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तीसरी सरकार, नहीं दरकार, हर तरफ लूटखसोट और भ्रष्टाचार

आज किसी से पूछिये कि उत्तर प्रदेश में पंचायत के चुनाव कराने का क्या औचित्य था?

Yogesh Mishra
Published on: 6 May 2021 6:10 PM IST (Updated on: 7 May 2021 7:42 PM IST)
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फोटो— (साभार— सोशल मीडिया)

आज किसी से पूछिये कि उत्तर प्रदेश में पंचायत के चुनाव कराने का क्या औचित्य था? हर आदमी बिना समय लगाये कह देगा कि चुनाव नहीं होने चाहिए थे। हालाँकि आज जो लोग पंचायत चुनाव कराने के उत्तर प्रदेश सरकार के फ़ैसले को तुग़लक़ाबादी बता रहे हैं। उनका तर्क यह है कि पंचायत चुनाव नहीं होते तो कोरोना गाँव—गाँव नहीं पहुँचता। कोरोना की इतनी भयावहता नहीं दिखती। पंचायत चुनावों में ड्यूटी दे रहे कई सौ लोग संक्रमित होकर नहीं मरते। लेकिन हम इसके अलावा पंचायतों के चुनाव, पंचायतों के वर्तमान स्वरूप की अनिवार्यता को समाप्त करने की बात अन्य कई कारणों से कर रहे हैं।

अब तक डॉक्टर की पत्नी डॉक्टराइन, मास्टर की मास्टराइन , सेठ की सेठाइन आदि हो ज़ाया करती थीं। पर अब प्रधान पति, बीडीसी पति होने लगे हैं। हद तो यह है कि बीडीओ, सीडीओ ही नहीं ज़िलाधिकारी तक की बैठक में पति शामिल होते है। कुछ ज़िलाधिकारियों ने साहस दिखाया की चुनी हुई प्रतिनिधि ही बैठक में शिरकत करें। तो उन्हें विरोध झेलना पड़ा। यदि दबाव में महिला प्रतिनिधि आयीं तो हाथ भर का घूँघट या फिर हर सवाल का जवाब देने से पहले बाहर खड़े पति से गुफ़्तगू ज़रूरी हो जाता है।

संसदीय प्रणाली की तरह पंचायत चुनावों के कराये जाने के चलते चुनाव प्रणाली के दोष हर स्तर पर दिखाई पड़ ही जाते हैं। चौखंभा राज की बात करने वाले डॉ. राम मनोहर लोहिया जी रहे हों या गाँव की सरकार की बात करने वाले जयप्रकाश नारायण जी इनमें से सब ने इस चुनाव प्रणाली को पंचायतों के लिए अप्रासंगिक बताते हुए वैकल्पिक चुनाव प्रणाली का सुझाव दिया था। जिस पर अमल नहीं किया गया। नतीजतन, गाँव की सरकार गाँव में वैमनस्य फैलाने व भ्रष्टाचार बढ़ाने के काम आने लगी।

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जब हम बच्चे थे तब भी गाँव में प्रधान व सरपंच होते थे। सरपंच गाँव का कोई मानिंद बुजुर्ग आदमी होता था। ताकि उसकी बात सब लोग मान लें। स्वीकार कर लें। उससे भी न्याय की उम्मीद की जाती थी। वह न्याय करता भी था। करते हुए दीखता भी था। गाँव के तमाम मामले सरपंच की राय से हल हो जाते थे।पंच ग्राम पंचायतों से ऊपर के होते थे। कई गाँव मिलाकर न्याय पंचायत हुआ करती थी।

भारतीय दंड संहिता की 39 धाराओं के मामले न्याय पंचायत सुन सकती थी। पंच अपने में से सरपंच चुनते थे। 1972 में सरकार ने यह व्यवस्था ख़त्म कर दी। हालाँकि इसके लिए तीसरी सरकार के पैरोकार चंद्रशेखर प्राण ने काफ़ी मशक़्क़त का। काफ़ी ख़तों किताबत की। पर सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी।

पंचायत व्यवस्था इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि गाँव के लोग नहीं चाहते कि पुलिस व हाकिम गाँव में हस्तक्षेप कर के गाँव में गुटबंदी को बढ़ावा दें। गाँव का शोषण करें। अभी पंचायत चुनावों को देखिये तो उम्मीदवारों के आश्वासनों से आँखें चौधियां जाती हैं।

