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जय रसराज-जय जसराज

मूर्छना की प्राचीन शैली पर आधारित अनोखी जुगलबंदी के आविष्कार का श्रेय पंडित जसराज को जाता है । इसमें पुरुष और स्‍त्री गायक एक साथ अलग- अलग राग का गायन करते हैं। इसकी प्रसिद्धि ऐसी हुई कि इस गायन विधा को जसरंगी का नाम दिया गया।

Newstrack
Published on: 18 Aug 2020 1:19 PM IST
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अखिलेश तिवारी

तीन दशक पहले पंडित जसराज को दूरदर्शन पर "हमारो माई श्यामा जू को राज" गाते हुए सुना तो यह पता भी नहीं था कि हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की दुनिया में उनका स्थान सर्वोपरि है। लेकिन 'रसराज' पंडित जी के सुरों का जादू ऐसा था कि उन्हें बार-बार सुनने की अभिलाषा तीव्रतर होती चली गई।

उन दिनों मैंने बॉलीवुड के मशहूर गायकों तलत महमूद, के एल सहगल से होते हुए बेगम अख्तर की गायकी को सुनना शुरू कर दिया था। लगभग दो साल बाद कॉलेज टूर में ब्रज यात्रा के दौरान जब बरसाना के राधा जू मंदिर में पहुंचा तो वहां एक साधु ने बरसाना की महत्ता बताते हुए कहा कि- यह बरसाना है यहां राधा रानी ही महारानी हैं, "जा को यां पर पांय पलोटत वा ब्रज को सरताज" ।

वापस लौटा तो लखनऊ जाकर सबसे पहले पंडित जी के ऑडियो कैसेट खरीदे । इसके बाद जो उन्हें सुनने का क्रम शुरू हुआ तो आज तक मन उनके सुरों की बगिया में वैसे ही भटक रहा है, जैसे फूल से कोई भंवरा उड़ता भी है, तो बार-बार लौटकर फूल पर ही मंडराता रहता है। सुनने की चाहत आज भी वैसी ही अधूरी और बलवती है जैसे मदिरा के चषक पी -पीकर मदहोश हो चुके मनुष्य की प्यास तृप्त होने के बजाय और ज्यादा तीव्र हो जाती है।

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अटलजी ने दी रसराज की उपाधि

पंडित जी ने अपने इंटरव्यू में खुद बताया है कि उन्हें रसराज की उपाधि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने दी। वास्तव में यह उपाधि उनके लिए सर्वथा उपयुक्त है, क्योंकि पंडित जी ने खुद बताया है कि 16 साल की उम्र में जब उन्होंने तबला वादन छोड़कर गायकी का संकल्प लिया। तब तक उनके आराध्य देव श्री हनुमान जी और भगवान राम हुआ करते थे।

उन्होंने हनुमान और भगवान श्री राम के लिए कई भजन भी गाए हैं। पंडित जी के अनुसार एक रात स्वप्न में भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि उनका गायन उन्हें अत्यंत प्रिय है। पूजा ,भोग,नैवेद्य तो संसार के अन्य समर्थ प्राणियों यथा वायसराय अथवा संसार के प्रतिष्ठित अन्य लोगों के लिए हैं। उन्हें तो जसराज का गायन ही चाहिए।

कृष्ण को समर्पण

इसके बाद उन्होंने श्री कृष्ण माधुर्य भक्ति गायन को ही अपना जीवन समर्पित कर दिया। अपनी भक्ति भावपूर्ण गायकी से "रानी तेरो चिरजीवौ गोपाल", "ओम नमो भगवते वासुदेवाय"," ब्रजे वसंतम" "आज तो आनंद आनंद" और मधुराष्टकम् जैसी अनेक रचनाओं को अमृतमय कर दिया।

पंडित जी का का संपूर्ण जीवन भारत भूमि से जन्मे उस जीवन दर्शन का साक्षात अनुभव है जो बार-बार इसकी घोषणा करता है कि मनुष्य ही है, जो तमाम प्रतिकूलता पर विजय पाकर मनुष्य से देवता बनने की योग्यता रखता है।

