TRENDING TAGS :
ये कहाँ जा रहे हैं हम...
हमारा समाज कहाँ पहुँच गया है। इस समाज के बूते हम दुनिया में विश्व गुरू बन पायेंगे यह संभव नहीं है। और यदि यह सब जो दावे से मीडिया द्वारा बताया व जताया जा रहा है वह हमारे समाज के एक हिस्से का ही सच है तो नि: संदेह हम कह सकते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है।
योगेश मिश्र
साहित्य समाज का दर्पण होता है। यह तक़रीबन सबने पढ़ा होगा। स्कूलों में प्रायः इस पर लेख लिखने का अवसर भी मिला होगा। फ़िल्म साहित्य का एक हिस्सा है। मीडिया को भी ‘इनस्टेंट लिटरेचर’ कह सकते हैं। आज जब सुशांत सिंह राजपूत केस समाज के इन दोनों दर्पणों में जेरे बहस है, तब साहित्य, समाज और दोनों दर्पणों को उनके लिए तय मानदंडों व कसौटी पर कसना बहुत अनिवार्य हो जाता है।
मीडिया ट्रायल पर सवाल
इस समूचे प्रकरण में रिया चक्रवर्ती को लेकर महाराष्ट्र सरकार के बचाव, सुशांत सिंह के हत्या- आत्महत्या जैसे सवालों की ओर जाना हमारा मक़सद क़तई नहीं है। क्योंकि उधर जाकर बात करने व लिखने से समाज और उसके दोनों दर्पणों की छवि का सही मूल्यांकन नहीं किया जा सकेगा।
देश व दुनिया का यह इकलौता या पहला केस नहीं है जो मीडिया ट्रायल के दौर से गुजर रहा हो। ऐसे केसों में आरूषिं कांड, निर्भया केस, शीना बोरा हत्याकांड, आसाराम बापू मामला, सुनंदा पुष्कर प्रकरण, जेसिका लाल कांड वग़ैरह शामिल हैं। भारत में मीडिया ट्रायल का पहला मामला नौसेना कमांडर नानावती का था।
कैप्टन नानावती गुनाह के बाद भी बरी हुए
नानावती ने अपनी पत्नी के प्रेमी प्रेम आहूजा को उनके घर जा कर गोली से उड़ा दिया था। इस केस में प्रधानमंत्री नेहरू तक को इसके बारे में प्रेस को जवाब देना पड़ा।
इस पूरे मामले में बंबई से छपने वाला अंग्रेज़ी टैबलॉएड ब्लिट्ज़ खुल कर नानावती के समर्थन में उतर आया। ब्लिट्ज़ ने पीड़ित का मीडिया ट्रायल कर एक नई मिसाल कायम की थी।
मीडिया उस मामले में जज और ज्यूरी बन गया, लोग पंच बन गए। कैप्टन नानावती के गुनाह कबूल करने के बाद भी ज्यूरी ने उन्हें छोड़ दिया। वह ऐसा फैसला था जिसे मीडिया ने तय किया और ज्यूरी ने सुनाया था। मीडिया कवरेज का ही असर था कि अपराध करने के बावजूद पूरे देश की सहानुभूति नानावती के साथ थी।
आरुषी हत्याकांड
15 मई , 2008 को नोएडा में आरुषी तलवार की लाश उसके बेडरूम में मिली थी। मकान की छत पर एक नौकर की लाश पाई गयी थी। मीडिया इस मामले में जासूस और जज की भूमिका में कूद पडा। ऑनर किलिंग, आरुषी के पिता के अवैध संबंधों, आरुषी और नौकर के बीच सम्बन्ध – यानी हर तरह की कहानियां गढ़ी गयीं।
मीडिया, खासकर टीवी चैनलों पर यह नेरेटिव बनाया गया कि राजेश तलवार और नुपूर तलवार ने ही अपनी बेटी आरुषि की हत्या की है। यह उन्माद इस चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया था कि एक दिन किसी अंजान शख्स ने टीवी मीडिया की बातों को सच मानकर कोर्ट में राजेश तलवार को चाकू से घायल तक कर दिया।
