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Karnataka Election 2023: कर्नाटक चुनाव और बदरंग इंद्रधनुष
Karnataka Election 2023: कर्नाटक के चुनाव में धर्म का बोलबाला है। राम, बजरंगबली, हिजाब, हवाला मीट, इस्लामीकरण, ‘केरल स्टोरी’, मुस्लिम-ओबीसी आरक्षण, लिंगायत बनाम वोक्कालिगा – अनेक प्रकार के ‘इन्द्रधनुषी रंग’ दिख रहे हैं। वैसे तो इन्द्रधनुषी रंग खुशनुमा होता है।
Karnataka Election 2023: राजनीति का धर्म होना चाहिए। क्योंकि जब हमारे मनीषियों, ऋषियों ने चार पुरुषार्थ तय किये तो उनके क्रम थे- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। यानी मूल में धर्म था। अर्थ, काम और मोक्ष तीनों के मूल में धर्म था। इसलिए हमारे देश में जीवन व समाज के हर पहलू में धर्म अनिवार्य तत्व हैं। पर यह अनिवार्यता भी कितनी होनी चाहिए, यह भी तय था। तय है।
लेकिन तय सीमा अब मिटती सी दिखती है। अब उद्देश्य हासिल करना ही परम उद्देश्य है जिसमें साधन की कोई सीमा नहीं है क्योंकि परम उद्देश्य में सीमाएं नहीं तय की जातीं। इसका ताज़ातरीन उदाहरण कर्नाटक का विधानसभा चुनाव है। कर्नाटक का चुनाव प्रचार देखें तो लक्ष्मण रेखा लांघते सब नज़र आ रहे हैं। वहां राजनीति का धर्म नहीं। धर्म की राजनीति हो गयी है।
प्रधानमंत्री की रैलियों का फ़ोकस बजरंग दल और हनुमान जी
कर्नाटक के चुनाव में धर्म का बोलबाला है। राम, बजरंगबली, हिजाब, हवाला मीट, इस्लामीकरण, ‘केरल स्टोरी’, मुस्लिम-ओबीसी आरक्षण, लिंगायत बनाम वोक्कालिगा – अनेक प्रकार के ‘इन्द्रधनुषी रंग’ दिख रहे हैं। वैसे तो इन्द्रधनुषी रंग खुशनुमा होता है। लेकिन दुर्भाग्य से कर्नाटक चुनाव में वह भारतीय राजनीति के गंदले रंग को परिलक्षित कर रहा है। क्योंकि कांग्रेस पार्टी ने अपने घोषणापत्र में पीएफआई व बंजरंगदल पर प्रतिबंध की बात कह कर चुनाव को और धार्मिक मोड़ दे दिया। कांग्रेस यह भूल गयी थी कि केंद्र सरकार ने पीएफआई पर पहले से प्रतिबंध लगा रखा है। लिहाज़ा भाजपा बजरंग दल पर प्रतिबंध की बात को ले उड़ी। प्रधानमंत्री की रैलियों का फ़ोकस बजरंग दल और हनुमान जी पर हो गया। भाजपा ने जगह जगह हनुमान चालीसा का पाठ कराना शुरू कर दिया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो हिंदी भाषी ख़ास तौर से उत्तर प्रदेश में जय श्रीराम का नारा अपनी रैलियों में लगवाते थे, वह कर्नाटक में जय बजरंगबली बोलने लग गये। अब आलम यह हो गया कि भाजपा के चुनाव प्रचार में हनुमान जी के भेष में किरदारों को सड़क पर टहलाया गया। कांग्रेस बोल उठी कि उसकी सरकार बनी तो पूरे कर्नाटक में आंजनेय ( हनुमान ) का मंदिर बनायेंगे। कांग्रेस ने घोषणा पत्र में कर्नाटक के 1.80 लाख मंदिरों के लिए विशेष पूजा निधि और सभी ग्राम देवियों के लिए बीस-बीस हज़ार रुपये जारी करने का एलान कर दिया।
कर्नाटक में भगवान हनुमान को ‘हनुमा’ नाम से जाना जाता है
ज़रा, कर्नाटक और हनुमानजी के सम्बन्ध की बात भी कर लें - कई लोगों का मानना है कि कर्नाटक में कोप्पला के पास अंजनाद्री पहाड़ी भगवान हनुमान का जन्मस्थान है। कर्नाटक में भगवान हनुमान को ‘हनुमा’ नाम से जाना जाता है। वैसे, बता दें कि कम से कम पांच अन्य राज्यों - तेलंगाना, महाराष्ट्र, गुजरात, झारखंड और हरियाणा में भी हनुमान जी के जन्मस्थान संबंधी दावे किए जा चुके हैं। 2021 में तिरुपति मंदिर ट्रस्ट ने यह दावा करने के लिए एक अभियान शुरू किया था कि ‘हनुमान’ का जन्म तिरुमाला पहाड़ी पर हुआ था। अंजनाद्री पहाड़ी पर कुछ बरसों से हजारों भक्त आने लगे हैं। कर्नाटक सरकार ने अयोध्या की तर्ज पर साइट को विकसित करने के लिए 120 करोड़ रुपये की योजना की घोषणा भी की हुई है।