चार वर्ष की अल्पायु में पिता पंडित मोतीराम का साया जब सिर से उठा तो बड़े भाइयों संगीत महामहोपाध्‍याय पंडित मणीराम मिश्र और पंडित ओम प्रकाश मिश्र ने उन्‍हें संभाला। जिस दिन पंडित जसराज के पिता का निधन हुआ उसी दिन उन्‍हें हैदराबाद के आखिरी निजाम उस्‍मान अली खां बहादुर के राजदरबार में राजसंगीतज्ञ का दायित्‍व सौंपा जाने वाला था।

बाल्यकाल से संगीत साधना

पंडित जी ने खुद बताया है कि तीन साल की आयु में उनके पिता ने उन्‍हें संगीत की प्रारंभिक शिक्षा देनी शुरू कर दी थी, शायद इसका असर था कि बाल्‍यकाल में ही उनकी संगीत आराधना प्रारंभ हो गई थी।

वह हैदराबाद में रहते थे और स्‍कूल जाने के लिए घर से निकलते तो रास्‍ते में एक चाय-पानी का होटल था जहां ग्रामोफोन पर उन्‍हें बेगम अख्‍तर की गजल- दीवाना बनाना है, तो दीवाना बना दे। सुनकर उनके पैर थम जाया करते थे।

स्‍कूल जाने के बजाय सड़क के किनारे बैठकर वह बेगम अख्‍तर की गजल सुना करते थे। बाद में उनके मंझले भाई ओमप्रकाश मिश्र (बॉलीवुड संगीतकार जतिन –ललित और सिने अभिनेत्री विजेयता पंडित व सुलक्षणा पंडित के पिता) ने छह-सात वर्ष की अवस्‍था में ही उन्‍हें तबला बजाना सिखाया और अपने साथ तबला वादक के तौर पर संगीत कार्यक्रमों में ले जाने लगे। 16 साल की उम्र तक वह अपने दोनों बड़े भाइयों के संगीत कार्यक्रमों में तबला वादन करते रहे।

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बेकदरी ने बनाया सिरमौर

पंडित जसराज के बड़े भाई प‍ंडित मणीराम की शास्‍त्रीय संगीत मर्मज्ञ और गायक के तौर पर बडी धूम थी। लाहौर और दिल्‍ली में सरस्‍वती संगीत महाविद़यालय की उत्‍तर भारतीय शास्‍त्रीय संगीत के स्‍कूलों में बडी प्रतिष्‍ठा थी।

पंडित मणीराम हर साल चार-पांच महीने के लिए लाहौर जाते और संगीत के विद्यार्थियों को शिक्षा देते थे। श्री कृष्ण जन्‍माष्‍टमी से पहले कुमार गंधर्व भी लाहौर पहुंचे और उनके बड़े भाई पंडित मणीराम के साथ पूरे दिन रहे।

शाम को लाहौर रेडियो पर उनका कार्यक्रम था और उनका तबला वादक किसी कारण से पहुंच नहीं सका। ऐसे में उन्‍होंने पंडित मणीराम से अपने छोटे भाई को भेजने का अनुरोध किया।

पंडित अमरनाथ झिड़की

इस तरह लाहौर रेडियो से प्रसारित कार्यक्रम में पंडित जसराज ने संगत की। अगले दिन पंडित मणीराम से मिलने पहुंचे संगीतज्ञ व शास्‍त्रीय गायक पंडित अमरनाथ चावला ने उनसे कहा कि अगर बड़े लोग भी गलत गाएंगे तो नई पीढ़ी का क्‍या होगा।

कुमार गंधर्व ने राग भीम पलास में धैवत पर सम लिया है। यह तो गलत है। उनकी इस बात का खंडन पंडित जसराज ने किया और कहा कि इसमें गलत कुछ नहीं है, बल्कि राग तो अच्‍छा बन पड़ा।

इस पर उन्‍हें झिड़कते हुए पंडित अमरनाथ ने कहा कि जसराज तुम मरा हुआ चमड़ा पीटते हो, तुम्हें जीवित सुर की क्‍या समझ। पंडित जी ने अपने विभिन्‍न साक्षात्‍कारों में इस पूरी घटना की कई बार चर्चा की है।