हैरानी की बात है कि पुलिस ने भी इस नेरेटिव में मीडिया का साथ दिया। आरुषी के मां-बाप को कोर्ट ने दोषी मान कर सजा भी सुना दी, बाद में हाईकोर्ट से वे बरी हो गए लेकिन मीडिया ट्रायल बदस्तूर जारी रहा। अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।
इंद्राणी मुखर्जी निशाना बनीं
शीना बोरा नाम की एक लड़की की हत्या अप्रैल, 2012 में हुई। मौत के तीन साल बाद केस खुला और जांच शुरू हुई। जांच की शुरुआत से ही मीडिया ट्रायल शुरू हो गया। मीडिया ने शीना की मां इन्द्राणी मुखर्जी के बारे में तरह तरह की खबरें देना शुरू कर दिया। उसे हत्या का दोषी करार दे दिया। यह सब इस स्टेज पर हुआ जब जांच चल रही थी।
पुलिस ने इंद्राणी मुखर्जी और शीना के सौतेले पिता और मशहूर मीडिया हस्ती पीटर मुखर्जी को गिरफ़्तार कर लिया। इस मामले की जांच पहले मुंबई पुलिस कर रही थी। बाद में जांच का ज़िम्मा सीबीआई को सौंप दिया गया।
अभी तक मामला चल रहा है। लेकिन मीडिया इन्द्राणी को हत्यारिन घोषित कर चुका है। जाँच के दौरान जो भी जाँच एजेंसियों को मिला वो सब मीडिया का एक वर्ग भी हासिल करता गया जिसके आधार पर मीडिया ट्रायल किया जाता रहा।
सुनंदा पुष्कर की मौत का मामला
17 जनवरी , 2014 को कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर का शव दिल्ली के एक होटल में पाया गया था। थरूर के आधिकारिक बंगले की मरम्मत का काम चल रहा था जिसकी वजह से दंपति होटल में रह रहे थे। शशि थरूर के साथ उनकी तीसरी शादी थी।
मीडिया में खबरें चलने लगीं थीं कि सुनंदा और उनके पति के बीच सम्बन्ध ठीक नहीं थे। सुनंदा को जहर दे कर मारा गया है। सीधे सीधे शशि थरूर को दोषी बना दिया गया। जबकि उस समय तक डॉ. शशि थरूर सुनंदा की मौत के मामले में न तो अभियुक्त थे और न संदिग्ध।
हालाँकि बाद में दिल्ली पुलिस ने कोर्ट में दाखिल चार्जशीट में थरूर को आत्महत्या के लिए उकसाने और पत्नी के साथ क्रूरता बरतने का आरोपी बनाया। शशि अब जमानत पर हैं। यह मामला अब भी कोर्ट में विचाराधीन है।
अरुण जेटली ने कहा था
सुनंदा पुष्कर की रहस्यमयी मौत और उनके पति शशि थरूर को लेकर मीडिया में तरह तरह की खबरों की पृष्ठभूमि में तत्कालीन केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि मीडिया को इस बात पर आत्मावलोकन करना चाहिए कि जिन मामलों में लोगों की निजता शामिल हो, उनकी रिपोर्टिंग कैसे की जानी चाहिए।
सुनंदा मामले में मीडिया ट्रायल की निंदा करते हुए कहा था कि सुखिर्यों में रहने वाले मामलों में अदालतें अत्यंत दबाव में रहती हैं। उन्होंने मीडिया से आत्मनिरीक्षण करने की सलाह दी। उन्होंने कहा था कि किसी पति-पत्नी के बीच संबंधों या उनकी निजी बातचीत का सम्मान होना चाहिए।
सर्वजीत बना विलेन
वर्ष 2015 में सोशल मीडिया पर दिल्ली के एक वीडियो के वायरल होने के बाद एक युवक खलनायक की तरह उभरा था। यह वीडियो दिल्ली के तिलक नगर के ट्रैफ़िक सिग्नल का था, जहां जसलीन कौर नाम की लड़की ने सर्वजीत सिंह नामक युवक पर भद्दे कमेंट करने का आरोप लगाया था।