धर्म की राजनीति का आलम ये रहा है कि कर्नाटक के मतदाताओं को अपनी ओर खींचने के लिए राहुल गाँधी से लेकर असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा तक मठों तक के चक्कर लगा चुके हैं। संतों का आशीर्वाद ले आये हैं। केरल स्टोरी फिल्म का इस्तेमाल भी चुनावी मौके पर बखूबी किया जा रहा है। हिमंत बिस्व सरमा और योगी आदित्यनाथ कर्नाटक में अपनी मजबूत मौजूदगी दर्ज करा चुके हैं। मुस्लिम कोटा, केरल का ‘इस्लामीकरण’ आदि को सबसे बड़े मुद्दों के रूप में पेश किया जा रहा है।
लिंगायत आंदोलन
धर्म की बात करें तो, दक्षिण भारत में शैववाद लोकप्रिय रहा है।12वीं शताब्दी के बाद से बसवा के लिंगायत आंदोलन द्वारा कई क्षेत्रों में और मजबूत किया गया।लिंगायत 12वीं सदी के समाज सुधारक दार्शनिक कवि बसवेश्वर के अनुयायी हैं। लिंगायत कट्टर एकेश्वरवादी हैं। वे केवल एक भगवान, अर्थात् लिंग (शिव) की पूजा करने का आदेश देते हैं। लिंगायत को "वीरशैव लिंगायत" नामक एक हिंदू उप-जाति के रूप में वर्गीकृत किया गया था। उन्हें शैव माना जाता है।
कर्नाटक चुनाव में लिंगायत व वोक्कालिंगा ने भी धार्मिक मुद्दों के बराबर ही हैसियत हासिल कर रखी है। यानी जाति की राजनीति भी लक्ष्मण रेखा लांघती देखी जा सकती है। यहाँ 84 प्रतिशत हिंदू, 12.9 फ़ीसदी मुसलमान और 1.87 प्रतिशत ईसाई हैं। हिंदुओं में 16-17 प्रतिशत लिंगायत और 12-14 प्रतिशत वोक्कालिंगा हैं। प्रमुख प्रतिद्वंद्वी दलों की लड़ाई लिंगायत और वोक्कालिगा मतदाताओं को अपने पाले में घसीटने की है।बहरहाल, एक तरफ लिंगायत हैं तो दूसरी ओर वोक्कालिगा हैं। लिंगायतों में कई उप-जातियां शामिल हैं। कुछ ओबीसी के अंतर्गत आते हैं। कुछ एससी के अंतर्गत। लिंगायतों में ऐसी उपजातियां भी हैं जिनके पास आरक्षण नहीं है। वे ओसी के अंतर्गत आती हैं। वहीँ वोक्कालिगा मुख्य रूप से अगड़ी जाति में आते हैं। लेकिन इनके भी कुछ उपवर्ग ओबीसी में हैं। जाति का यह मामला चुनाव में बहुत भुनाया जाता है । इस बार भी यही चल रहा है।
आज़ादी के बाद कर्नाटक की जाति-आधारित राजनीति में, लिंगायत और वोक्कालिगा के बीच ऐतिहासिक प्रतिद्वंद्विता ने राज्य की राजनीति की दिशा को निर्धारित किया है। इन दोनों राजनीतिक रूप से प्रमुख जातियों के पास उनकी आबादी के सापेक्ष राजनीतिक प्रतिनिधित्व का अनुपातिक रूप से बड़ा हिस्सा है। इन दोनों जातियों के विधायकों ने कर्नाटक में 2018 के चुनावों में लगभग आधी सीटें जीतीं थीं। भाजपा, कांग्रेस और जेडीएस ने अपने आधे से ज्यादा टिकट इन्हीं दो समुदायों के प्रत्याशियों को दिए हैं।
