंगी एवं अध्यादेशों, विधेयकों तथा अधिनियमों के प्राधिकृत पाठ अंग्रेज़ी भाषा में ही होंगे।

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जवाहरलाल नेहरू

-पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में 13 सितंबर, 1949 को बहस में भाग लेते हुए यह रेखांकित किया था कि यद्यपि अंग्रेज़ी से हमारा बहुत हित साधन हुआ है। इसके द्वारा हमने बहुत कुछ सीखा है तथा उन्नति की है, ‘किसी विदेशी भाषा से कोई राष्ट्र महान नहीं हो सकता।‘

उन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की सोच को आधारभूत मानकर कहा कि विदेशी भाषा के वर्चस्व से नागरिकों में दो श्रेणियाँ स्थापित हो जाती हैं, ‘क्यों कि कोई भी विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं हो सकती।‘ उन्होंने महात्मा गांधी के दृष्टिकोण को प्रतिपादित करते हुए कहा, ‘भारत के हित में, भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के हित में, ऐसा राष्ट्र बनाने के हित में जो अपनी आत्मा को पहचाने, जिसे आत्मविश्वास हो, जो संसार के साथ सहयोग कर सके, हमें हिंदी को अपनाना चाहिए।‘

श्यामाप्रसाद मुखर्जी

-डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने बहस में भाग लेते हुए हिंदी भाषा और देवनागरी का राजभाषा के रूप में समर्थन किया। भारतीय अंकों के अंतरराष्ट्रीय अंकों को मान्यता देने के लिए अपील की। उन्होंने इस निर्णय को ऐतिहासिक बताते हुए संविधान सभा से अनुरोध किया कि वह ‘इस अवसर के अनुरूप निर्णय करे। अपनी मातृभूमि में राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में वास्तविक योग दे।‘

उन्होंने कहा कि अनेकता में एकता ही भारतीय जीवन की विशेषता रही है। इसे समझौते तथा सहमति से प्राप्त करना चाहिए। उन्होंने कहा कि हम हिंदी को मुख्यतः इसलिए स्वीकार कर रहे हैं कि इस भाषा के बोलनेवालों की संख्या अन्य किसी भाषा के बोलनेवालों की संख्या से अधिक है - लगभग 32 करोड़ में से 14 करोड़ (1949 में)। उन्होंने अंतरिम काल में अंग्रेज़ी भाषा को स्वीकार करने के प्रस्ताव को भारत के लिए हितकर माना। उन्होंने अपने भाषण में इस बात पर बल दिया और कहा कि अंग्रेज़ी को हमें ‘उत्तरोत्तर हटाते जाना होगा।‘

साथ ही उन्होंने अंग्रेज़ी के आमूलचूल बहिष्कार का विरोध किया। उन्होंने कहा, ‘स्वतंत्र भारत के लोगों के प्रतिनिधियों का कर्तव्य होगा कि वे इस संबंध में निर्णय करें कि हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को उत्तरोत्तर किस प्रकार प्रयोग में लाया जाए और अंग्रेज़ी को किस प्रकार त्यागा जाए।‘

बहस संविधान सभा और हिंदी भाषा

14 सितंबर , 1949 को स्वतंत्र भारत की संविधान सभा ने संविधान के अनुच्छेद 343 में देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी को राजभाषा का दर्जा प्रदान कर दिया।

यह निर्णय लिया गया कि आंकिक प्रणाली को छोड़कर सभी राजकाज हिंदी भाषा में ही किए जाएं। भारत के संविधान की आठवीं सूची में में स्वीकृत भाषाओं की संख्या 23 हैं।

इसी के साथ यह भी जोड़ दिया गया कि पंद्रह सालों तक अंग्रेज़ी अभी व्यवहार में रहेगी। यह वह फ़ैसला था जिसने हिंदी के पैरों में बेड़ियाँ डालकर कहा कि दौडो। यह दृश्य नई शिक्षा नीति में देखा जा सकता है।

नई शिक्षा नीति

राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अध्याय 4.11 के अनुसार “जहाँ तक संभव हो, कम से कम ग्रेड-5 तक लेकिन बेहतर यह होगा कि यह ग्रेड-8 और उससे आगे तक भी हो, शिक्षा का माध्यम, घर की भाषा/मातृभाषा/स्थानीय भाषा/क्षेत्रीय भाषा होगी।

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इसके बाद घर/स्थानीय भाषा को जहां भी संभव हो भाषा के रूप में पढ़ाया जाता रहेगा। सार्वजनिक और निजी दोनो तरह के स्कूल इसका अनुपालन करेंगे।” राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने हिन्दी के संबंध में किसी तरह का स्पष्ट निर्देश न देकर, हिन्दी परिवार को विखंडन की आग में झोंकने का काम किया है। हमारे संविधान द्वारा प्रस्तावित त्रिभाषा फार्मूला एक ऐसा प्रावधान है जिसके साथ हिन्दी क्षेत्र ने हमेशा से बेईमानी की है।

अंग्रेजी का दबदबा

रोज़गार पर अंग्रेज़ी का दबदबा है। किसी भी रोज़गार के लिए अंग्रेज़ी ज़रूरी है। सुप्रीम कोर्ट से लेकर 25 में से 21 हाई कोर्टों में एक भी भारतीय भाषा का प्रयोग नहीं होता ऐसी दशा में अपने बच्चों को अंग्रेजी न पढ़ाने की मूर्खता कोई कैसे कर सकता है ?

