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गांधी जयंती पर विशेष: बतख मिंयाँ न होते तो गांधी युग भी न होता

बतख मियां, जैसा नाम से ही ज़ाहिर है, पसमांदा थे। मोतीहारी नील कोठी में ख़ानसामा का काम करते थे। यह 1917 की बात है। उन दिनों गांधी नील किसानों की समस्या समझने के लिए चंपारण के इलाके में भटक रहे थे।

Shivani
Published on: 1 Oct 2020 5:14 PM GMT
गांधी जयंती पर विशेष: बतख मिंयाँ न होते तो गांधी युग भी न होता
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लखनऊ: भारत की आज़ादी के आंदोलन की वैश्विक पहचान के पीछे महात्मा गांधी का महत्वपूर्ण व्यक्तित्व है और आज उनका जन्मदिन अहिंसा दिवस के रूप में पूरी दुनियां में मनाया जाता है। 1917 में स्थानीय किसानों की समस्या को देखने समझने के लिए गांधी चंपारण आये।

गांधी का चंपारन प्रवास उनके जीवन कर्म में मील का पत्थर साबित हुआ पर इसी दौरान अंग्रेजों ने गांधी जी के क़त्ल की साज़िश भी रची थी और बतख मिंयाँ नामक एक खानसामा ने अपनी जान जोखिम में डाल कर उन्हें बचा लिया।यह ऐतिहासिक प्रकरण इतिहास के पन्नों में कहीं खो गया।इतिहासकारों से लेकर चंपारण की गाथा सुनानें वालों को भी यह नाम मुश्किल से याद रहता है।अंग्रेजों का इरादा एक मुस्लिम ख़ानसामा को मोहरा बनाकर पूरे देश को साम्प्रदायिक दंगों की भट्ठी में झोंक देने की थी।

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बतख मियां, जैसा नाम से ही ज़ाहिर है, पसमांदा थे। मोतीहारी नील कोठी में ख़ानसामा का काम करते थे। यह 1917 की बात है। उन दिनों गांधी नील किसानों की समस्या समझने के लिए चंपारण के इलाके में भटक रहे थे। यह वही 1917 का समय था, जब रोहतास (तब शाहाबाद) ज़िले के गांवों में साम्प्रदायिक उन्माद में डूबे सामन्ती ताकतों ने हाथी-घोड़ों पर सवार होकर मुस्लिम बस्तियों पर हमले किए थे। आगे चलकर, कई अन्य स्थानों पर भी साम्प्रदायिक दंगों का फैलाव हुआ।

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बहार हुसैनाबादी (1864-1929) ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि एक रोज़ गांधी जी मोतीहारी कोठी के मैनेजर इरविन से मिलने पहुँच गए। उन दिनों भले ही गाँधी जी की देश के अन्य बड़े नेताओं जैसी ख्याति नहीं थी पर चंपारण के लोगों की निगाह में वे किसी मसीहा से कम न थे। नील किसानों को लगता था की वे उनके इलाक़े से निलहे अंग्रेज़ो को भगाकर ही दम लेंगे और यह बात नील प्लांटरों को खटकती थी और वे हर हाल में गाँधी को चंपारण से भगाना चाहते थे।

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वार्ता के उद्देश्य से नील के खेतों के तत्कालीन अंग्रेज़ मैनेजर इरविन ने मोतिहारी में उन्हें रात्रिभोज पर आमंत्रित किया। तब बतख मियां इरविन के रसोईया हुआ करते थे। इरविन ने गांधी की हत्या के लिए बतख मियां को ज़हर मिला दूध का गिलास देने का आदेश दिया।अंग्रेजों की योजना थी कि बतख अंसारी के हाथों गांधी जी को दूध में ज़हर देकर मार दिया जाए और ऐसा न करने पर बतख मिंयाँ को जान से हाथ धोने की धमकी भी दी गई। निलहे किसानों की दुर्दशा से व्यथित बतख मियां को गांधी में उम्मीद की किरण नज़र आ रही थी। उनकी अंतरात्मा को इरविन का यह आदेश कबूल नहीं हुआ। उन्होंने दूध का ग्लास देते हुए राजेन्द्र प्रसाद को बता दिया कि इसमें जहर मिला हुआ है आप गाँधीजी को सावधान कर दें ।