जबकि लिंगायत उत्तर और मध्य कर्नाटक में प्रभावशाली हैं, जहां भाजपा कांग्रेस के साथ प्रतिस्पर्धा करेगी, वहीँ वोक्कालिगा दक्षिण कर्नाटक के 11 जिलों में हासन, मांड्या, रामनगरम और बेंगलुरु ग्रामीण जिलों में जोरदार राजनीतिक वर्चस्व के साथ प्रभावी हैं। भारतीय जनता पार्टी को लिंगायत समर्थित पार्टी माना जाता है। हालाँकि लिंगायतों में सबसे बड़ा संप्रदाय पंचसाली है। इनकी नाराज़गी की वजह यह है कि ओबीसी में 101 जातियाँ शामिल हैं। पर इस संप्रदाय को शामिल नहीं किया गया है। जबकि इनका दावा है कि इनका फैलाव 75 विधानसभा सीटों पर है।दक्षिण कर्नाटक या ओल्ड मैसूर के वोक्कालिगा प्रभुत्व वाले हिस्से इसके प्रभाव के लिए काफी हद तक अभेद्य रहे हैं।
वोक्कालिगा ज्यादातर मूल रूप से किसान हैं। मैसूर की पूर्व रियासत में, वोक्कालिगा सबसे बड़ा समुदाय था। वोक्कालिगा के सबसे बड़े नायक बेंगलुरु के संस्थापक नादप्रभु केम्पे गौड़ा हैं। ब्रिटिश शासन के दौरान, वोक्कालिगा खेती तक ही सीमित थे। लेकिन 1947 में स्वतंत्रता के बाद, उनके लिए सब कुछ बदल गया। वे कर्नाटक की चुनावी प्रक्रिया में प्रमुख खिलाड़ी बन गए।
वोक्कालिगा (वोक्कालिगा, वक्कलिगा, वक्कलिगा, ओक्कलिगर, ओक्किलियन भी कहा जाता है) पड़ोसी राज्य तमिलनाडु में भी मौजूद हैं। वोक्कालिगा आमतौर पर गौड़ा, हेगड़े और गाउंडर जैसे टाइटल धारण करते हैं।
राजनीतिक रूप से, वोक्कालिगा कर्नाटक में मजबूत समुदायों में से एक है। हालांकि इसने अब तक पांच मुख्यमंत्री और एक प्रधानमंत्री दिया है। लेकिन हाल के वर्षों में यह समुदाय अपना राजनीतिक नियंत्रण खोता जा रहा है। वोक्कालिगा बाहुल्य क्षेत्रों में फैले मैसूर के रियासत राज्य में संविधान सभा और परिषद को मिलाकर 50 प्रतिशत से अधिक सदस्य उस समुदाय से थे। पर अब 225 सदस्यीय विधानसभा में वोक्कालिगा विधायकों की संख्या चुनाव दर चुनाव घटती जा रही है। यह गिरावट राज्य की राजनीति में समुदाय के घटते प्रभाव का प्रत्यक्ष परिणाम है। वोक्कालिंगा आरक्षकों चार प्रतिशत से बढ़ा कर बारह प्रतिशत करने की माँग कर रहे हैं।
वोक्कालिगा समुदाय, अपने 20 से अधिक उप-संप्रदायों के साथ, हासन, मांड्या, चामराजनगर, मैसूर, कोलार, तुमकुर, बैंगलोर, शिमोगा, चिकमगलूर, धारवाड़, दावणगेरे, चित्रदुर्ग, बेल्लारी, रायचूर, चिकबल्लापुर, उत्तर कन्नड़ और अविभाजित दक्षिण कन्नड़ जिलों में फैला हुआ है।
बंगलुरु और उसके आसपास वोक्कालिगा ने अपने पेशे को कृषि से रियल एस्टेट में बदल दिया। मैसूर अब उसी का अनुसरण कर रहा है। पेशे और उच्च शिक्षा में आए इस बदलाव ने उन्हें अपनी पारंपरिक क्षेत्रीय सीमाओं को पार करने और विभिन्न क्षेत्रों में प्रवास करने के लिए मजबूर किया। बंगलुरु और आसपास के इलाके अब वोक्कालिगा के गढ़ नहीं रहे हैं।
वोक्कालिगा समुदाय
वोक्कालिगा समुदाय अभी भी दो उप-संप्रदायों के बीच विवाह करने से हिचकते हैं। इस अजीबोगरीब प्रथा ने उनकी एकता को प्रतिबिंबित किया है। समुदाय के पास एक आम नेता नहीं है। पूर्व पीएम देवेगौड़ा ने खुद को समुदाय के नेता के रूप में पेश किया। लेकिन जब उन्होंने समुदाय पर अपने बेटों को नेताओं के रूप में थोपना शुरू कर दिया तो उनका प्रभाव खत्म ही हो गया।
बयानों के मद्देनज़र कर्नाटका चुनाव को देखा जाये तो हर तरफ़ लक्ष्मण रेखा लांघी गई । कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिका अर्जुन खडगे नें प्रधानमंत्री को ज़हरीला साँप कहा। प्रियंका गांधी ने नालायक बेटा बोला। भाजपा के उत्साही प्रचारक यहाँ तक कह ये कि कर्नाटक के लोग भाजपा को वोट देकर नरेन्द्र मोदी का आशीर्वाद लें। कांग्रेस को यह नहीं भूलना चाहिए कि गुजरात में जब सोनिया गांधी ने नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर कहा, मणिशंकर अय्यर ने चायवाला कहा, प्रियंका ने नीच मानसिकता वाला कहा तो उसका किस तरह फ़ायदा नरेंद्र मोदी ने उठाया। इन्हीं बयानों ने कांग्रेस का खेल बिगाड़ दिया।