कोई चाँद पर प्लाट दिला रहा है। कोई हर नौजवान को नौकरी का आश्वासन बाँट रहा है। कोई मंगलसूत्र। कोई अपना चुनाव चिह्न, कोई चारों धाम यात्रा करवा रहा है, कोई हज कराने की शपथ लेते हुए दिख रहा है। अगर चुनाव के दौर में गाँव में किसी की शादी वग़ैरह पड़ जा रही है तो पूछिये मत हर उम्मीदवार किसी न किसी काम का ज़िम्मा ले ले रहा है। चुनाव के दौर में उम्मीदवारों ने शहर में जाकर बस गये गाँव के लोगों को आने जाने व रूकने के खर्च वहन करने के भरोसे के साथ बुलवा रखा है। खेत की जुताई व बुआई इन दिनों मुफ़्त में हो जा रही है।

एक अनुमान के मुताबिक़ शराब की बिक्री में इस दौरान साठ फ़ीसदी का उछाल आया है। जबकि डीज़ल व पेट्रोल की खपत चालीस फ़ीसदी बढ़ गयी। गाँव में घुस जाइये तो मांस व शराब की गंध आपको कई तरह से परेशान कर देती है। जीतने वाले उम्मीदवारों की दौड़ में शामिल हर आदमी कम से कम पाँच लाख तो खर्च करता ही है। आप यह सोचने पर मजबूर हो सकते हैं कि बाप रे बाप लोकतंत्र का यह घिनौना स्वरूप? गाँव में मुफ़्तख़ोरी इतनी? गाँव में शाकाहार व मद्यनिषेध अप्रासंगिक हो उठा है? जो बचे भी हैं वे अलग थलग हैं।

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सेवा निवृत्ति के बाद पिताजी को लगा कि गाँव में प्रधान का चुनाव लड़ कर गाँव के विकास में जुटा जाये। अपनी पूरी नौकरी के दौरान शहर में उन्होंने कोई रिहायश नहीं बनाई थी। वह शहर में रहने के विरोधी थे। यह विरोध इस हद तक था कि मेरी पाँच बहनों में किसी की शादी उनने बिना गाँव वालों से नहीं की। निखालिस शहर से उन्हें परहेज़ था। वह कहते गाँव के लोगों की इज़्ज़त होती है। उन्हें इज़्ज़त का भय होता है। इसलिए तमाम अपकर्मों से वे खुद को बचा कर रखते है। साल तो नहीं याद, इस साल पिताजी के बिना ज़िंदगी दस साल पूरे कर रही है, पर यह याद है कि पिताजी प्रधानी का चुनाव लड़ गये। गाँव के कुछ लोगों ने हमें राय दी कि दस बारह लोगों को एक एक हज़ार रूपये दे दिये जायें तो हमारा चुनाव निकल जायेगा। मैंने पिताजी से पूछना ज़रूरी समझा। वह बोले, ''ना, ना, गाँव में हम पैसा देकर जीतेंगे तो गाँव वालों को हम फ़ेस कैसे करेगें। गाँव के लोग हमारे बंधु बांधव हैं, उनके साथ ख़रीद फ़रोख़्त का रिश्ता। क़तई नहीं। चुनाव हारना अच्छा है इससे।"

पिताजी तीन चार वोट से हार गये। गाँव के लोग दोबारा मतगणना के लिए दबाव डाल रहे थे। एक उपजिलाधिकारी देवी शंकर जी इंचार्ज थे। हमारे मधुर संबंध थे। वह मन बना रहे तब तक कांग्रेस नेता आरपीएन सिंह जी मंडप में आये। उनके आते ही एसडीएम जी के तेवर बदल गये। आरपीएन जी मुसलमान उम्मीदवार की जीत तय कर गये। हालाँकि राज्य सरकार ने मेरे पिताजी की सेवाओं को देखते हुए पिपरा बाज़ार से विशुनपुरा विकासखंड तक की सड़क नई बना कर उनके नाम कर दी। वह सेना में रहे। वह ड्रामा में देश के गिने चुने लोगों में शुमार रहे।

आज जब चुनाव के दौरान मैं गाँव जाता हूँ तो देखता हूँ, पाता हूँ, कि यदि चार पाँच उम्मीदवार लड़ रहे हैं तो हर घर में सबसे पैसा लेकर वोट बाँट दिया जाता है। वोट बिकता है यह साफ़ दिखता है। पंचायत चुनावों ने व्यक्तिगत रंजिश को बहुत हवा दे डाली है। हारे हुए उम्मीदवार पाँच साल तक जीते उम्मीदवार की जड़ खोदते रहते हैं। आरटीआई लगाते रहते है। ग़लत, सही नाम से शिकायतें ग्राम विकास अधिकारी से लेकर मुख्यमंत्री तक करते रहते हैं।