उनकी यह बात किशोरवय जसराज को गहरा आघात कर गई। उस दिन जन्‍माष्‍टमी थी और उसके अगले दिन नंद उत्‍सव। नंद उत्‍सव के कार्यक्रम में तबला बजाने के लिए जसराज पहुंचे तो देखा कि तबला और अन्‍य वाद़ययंत्रों को बजाने वालों के बैठने के लिए जमीन में नीचे गहरे गड्ढे में स्‍थान दिया गया है तो उन्‍होंने इसका विरोध किया और कहा कि गायक के साथ ही बैठने की व्‍यवस्‍था की जाए।

जब रो दिये

इस पर आयोजन के व्‍यवस्‍थापकों ने झिड़कते हुए क‍हा कि रागी के साथ तबला बजाने वाला बैठेगा, उसकी इतनी मजाल। पंडित जी ने अपने एक साक्षात्‍कार में बताया है कि यह तो घाव पर लगा नया घाव था। आहत मन ने उसी समय फैसला कर लिया कि वह अब तबला नहीं बजाएंगे।

पंडाल से बाहर निकल कर रोने लगे । नंद उत्‍सव में उनके बड़े भाई का कार्यक्रम था । वह पहुंचे तो पंडित जी ने मना कर दिया कि अब तबला नहीं बजाएंगे। ऐसे में उनके भाई ने संगीत महाविद़यालय से छात्रों को बुलाकर अपना कार्यक्रम किया लेकिन अगली सुबह चार बजे ही उन्‍हें जगाकर कहा कि अब गाना शुरू करो।

चार पीढ़ी से हमारा परिवार गायन कर रहा है तो तुम्हें भी गायक ही बनना था लेकिन तबला वादन अच्‍छा करने की वजह से पहले इसकी शुरुआत नहीं हुई।

पंडित जी यह भी बताते हैं कि उन्‍होंने उसी वक्‍त यह संकल्‍प किया कि जब तक गायन को प्रतिष्‍ठा नहीं मिल जाती है तब तक वह अपना बाल नहीं कटाएंगे तो 1952 तक लगभग सात साल उन्‍होंने अपने बाल लंबे ही रखे।

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बड़े गुलाम अली बनाना चाहते थे अपना शागिर्द

उत्‍तर भारतीय संगीत के मूर्धन्‍य विद़वान गायक उस्‍ताद बड़े गुलाम अली खां उन्‍हें अपना शिष्‍य बनाना चाहते थे। एक बार जब बड़े गुलाम अली खां साहब बीमार थे तो उनसे मिलने पंडित जसराज उनके घर गए। वह बिस्‍तर पर लेटे थे तो पंडित जसराज देर तक उनका पैर दबाते रहे।

बड़े गुलाम अली खां ने उनसे कहा कि जसराज तुम मेरे शागिर्द बन जाओ मैं तुम्‍हें अपने बेटे की तरह रखूंगा और शिक्षा दूंगा तो पंडित जसराज ने उनसे कहा कि -"आपसे शिक्षा हासिल करना मेरा सौभाग्‍य है लेकिन मैं अपने पिता को जिंदा करना चाहता हूं।

उन्‍होंने तीन वर्ष की अवस्‍था में मुझे जो सिखाया है इस गायकी की नींव रखी है उसे मैं शीर्ष पर पहुंचाकर अपने पिता के नाम को प्रतिष्ठित करना चाहता हूं।"

उनकी यह बात सुनकर बडे गुलाम अली ने उन्‍हें आशीर्वाद दिया कि उनकी कामना पूरी हो और यह भी कहा कि मैं तो पहलवानी करता था, तुम्‍हारे पिता मोतीराम ही मुझे संगीत की दुनिया में लाए और गायक बनने के लिए प्रेरित किया।