1 नवंबर, 1956 को कर्नाटक नया राज्य बना। तब इसे मैसूर कहा जाता था। 1973 में कर्नाटक नाम मिला। कर्नाटक मतलब होता है- काली मिट्टी की ऊँची भूमि। करु मतलब काली और ऊँची। नाट मतलब भूमि। अंग्रेज इसे कारनाटिक कहते थे। यह राज्य 1,91,791 किलोमीटर में फैला है। यहाँ की आबादी 6.5 करोड़ है। विधानसभा की 224, लोकसभा की 28 और राज्य सभा की 12 सीटें इस राज्य से आती हैं। विधान सभा की 36 सीटें अनुसूचित जाति के लिए 15 अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। 31 ज़िले हैं।जीडीपी आठ फ़ीसदी है। यह राज्य अचार और मसालों के लिए जाना जाता है। सत्तू से बनी मैसूर पाक यहाँ की सबसे पसंदीदा मिठाई है। कर्नाटका में सौ साल से ऊपर आयु के 16976 लोग हैं।
कर्नाटक में 1983 में पहली बार भाजपा
कर्नाटक में 1983 में पहली बार भाजपा का उदय हुआ। वह 110 सीटों पर चुनाव लड़ी। 18 सीटें जीती। 7.9 फ़ीसदी वोट मिले। 1989 में भाजपा 119 सीटों पर लड़ी पर केवल 4 सीटें जीत पाई। 2004 भाजपा के लिए बेहद सौभाग्यशाली वर्ष व चुनाव रहा भाजपा को विधानसभा में 71 सीटें हासिल की। लोकसभा की 18 सीटें भाजपा के हाथ लगीं। 2018 में भाजपा 223 सीटों पर लड़ी थी। 104 सीटों पर जीत दर्ज कराई थी। पर 36 सीटों पर ज़मानत ज़ब्त हुई थी। 1,32,68,284 वोट मिले थे। जो 36.22 फ़ीसदी बैठते हैं।
1985 को छोड़कर, जब जनता पार्टी के नेता रामकृष्ण हेगड़े 139 सीटों के साथ लौटे थे, कर्नाटक में पूर्ण बहुमत के साथ कोई भी सरकार सत्ता में नहीं लौटी है। भाजपा जो 2019 में कांग्रेस और जेडीएस के 17 विधायकों के पार्टी में शामिल होने पर सत्ता में आई थी, इतिहास बदलने की पुरजोर कोशिश कर रही है। विपक्षी कांग्रेस की भविष्य की रणनीति और उसकी देश भर में स्थिति इस बात पर निर्भर करती है कि पार्टी राज्य में कैसा प्रदर्शन करती है। जेडीएस का लक्ष्य बीजेपी और कांग्रेस दोनों का खेल बिगाड़ना है। किंगमेकर की भूमिका निभाना है। कुल मिला कर कर्नाटक चुनाव जाति, भ्रष्टाचार, क्षेत्र, धर्म और विद्रोह के बारे में हैं। सभी पार्टियां इन कारकों के इर्द-गिर्द अपना चुनावी संदेश रख रही हैं। कांग्रेस किसी तरह भ्रष्टाचार के मुद्दे को सबसे आगे किये हुए है।
ये तय है कि कर्नाटक के चुनाव आने वाले राजनीतिक ट्रेंड का रास्ता तय कर देंगे। कई बड़े नेताओं की पोजीशन तय हो जायेगी। धर्म, जाति और भ्रष्टाचार के बारे में जनता की राय तय हो जायेगी। कर्नाटक की राजधानी बंगलुरु देश का आईटी हब है । जहाँ पूरे देश से युवा इंजिनियर तथा नया प्रोफेशनल काम करने, स्टार्ट अप चलाने, पढ़ने आते हैं। धर्म और जाति में उलझा दिए गए इस "टेक राज्य" की विधानसभा क्या सन्देश देती है, देखने वाली बात होगी। कर्नाटक चुनाव के बाद लक्ष्मण रेखाएं कुछ बची भी रहेंगी कि सब खत्म हो जाएंगी, ये 2024 तक कई चुनाव साफ कर देंगे। अभी भारतीय राजनीति के कई इंद्रधनुषी रंग जनता को देखना बाकी हैं।
( लेखक पत्रकार हैं । दैनिक पूर्वोदय से साभार ।)