दिल्ली का एक आम लड़का अचानक एक ही रात में ‘उत्पीड़क’ के नाम से चर्चित हो गया। उसी दिन से सर्वजीत सिंह की ज़िंदगी बदल गई। जसलीन कौर ने सर्वजीत सिंह पर शोषण का केस दर्ज किया था। सोशल मीडिया और टीवी चैनलों ने सर्वजीत को कसूरवार ठहरा दिया था।
सर्वजीत को नौकरी से निकला दिया गया। वह तमाम तरह की मानसिक प्रताड़ना की जिन्दगी जीता रहा। लेकिन 4 साल बाद कोर्ट ने इस घटना के एक चश्मदीद के बयान पर सर्वजीत को इस आरोप से बरी कर दिया।
जब कोर्ट में केस चल रहा था, जसलीन पेश भी नहीं हुई। बताया गया कि वह कनाडा चली गई थी। जिस मीडिया ने सर्वजीत को विलेन घोषित करके दोषी ठहरा दिया था उसी मीडिया ने इस मामले के अंजाम पर पहुँचने पर सर्वजीत से माफी तक नहीं माँगी।
अमांडा मीडिया ने बनाया हत्यारिन
21 साल की अमेरिकी छात्र अमांडा नॉक्स जो कि पढाई करने के लिए इटली गई थी, उसे 2007 में अपनी फ्लैटमेट की हत्या का दोषी माना गया। 2009 में इटली में ही 26 साल की सजा सुनाई गयी।
इस बीच इटली का मीडिया और उसके पीछे - पीछे वैश्विक मीडिया भी अमांडा नॉक्स को मर्डरर, मैन-ईटर, साइकिलर बनाकर दर्शकों के सामने पेश करता रहा।
अदालत में मुकदमा चलने से पहले ही दुनिया भर में वह हत्यारिन घोषित कर दी गयी। लेकिन बाद में चलकर इस केस में कई मोड़ आए। आखिरकार 2015 में जाकर इटली की ही अदालत ने उन्हें हमेशा के लिए बरी किया।
ओ.जे. सिंम्पसन का मामला
अमरीका के नेशनल फुटबॉल लीग के प्रसिद्ध खिलाड़ी ओ.जे. सिम्पसन द्वारा कथित हत्या के मुक़दमे को ‘ट्रायल ऑफ़ द सेंचुरी’ कहा जाता है।
3 अक्टूबर ,1995 को सिम्पसन के मुक़दमे के फ़ैसले को अमेरिका में कोर्ट रूम से लाइव प्रसारित किया गया। जिसे 10 करोड़ से अधिक लोगों ने देखा। उनके ख़िलाफ़ अपनी पूर्व पत्नी निकोल ब्राउन सिम्पसन और उनके दोस्त रोनाल्ड गोल्डमैन की हत्या का मुक़दमा चला था।
लेकिन जूरी ने सिम्पसन को बरी कर दिया। ट्रायल के दौरान मीडिया में लगातार अपुष्ट और फ़ेक समाचार छपने के कारण जज को जूरी के सदस्यों को कई बार बदलना पड़ा। कई बार ट्रायल स्थगित करना पड़ा।
इराक के पास सामूहिक विनाश के हथियारों का खंडन
मई 2003 में बीबीसी की एक रिपोर्ट ने सरकार के इस दावे का खंडन किया कि इराक़ के पास सामूहिक विनाश के हथियार हैं, जो 45 मिनट के भीतर तैनात किए जा सकते हैं।
बीबीसी ने इस ख़बर के स्रोत के बारे में कोई खुलासा नहीं किया था। लेकिन हथियार विशेषज्ञ डॉ. डेविड केली का नाम खूब उछाला गया। इसके बाद डॉ. केली ने सांसदों की समितियों को दिए सबूतों के दौरान इस बात का खंडन किया कि उन्होंने बीबीसी को यह ख़बर लीक की है।
अपनी गवाही के दो दिन बाद, वो एक सुनसान इलाक़े में मृत पाए गए। उनकी पत्नी ने बाद में बताया कि उनके पति मीडिया द्वारा अपमानित किए जाने से बहुत परेशान थे।
बोबिट केस
अमेरिका में 1993 में घरेलू हिंसा की शिकार लोरेना बोबिट ने अपने पति जॉन वेन बोबिट के लिंग को काट दिया था। इसे अपनी कार की खिड़की से बाहर फेंक दिया था। उनका कहना था कि उनके पति ने उनकी शादी के दौरान भावनात्मक, शारीरिक और यौन शोषण किया।