माता कालिके की कृपा से हुआ चमत्‍कार

पंडित जसराज ने आगे चलकर आगरा के स्‍वामी वल्‍लभदास से संगीत विशारद की शिक्षा प्राप्‍त की और मेवाती घराने के दिग्‍गज संगीतज्ञ महाराणा जयवंत सिंह वाघेला से ख्‍याल गायकी की बा‍रीकियां सीखीं।

हवेली संगीत पर व्‍यापक अनुसंधान कर नई बंदिशों की रचना करने वाले पंडित जी ने बाबा श्‍याम मनोहर गोस्‍वामी महाराज के साथ अपनी भक्ति साधना को परवान चढाया। महाराणा जयवंत सिंह वाघेला से उनके बड़े भाई मणिराम का घनिष्‍ठ संबंध था।

पंडित जी ने बताया कि उनके बड़े भाई एक बार काफी अस्‍वस्‍थ हो गए, बोल नहीं पाते थे तो महाराणा जयवंत सिंह वाघेला ने उन्‍हें अपनी रचना- माता कालिके गाने के लिए प्रेरित किया और कहा कि अब माई ही कल्‍याण करेंगी। यह रचना गाते हुए उनके भाई उसी क्षण स्‍वस्‍थ हो गए तो पंडित जसराज भी दैवी शक्ति के समक्ष समर्पित हो गए।

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1964 में जयपुर के संगीत महोत्‍सव में उन्‍हें आधी रात के बाद गाने का मौका मिला तो सुप्रसिद्ध नृत्यांगना सितारा देवी ने उनसे अनुरोध किया कि सुबह उनका राजभवन में कार्यक्रम है। उन्‍हें पहले मंच पर जाने दें, ज्यादा से ज्‍यादा एक घंटा लगेगा।

माता कालिके गायन

उनके अनुरोध को पंडित जी टाल नहीं सके और सितारा देवी ने लगभग चार घंटे, सुबह 4:30 बजे तक नृत्य किया। सुबह पौने पांच बजे जब पंडित जी ने राग नट भैरव गायन शुरू किया तो 20 मिनट बाद ही उन्‍हें लोगों ने हूट करना शुरू कर दिया।

इसके बाद उन्‍होंने माता कालिके का गायन किया जो वैसे तो रात में गाया जाने वाला राग है लेकिन उन्‍होंने सुबह इसे गाया। लगभग एक घंटे बाद विराम दिया तो एक मिनट तक सन्‍नाटा छाया रहा और उसके बाद पूरा पंडाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।

पंडित जी के अनुसार यही कार्यक्रम था जिसने उन्‍हें संगीत का रसराज प‍ंडित जसराज बना दिया। बाद में उन्‍होंने अंटाकर्टिका पर संगीत गायन कर दक्षिणी और उत्‍तरी ध्रुव पर गाने वाले गायक का रुतबा भी हासिल किया। हॉलीवुड की फिल्म'लाइफ ऑफ पई' और बॉलीवुड की 'बीरबल माई ब्रदर' में साउंड ट्रैक भी दिया।

जय रसराज-जय जसराज

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गायन विधा जसरंगी

मूर्छना की प्राचीन शैली पर आधारित अनोखी जुगलबंदी के आविष्कार का श्रेय पंडित जसराज को जाता है । इसमें पुरुष और स्‍त्री गायक एक साथ अलग- अलग राग का गायन करते हैं। इसकी प्रसिद्धि ऐसी हुई कि इस गायन विधा को जसरंगी का नाम दिया गया।

इसके बाद तो उपाधियां पूरे जीवन भर उन्‍हें अलंकत कर स्‍वयं विभूषित होती रहीं। पद़म श्री, पद़म भूषण, पद़म विभूषण, संगीत नाटक अकादमी, मारवाड संगीत रत्‍न आदि क्‍या- क्‍या नहीं उन्‍हें मिला।

लेकिन पंडित जी को रसराज उपाधि अत्‍यंत प्रिय अनुभूति दिलाती रहीं, कदाचित रसराज श्री कृष्ण से सदेह तादात्‍म्‍य स्‍थापित कर चुके पंडित जसराज की इससे अलग कोई पहचान हो भी नहीं सकती, जय रसराज -जय जसराज।

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