जब तक यह पंचायत राज नहीं आया था। तब तक गाँवों में शादी ब्याह में टेंट वाले की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। गाँव के लोगों की चारपाई, गद्दा, रज़ाई, चद्दर, तकिया, लोटा, बाल्टी व पत्तल से काम चल जाता था। गाँव के कुछ लोग भोजन बनाने में दक्ष होते थे, कुछ भोजन परोसने में प्रवीण, गाँव की महिलायें मिलकर पूड़ी बेलती थीं। गाँव की महिलायें ही मिलकर गारी गाती थीं। बारात विदा होने वाले तीसरे दिन मिलना जिसमें गाँव का हर आदमी रुपया, दो रुपया, चार रुपया लेकर मिलना करने पहुँचता था।

किसी के मर जाने पर कोई जलावन के लिए किसी का पेड़ काटने को स्वतंत्र था। लकड़ी ख़रीद कर अंत्येष्टि नहीं होती थी। जब तक गाँव में किसी भी बिरादरी के किसी शख़्स का शव होता था गाँव के लोग भोजन नहीं करते थे। महज़ बच्चों को छूट थी। गाँव में किसी का रिश्तेदार सबका रिश्तेदार होता था। रिश्ते के हिसाब से हंसी ठिठोली व गाली गलौज का रिश्ता पूरे गाँव का होता था।

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गाँव का जो बड़ा आदमी खुद को बताता व जताता था उसकी ज़िम्मेदारी होती थी कि अपने खाने से पहले गाँव में घूम कर देख लें पूछ लें कि किसके घर से धुँआ निकला था या नहीं। आग जली थी या नहीं। मुझे बचपन के दिन याद याद आते हैं, बाबा यह करते थे। जिसके यहाँ चूल्हा नहीं जला होता था। उसे राशन पताई दिया जाता था। गाँव में कोई भूख से नहीं मरता था। गाँव के लड़के—लड़कियाँ भाई—बहन होते थे।

पर पंचायत राज के चुनाव ने सब ख़त्म कर दिया। पुराने सामूहिक जीवन दर्शन पर पलीता लगा दिया। अब गाँव में वैमनस्य, कटुता पसरी हुई है। गाँव के लड़के—लड़कियाँ भी ब्रदर सिस्टर हो गये है। मेरे गाँव के प्रधान का डुंगल ग्राम विकास अधिकारी के पास था। प्रधान अपने पत्नी की दवा कराने गया था। ग्राम विकास अधिकारी ने चुनाव से ठीक पहले गाँव में आये पैसों को निकाल लिया।

प्रधान जी चाहते थे मैं मामले की जाँच करा दूँ। पर वह डुंगल देकर हाथ कटवा चुके थे।तब कुछ नहीं हो पाया। पर प्रधान ने यह रहस्योद्घाटन किया कि उसे गाँव में विभिन्न योजनाओं के मद में आये पैसों में तैतालीस फ़ीसदी कमीशन है। इंजीनियर, ग्राम विकास अधिकारी व बीडीएल के हिस्से पंद्रह फ़ीसदी चला जाता है। दस फ़ीसदी लखनऊ के नाम पर देना पड़ता है। बाक़ी पैसे पीडी, सीडीओ, डीडीओ व ज़िलाधिकारी के हिस्से जाता है।

मैं यह नहीं कह सकता कि यह कितना सच है। ये अफ़सर पाते हैं या नहीं। पर बीडीओ, इंजीनियर व ग्राम विकास अधिकारी इन्हीं के नाम पर और इन्हीं मदों में प्रधान से पैसा वसूलते है। शायद यही वजह है कि ग्राम प्रधान और पंचायत प्रतिनिधियों के चुनाव में गांव-गांव में अदावतें और बढ़ गई हैं। दूसरी ओर ग्राम पंचायत चुनावों को राजनीतिक दलों ने भी प्रतिष्‍ठापूर्ण बना लिया है।

