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नहीं भूले लालू-राबड़ी का जंगलराज, इसीलिए भारी पड़ा BJP-नीतिश का गठजोड़

टीवी पर दिख रही ज़बरदस्त भीड़ के बावजूद, तेजस्वी के ऊपर नीतिश कुमार और बीजेपी के गठजोड़ का भारी पड़ना ये साफ़ इशारा करता है कि लालू-राबड़ी परिवार के पंद्रह साल के जंगलराज को बिहार के लोग भूले नहीं हैं।

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Published on: 12 Nov 2020 2:06 PM GMT
नहीं भूले लालू-राबड़ी का जंगलराज, इसीलिए भारी पड़ा BJP-नीतिश का गठजोड़
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नहीं भूले लालू-राबड़ी का जंगलराज, इसीलिए भारी पड़ा BJP-नीतिश का गठजोड़

प्रमिला दीक्षित

'जैसे हर चमकने वाली चीज़ सोना नहीं होती, वैसे हर रैली की भीड़ वोट नहीं होती' ये बात बिहार के चुनाव नतीजों से आरजेडी के अध्यक्ष और लालू यादव के बेटे तेजस्वी यादव को अच्छे से समझ में आ गई होगी। टीवी पर दिख रही ज़बरदस्त भीड़ के बावजूद, तेजस्वी के ऊपर नीतिश कुमार और बीजेपी के गठजोड़ का भारी पड़ना ये साफ़ इशारा करता है कि लालू-राबड़ी परिवार के पंद्रह साल के जंगलराज को बिहार के लोग भूले नहीं हैं। और केंद्र सरकार की योजनाओं को आख़री पायदान पर खड़े आख़री आदमी तक पहुँचाने का मोदी सरकार का दावा कारगर साबित हो रहा है।

बिहार कर रहा बदलाव की तैयारी

बिहार ने पिछले चुनाव में भी एग्ज़िट पोल करने वालों को ग़लत साबित कर दिया था, और इस बार भी ग़लत साबित यही हुआ। एक लाइन से सब एग्ज़िट पोल ये बता रहे थे कि बिहार में महागठबंधन की लहर है, तेजस्वी यादव को बिहार के लोगों ने नेता के तौर पर स्वीकृति दे दी है। लालू यादव के जंगलराज के नाम से लोगों में अब डर नहीं है और बिहार बदलाव की तैयारी कर रहा है - वोटर बाहर निकला तो सारी बातें धरी की धरी रह गईं। ऐसे में बीजेपी और नीतिश का ये दावा, कि उनका वोटर आरजेडी के आक्रामक वोटर जैसे खुल कर बोलने नहीं आता केवल वोटिंग के समय अपना काम कर देता है, सही महसूस होता है।

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नीतिश सरकार के ख़िलाफ़ सत्ता विरोधी लहर

लेकिन जब पंद्रह साल की सरकार के बाद कोई राजनीतिक दल या गठबंधन चुनाव में उतरता है - तो क्या सिर्फ़ अपने कोर वोटर के भरोसे चुनाव जीत सकता है ? नहीं। और बिहार चुनाव का नतीजा इस बात को साबित भी करता है, कि राज्य की नीतिश सरकार के ख़िलाफ़ एंटीइनकम्बेंसी यानि सत्ता विरोधी लहर थी। लेकिन सीट बँटवारे में पासवान की एलजेपी को बाहर का रास्ता दिखा कर, बीजेपी के खाते से नीतिश के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीरें लगा कर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों के ज़रिए राज्य की सरकार के बजाए केंद्र के काम ज़ोर-शोर से गिना कर एनडीए गठबंधन ने एक बार फिर बाज़ी मार ही ली।

नतीजे बताते हैं, नीतिश अपने दम पर बिहार में फिर सरकार बनाने में असमर्थ

जेडीयू को हुआ 28 सीट का नुक़सान इस बात की तस्दीक़ करता है कि नीतिश अपने दम पर बिहार में चौथी बार सरकार खींच पाने की स्थिति में नहीं थे, और बीजेपी को 21 सीट के फ़ायदे से ये बात तय दिखती है कि मोदी-नाम के सहारे बिहार की राजनीति में पार्टी ने अपनी पैठ मज़बूत कर ली है।

यहाँ ये बात भी दिलचस्प है कि नीतिश कुमार के रहते, बिहार में बीजेपी ने कभी अपना मज़बूत स्थानीय नेतृत्व या सेकंड लाइन ऑफ लीडरशिप खड़ी नहीं की, जिसके नाम पर जनता से वोट माँगा जा सके. सुशील मोदी कभी डिप्टी सीएम की अनुकंपा नियुक्ति की छाया से बार नहीं निकल पाए। गिरिराज सिंह के बड़बोलेपन की वजह पार्टी उन्हें आगे बढ़ाने से डरती रही।

पार्टी को अब करनी होगी तैयारी

नित्यानंद राय, राजीव प्रताप रूडी, शाहनवाज़ हुसैन - सबका इस्तेमाल केवल चुनाव के समय में रैलियाँ कराने के लिए हुआ, संगठन को नेतृत्व देने के लिए किसी को तैयार नहीं किया गया। इसकी तैयारी पार्टी को अब करनी होगी, जब उम्र के इस पड़ाव पर नीतिश कुमार ने खुद आख़री दौर के चुनाव प्रचार में ऐलान कर दिया था कि ये उनका आख़री चुनाव होगा. सेकेंड लाइन के नेता की समस्या नीतिश की पार्टी में भी है - और बीजेपी को अब उसी वैक्यूम का लाभ ले कर अपना चेहरा खड़ा करने के लिए कमर कस लेनी चाहिए।