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अंग्रेज़ी भाषा बन कर सिर्फ़ ज़ुबान पर नहीं बल्कि स्टेट्स बन कर दिमाग़ पर छा गयी है। यह इससे समझा जा सकता है कि यदि कोई टूटी- फूटी हिंदी बोलता है तो उसे सम्मान की नज़र से देखा जाता है। जबकि कोई टूटी फूटी अंग्रेज़ी बोलने की कोशिश करता दिखे तो वह उपहास का पात्र बन जाता है।

भाषा का महत्व ही किसी देश की प्रगति व समृद्धि की पहचान होती है। इसी से यह भी पता चलता है कि हम अपने देश को कितना प्रेम करते हैं। हमारे साथ आज़ाद हुए कई देशों ने हमसे अधिक प्रगति कर ली।

इन्हें रहा अपनी भाषा पर गर्व

इसके कारणों की पड़ताल करते हैं तो हमें एक यह तथ्य हाथ लगता है कि इन देशों ने अपनी भाषा पर गर्व किया। अपनी भाषा को अध्ययन, अध्यापन व रोज़गार की भाषा बनाया। पर हमारे अंदर भाषा को लेकर यह बोध आज़ादी के आंदोलन के बाद मर गया।

सोवियत संघ में स्टॉलिन का काल था। जवाहर लाल नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित राजदूत बनाकर भेजी गयीं। उन्होंने अंग्रेज़ी में अपना परिचय पत्र भेजा। स्टॉलिन ने उसे स्वीकार करने से मना कर दिया। परंतु यह भी पूछ लिया कि आपके देश की कोई अपनी भाषा नहीं है क्या?

यह आम तौर पर हम करते हैं। तमाम विदेशी मेहमानों से हम अंग्रेज़ी में बात करते हैं, यह जानते हुए भी कि उनके यहाँ अंग्रेज़ी नहीं बोली जाती। दोनों के बीच दुभाषिया काम कर रहा है। यदि दुभाषिया है तो हम हिंदी में बोलकर भी काम चला सकते हैं।

मुझे कोई अनुवादक नहीं मिला

पर हमारा भाषा प्रेम आज़ादी के बाद मर चुका है। एक बार हमें इजिप्ट के कैरो में ई-९ देशों के एक यूनेस्को द्वारा आयोजित दो दिवसीय वर्क शाप में भाग लेने का अवसर भारत की ओर से मिला था।

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तब डॉ. मुरली मनोहर जोशी देश के मानव संसाधन मंत्री थे। हमने देखा सभी देशों के लोग अपनी अपनी भाषा में अपना पेपर लेकर आये थे। सब अपनी ही भाषा में अपनी बात रख रहे थे। पर मेरी तैयारी तो अंग्रेज़ी में थी।

हमारा नंबर थोड़ी देर में आने वाला था। सबको अपनी भाषा में बात करके देख हमें बहुत झेंप आ रही थी कि मैं अंग्रेज़ी में बोलूँगा तो लोग क्या कहेंगे।

उस समय बिहार के एक सिंह साहब वहाँ हमारे देश के आईएफ़एस तैनात थे। मैंने उनसे कहा कि मैं हिंदी में बोलना चाहता हूँ। क्या यह संभव है। उन्होंने बताया कि यहाँ हिंदी का कोई अनुवादक नहीं है क्योंकि हमने अंग्रेज़ी में बोलने का विकल्प दिया था।

अंत में इसलिए चाहिए अंग्रेजी

नतीजतन , कोई व्यवस्था नहीं की गयी। पर मैं देखता हूँ। भगवान का शुक्रगुज़ार की उन्हें अपने दूतावास में ही एक आदमी मिल गया।

दस जनवरी को पूरा विश्व हिंदी दिवस मनाता है। हम 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाते हैं। इसी से उजागर होता है कि हम हिंदी के मामले में विश्व के साथ कदम मिलाकर चलने को तैयार नहीं हैं।

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1918 में गांधी जी ने हिंदी साहित्य सम्मेलन के एक कार्यक्रम में कहा था कि हिंदी जनता की भाषा है। जो जनता है वही तो हिंदी बोलेगी। अपनायेगी। जनता कौन है, कितनी है, यह किसी से छिपा नहीं है। जो जनता छाप रोज़गार चाहेगा उसके काम हिंदी आयेगी। जो इससे ऊपर निकलने के ख़्वाहिशमंद हैं, उनके लिए हिंदी नहीं, अंग्रेज़ी। अंग्रेज़ी।

( लेखक न्यूज़ ट्रैक/अपना भारत के संपादक हैं।)

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