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देशभक्त बतख अंसारी ने अंग्रेजों का दमन और अत्याचार झेलने का संकल्प किया और गांधी जी को अंग्रेजों की इस साज़िश से आगाह कर दिया। कहते हैं, दूध का गिलास ज़मीन पर उलट दिया गया और एक बिल्ली उसे चाटकर मौत की नींद सो गई।

गांधी की जान तो बच गई लेकिन बतख मियां और उनके परिवार को बाद में इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी।गांधी जी के जाने के बाद अंग्रेजों ने न केवल बतख मियां को बेरहमी से पीटा और सलाखों के पीछे डाला, बल्कि उनके छोटे से घर को ध्वस्त कर क़ब्रिस्तान बना दिया।

गांधी की मौत या जन्म पर लोग उनको याद करते हैं साथ ही गोडसे को भी हत्यारे के रूप में याद किया जाता है, मगर बतख मियां लगभग गुमनाम ही रहे।

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इस लोकोक्ति के बावजूद की ‘बचाने वाला मारने वाले से बड़ा होता है’। मारने वाले का नाम हर किसी को याद है, बचाने वाले को कम लोग ही जानते हैं।

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देश की आज़ादी के बाद 1950 में मोतिहारी यात्रा के क्रम में देश के पहले राष्ट्रपति बने डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने बतख मियां की खोज खबर ली और प्रशासन को उन्हें कुछ एकड़ जमीन आवंटित करने का आदेश दिया।

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बतख मियां की लाख भागदौड़ के बावजूद प्रशासनिक सुस्ती के कारण वह जमीन उन्हें नहीं मिल सकी। निर्धनता की हालत में ही 1957 में उन्होंने दम तोड़ दिया। राजेन्द्र प्रसाद ने 1950 से अपनी मृत्यु तक बिहार सरकार को गांधी की जान बचाने वाले इस देशभक्त को अंग्रेज़ों द्वारा छीनी गई ज़मीन लौटाने और उनके बेटे मुहम्मद जान अंसारी समेत पूरे परिवार को आर्थिक संरक्षण देने का निर्देश दिया था। वो बतख मियां की देशभक्ति से अभिभूत थे।

बाद में, राष्ट्रपति भवन में बतौर ख़ास मेहमान उनके बेटे को परिवार सहित रखा गया था। चंपारण में उनकी स्मृति अब मोतिहारी रेलवे स्टेशन पर बतख मियां द्वार के रूप में ही सुरक्षित हैं। इतिहास ने स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम योद्धा बतख मियां अंसारी को भुला दिया।

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1990 में, राज्य अल्पसंख्यक आयोग ने पहली बार इस पूरे प्रकरण को उजागर किया और प्रमाण सहित बतख मियां के वंशजों को न्याय दिलाने की कारगर पहल की। तब कहीं मीडिया का ध्यान इस ओर गया, और देश-भर के समाचार-माध्यमों में उनका नाम उछला।

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बाद में, विधान परिषद् के प्रभावकारी हस्तक्षेप से बतख मिंयाँ के गांव में उनका स्मारक बना तथा उनकी याद में ज़िला मुख्यालय में ‘संग्रहालय‘ का निर्माण किया गया तथा कुछ ज़मीन के साथ ही तमाम वायदे किये गए जो अभी पूरे होने बाक़ी हैं। उनके नाम पर स्थापित ‘संग्रहालय‘ पर अर्द्ध-सैनिक बलों का कब्जा रहा है।

एक सवाल अक्सर दिमाग़ को परेशान करता है :

जब यह घटना हुई, देश की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले कई लोग इसके गवाह बने, लेकिन बतख अंसारी की देशभक्ति की यह दास्तान गुमनामी के पर्दे में दबी रह गई।

आख़िर ऐसा क्यों !

गांधी को मारने वाले गोडसे याद हैं और आज उनकी संतानें फल फूल रही हैं लेकिन बचाने वाले बतख_मियां को हमने न केवल भुला दिया वल्कि आज उनकी तहरीक ही संकटग्रस्त है। गांधी न होते, तो शायद देश की आजा़दी का स्वरूप कुछ दूसरा होता और अगर बतख मिंयाँ न होते तो गांधी युग भी न होता।

डॉ मोहम्मद आरिफ

(लेखक जाने माने इतिहासकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

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