...तो जेडीयू ये सीटें जीत सकती थी

मौसम वैज्ञानिक कहे जाने वाले रामबिलास पासवान की पार्टी ने जब सीट बँटवारे के नाम पर एनडीए गठबंधन से बिहार में रिश्ता तोड़ा तो लोगों को लगा था कि इनका आकलन गलत नहीं हो सकता। ये अगर अलग हो रहे हैं तो पक्का नीतिश की सरकार जा रही है. लेकिन 29 ऐसी सीटें हैं जहां ये कहा जा सकता है कि एलजेपी की वजह से जेडीयू चुनाव हार गई. इनमें 23 सीट ऐसी हैं जहां आरजेडी ने चुनाव जीता और 6 ऐसी जहां कांग्रेस जीत गई। इन 29 में 27 सीटों पर जेडीयू दूसरे नंबर की पार्टी है, जहां हार-जीत के वोट का अंतर एलजेपी को मिले वोटों से कम है. मने साथ में होते - तो जेडीयू ये सीटें जीत सकती थी।

फोटो - प्रमिला दीक्षित ( स्वतंत्र पत्रकार )

इसीलिए जेडीयू के नेता अब ये खुल कर कहने लगे हैं कि चिराग़ पासवान ने पीठ में छुरा घोंपा है। ऐसे दौर में जब एनडीए पर लगातार ये आरोप लग रहा है कि उसके साथी छिटकते जा रहे हैं - आने वाले दिनों में केंद्र में भी एलजेपी का साथ छूट जाए तो बड़ा बात नहीं होगी, भले ही चिराग़ पासवान ये कहते रहें कि वो मोदी के हनुमान हैं, सीना चीरेंगे तो मोदी ही दिखाई देंगे.

मुसलमानों का नेता बनने की दिशा में ओवैसी का एक और कदम

इस चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की मजलिस ए इत्तिहादुल मुस्लिमीन ने पाँच सीटें जीत ली हैं. हैदराबाद से निकल देश भर में मुसलमानों का नेता बनने की दिशा में ओवैसी का ये एक और कदम है. ज़ाहिर है, कांग्रेस और अन्य तथाकथित सेक्युलर पार्टी होने का दम भरने वालों को ओवैसी का बढ़ना चुभेगा. और जब तक ओवैसी खुद के दम पर मुसलमानों के एकछत्र नेता या पार्टी के तौर पर स्थापित नहीं हो जाते तब तक यही कहा जाएगा कि वो बीजेपी की बड़ी टीम हैं।

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बिहार के बाद बंगाल की तरफ ओवैसी का रुख

क्योंकि जहां जहां मुस्लिम बहुल सीट पर वो चुनाव लड़ेंगे वहाँ-वहाँ महागठबंधन या कांग्रेस जैसी ही किसी पार्टी को नुक़सान पहुंचाएंगे और फ़ौरी लाभ बीजेपी को मिलेगा. इसलिए बिहार के नतीजे के बाद बंगाल में चुनाव लड़ने का ओवैसी का ऐलान ममता बनर्जी और कांग्रेस दोनों को चिंता में डाल रहा होगा. बंगाल के चुनाव के पहले बिहार की इस जीत से ओवैसी की ‘बारगेनिंग पॉवर’ बढ़ गई है.

और आख़री बात तेजस्वी यादव के लिए, जिनको देश के राजनीतिक पंडितों ने चुनावी क्रिकेट का महेंद्र सिंह धोनी घोषित कर दिया था, उनकी अगुवाई में पार्टी ने पिछली बार की बजाए कम सीटें जीती हैं. 2015 में आरजेडी ने 101 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 80 सीटें जीती थीं. इस बार के चुनाव में आरजेडी 144 सीटों पर चुनाव लड़ी और 75 सीटें जीतीं. यानि इस बार लड़े ज्यादा पर और जीते पिछली बार से कम.

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...एनडीए की बढ़त का मतलब, कुछ न कुछ घोटाला

देर रात तक चुनाव आयोग प्रेस कांफ्रेंस कर के नतीजों के बारे में अपडेट देता रहा तो उसकी एकमात्र वजह सिर्फ वोटों की गिनती में होने वाली देरी नहीं थी. उसकी वजह, आरजेडी की तरफ़ से दोपहर से बनाया जा रहा दबाव भी था - क्योंकि दोपहर से ही ये माहौल बनाया जाने लगा था कि जीतना तो महागठबंधन को था, एनडीए की बढ़त का मतलब - कुछ न कुछ घोटाला है. और हैरानी की बात ये कि जो लोग डॉनल्ड ट्रंप के ऐसे ही आरोपों पर उनकी प्रेस कांफ्रेंस बैन करने वाले टीवी चैनलों की जयजयकार कर रहे थे - वही लोग आरजेडी के ऐसे आरोपों पर चीयरलीडर्स बने हुए थे. समझे कुछ ?

नोट- प्रमिला दीक्षित स्वतंत्र पत्रकार हैं, लगभग डेढ़ दशक तक आजतक न्यूज़ चैनल में काम करने के बाद अब स्वतंत्र लेखन करती हैं.

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