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ईश्वर बड़ा कि मनुष्य?

धर्मग्रंथ कहते हैं कि उस ऊपरवाले ने मनुष्य और प्रकृति को बनाया है। बाइबिल का ओल्ड टेस्टामेंट कहता है कि ‘‘ईश्वर मनुष्य का पिता है।’’ लेकिन मैं मानता हूं कि मनुष्य ही ईश्वर का पिता है। दुनिया के मनुष्यों ने अपनी पसंद के मुताबिक तरह-तरह के ईश्वर गढ़ लिये हैं।

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Published on: 16 Nov 2020 12:43 PM IST
ईश्वर बड़ा कि मनुष्य?
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धर्मग्रंथ कहते हैं कि उस ऊपरवाले ने मनुष्य और प्रकृति को बनाया है। बाइबिल का ओल्ड टेस्टामेंट कहता है कि ‘‘ईश्वर मनुष्य का पिता है।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

राष्ट्रीय मुस्लिम मंच ने इस बार दीवाली काफी उत्साहपूर्वक मनाई। जिस उत्साह से यह मंच ईद मनाता है, वही उत्साह दीवाली पर भी दिखाई दिया। इस मंच के संयोजक और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ नेता इंद्रेशकुमार के मुंह से इस अवसर पर एक अदभुत वाक्य निकला। उन्होंने कहा ‘सभी त्यौहार, सभी भारतीयों के’, यही सच्ची भारतीयता है। मेरी राय है कि यही सच्चा हिंदुत्व है। हिंदुत्व और भारतीयता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दो तो वे नाम के हैं। वास्तव में तो वे दोनों एक ही हैं।

यदि हम अपने सभी देशवासियों को अपना भाई समझते हैं या संसार के सारे मनुष्यों को एक ही पिता की संतान समझते हैं तो क्या हमें एक-दूसरे का सम्मान नहीं करना चाहिए? एक मनुष्य दूसरे का सम्मान करे, इसका अर्थ यह नहीं कि उसने दूसरे के खुदा को अपना ईश्वर मान लिया है। कोई आदमी ऐसा है, दुनिया में, जिसने ईश्वर या यहोवा या गाॅड या खुदा को देखा है ?

धर्मग्रंथ कहते हैं कि उस ऊपरवाले ने मनुष्य और प्रकृति को बनाया है। बाइबिल का ओल्ड टेस्टामेंट कहता है कि ‘‘ईश्वर मनुष्य का पिता है।’’ लेकिन मैं मानता हूं कि मनुष्य ही ईश्वर का पिता है। दुनिया के मनुष्यों ने अपनी पसंद के मुताबिक तरह-तरह के ईश्वर गढ़ लिये हैं। इसीलिए मैं कहता हूं कि एक-दूसरे के ईश्वर का सम्मान करने से भी बड़ा है, एक-दूसरे का सम्मान करना। सभी अपने-अपने ईश्वर में सुदृढ़ श्रद्धा रखें लेकिन एक-दूसरे का सम्मान करें तो उनके ईश्वरों का सम्मान अपने आप हो जाएगा। इसीलिए सबके त्यौहारों को सब मनाएं तो इसमें कोई बुराई नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं कि सब लोग अपना छोड़ दें और एक-दूसरे का पूजा-पाठ करने लगें।

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मैं स्वयं मूर्ति पूजा नहीं करता हूं लेकिन अफगानिस्तान के एक उप-प्रधानमंत्री को मैं जब बिरला मंदिर दिखाने ले गया तो उन्होंने कहा मैं पूजा कर लूं तो मैंने कहा जरुर कर लीजिए। 1969 में जब मैं पहली बार वेटिकन गया तो पोप की प्रार्थना सभा में शामिल होने में मुझे कोई एतराज नहीं हुआ।

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पेशावर की नमाजे-तरावी और लंदन के यहूदी मंदिर (साइनेगाॅग) में बैठने में भी मुझे कुछ अटपटा नहीं लगा। इसी तरह सरस्वती की मूर्ति पर लगभग हर सभा में मुझे माला चढ़ानी पड़ती है, क्योंकि मैं उस पत्थर की मूर्ति से नहीं, उस मूर्ति को वहां रखनेवालों से प्रेम करता हूं। यदि आपके दिल में सभी मनुष्यों के लिए प्रेम नहीं है तो ईश्वर के लिए प्रेम कहां से आएगा?

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