पिछले कई चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों ने अपने कार्यकर्ताओं की मदद से ग्राम पंचायत चुनाव को दलदल में तब्‍दील करने का बड़ा प्रयास किया है। इस बार के चुनाव में तो भारतीय जनता पार्टी ने साफ एलान कर दिया था कि वह पंचायत प्रतिनिधियों के चुनाव में अपने कार्यकर्ताओं को मौका देगी। अब जबकि परिणाम सामने आ चुके हैं तो प्रदेश में नई राजनीतिक बयार का भी संकेत दे रहे हैं। प्रदेश की सत्‍ता संभाल रही भाजपा इस चुनाव में चारों खाने चित्‍त नजर आ रही है। भाजपा के लोग हालांकि दावा कर रहे हैं कि उनके समर्थक बड़ी तादाद में जीतकर आए हैं।

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ज्‍यादातर जिलों में उनके जिला पंचायत अध्‍यक्ष बनेंगे लेकिन जिलों से मिल रही सूचनाओं पर भरोसा करें तो समाजवादी पार्टी ने बगैर कोई एलान किया पंचायत चुनाव में बाजी जीत ली है। उसके लगभग आठ सौ प्रत्‍याशी चुनाव जीत चुके हैं जबकि भाजपा छह सौ के आस-पास पर टिक गई है। बसपा लगभग चार सौ और कांग्रेस भी ढाई सौ सीट जीतने में कामयाब रही है।

क्षेत्रवाद आंकड़े निम्न हैं - बुंदेलखंड में भाजपा के 39 ,सपा व बसपा के 31-31 तथा कांग्रेस के 02, निर्दलीय 43 उम्मीदवार जीते हैं । जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा-89 , सपा- 76, बसपा- 75, कांग्रेस- 11 , रालोद- 35 व निर्दलीय-98 जीते। ब्रज क्षेत्र में भाजपा-51 , सपा- 64, बसपा-37, कांग्रेस- 01, रालोद- 09,निर्दल-34 उम्मीदवार जीते। मध्य उत्तर प्रदेश में भाजपा के 155 , सपा के 285, बसपा के 93, कांग्रेस के 18 व निर्दल 221 उम्मीदवार जीतने में कामयाब रहे। पूर्वांचल में भाजपा-118, सपा-171, बसपा- 90, कांग्रेस- 21 व 310 निर्दलीय उम्मीदवार जीतने में कामयाब रहे। रूहेलखंड में भाजपा के हाथ 37, सपा के हाथ 33, बसपा के हाथ 18 , कांग्रेस के हाथ 03 व 41 सीटें निर्दलीय उम्मीदवारों के हाथ लगीं।अगर पंचायत चुनावों के नतीजों को विधानसभा के हिसाब से विश्लेषित करें तो चौंकाने वाले तथ्य हाथ लगते हैं। इन चौंकाने वाले तथ्यों को भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने ट्विट करके पुष्ट भी किया है। इसके हिसाब से भाजपा को 67.3 सीटें पर विजय हासिल हुई है। जबकि सपा के खाते में 243 सीटें गयी हैं। ये नतीजे 357 सीटों के ही हैं। क्योंकि 403 सीटों वाली विधानसभा में विधायकों की 46 सीटें शहरी मतदाताओं से तय होतीं हैं। इन पर पंचायत चुनावों से कोई असर नहीं पड़ता। ये सीटें नगर निकाय चुनावों से जुड़ी हैं।

अगर यह आंकड़े ऐसे ही हैं तो ग्रामपंचायतों के चुनाव को राजनीतिक संदेश देने वाली प्रक्रिया भी माना जा सकता है। हालांकि तमाम लोगों का मानना है कि पंचायत चुनाव क्‍योंकि क्षेत्रीयता के आधार पर लड़े जाते हैं इसमें राजनीतिक दल के बजाय व्‍यक्ति विशेष महत्‍वपूर्ण होता है तो भी यह तो माना ही जा सकता है कि प्रदेश की राजनीति के नए चेहरे इन चुनावों से निकलकर बाहर आ चुके हैं। अगले कुछ वर्षों में वे प्रदेश की इलाकाई राजनीति में अपनी धमक का अहसास कराएंगे।

पंचायत चुनावों को लोकतंत्र की नर्सरी भी नहीं कह सकते क्योंकि यदि यह नर्सरी है तो नि: संदेह बाग बगीचों की तस्वीर बेहद रूलाने वाली और निराश करने वाली होगी। वैसे तो सरकार लोकतंत्र की नर्सरी छात्रसंघों का गला कब का घोंट चुकी है। तो इस नर्सरी के लिए उससे उम्मीद करना बेमानी होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)



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Raghvendra Prasad Mishra

Raghvendra Prasad Mishra

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