विशेषज्ञों के विचारों को ध्यान में रखते हुए जूरी ने उन्हें बरी कर दिया। उनके पति के कटे लिंग का जहाँ तक सवाल है उसे सड़क पर से ढूंढ़ निकाला गया। उनके शरीर से इसे फिर से जोड़ा गया। इस काण्ड का जबरदस्त मीडिया ट्रायल हुआ था।
रोडनी किंग की पिटाई का मामला
1991 में अमेरिका के लॉस एंजेलिस शहर में अश्वेत रोडनी किंग की गोरे पुलिसवालों ने सरेआम पिटाई की थी। इस काण्ड को एक राहगीर ने अपने कैमरे में क़ैद कर लिया था। उनकी सरेआम हुई पिटाई वाली घटना और पुलिस वालों के ख़िलाफ़ मुक़दमे की सुनवाई को अमेरिका और विश्व भर की मीडिया ने छापा और प्रसारित किया।
अदालत के फ़ैसले से पहले ही मीडिया ने फ़ैसला सुना दिया था। पुलिस कर्मियों को दोषी माना था। लेकिन जब अदालत ने पुलिस कर्मियों को बरी कर दिया तो दुनिया भर में खलबली मच गई। इसके कारण शहर में पांच दिन आगज़नी, लूटपाट और गोलीबारी हुई, जिसमें 54 लोग मारे गए।
बोफोर्स तोप घोटाला
राजीव गांधी सरकार के कार्यकाल में बोफोर्स तोपों की खरीद का मामला खूब उछला था। मीडिया ने इस केस को हाथों हाथ लिया। झट से राजीव गाँधी को दोषी करार दे दिया।
जांच एजेंसियों की जांच एक तरफ चलती रही और मीडिया अपनी जांच चलाता रहा। जजमेंट सुना दिया। बोफोर्स घोटाले को राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने भी मीडिया ट्रायल करार दिया था।
एक स्वीडिश अखबार को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि कि देश के किसी भी कोर्ट ने इसके लिए ‘घोटाला’ शब्द का उपयोग नहीं किया है।
स्वीडन यात्रा से पूर्व प्रणब मुखर्जी ने यह इंटरव्यू दिया था। कहा था कि बोफोर्स सौदा पूरी तरह से मीडिया ट्रायल था। माना जाता है कि बोफोर्स सौदों के आरोपों के चलते 1989 के लोकसभा चुनावों में राजीव गांधी की हार हुई थी।
कोरोना वायरस का मामला
तबलीगी जमात के कई लोग अप्रैल में कोरोना वायरस पॉज़िटिव पाए गए थे। मीडिया के एक वर्ग ने इसकी कवरेज जिस तरह से की उससे लगा इसने अदालत की भूमिका संभाल ली है।
मीडिया ने उन्हें कोरोना आत्मघाती हमलावर कहा। उन्हें समाज में जानबूझकर वायरस फैलाने के लिए दोषी ठहराया गया था। न्यायपालिका ने हस्तक्षेप की दलीलों को अस्वीकार करते हुए कहा कि पत्रकारों को रिपोर्ट करने का अधिकार है।
हाल ही में महाराष्ट्र उच्च न्यायालय ने गिरफ़्तार तब्लीग़ी जमात के सदस्यों को बरी करते हुए आरोपियों के ख़िलाफ़ झूठ फैलाने में मीडिया की भूमिका के लिए इसे आड़े हाथों लिया।
मीडिया की सकारात्मक रिपोर्टिंग
हालाँकि इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि कुछ मामलों में मीडिया के दबाव के कारण केस खुले हैं। गुनाहगारों को सजा मिली है।
ऐसे प्रमुख केस हैं-जेसिका लाल, प्रियदर्शनी मट्टू, नैना साहनी मर्डर जिनमें मीडिया की सजगता के चलते ताकतवर लोगों को कटघरे में लाया जा सका। निर्भय मामला इसका बहुत बड़ा उदाहरण है जिसमें पूरे देश में एक लहर उत्पन्न कर दी थी।
मीडिया ने एक प्रहरी की भूमिका अदा करते हुए निर्भया, जेसिका लाल, हैदराबाद कांड जैसे मामलों में सवाल उठाये, जांच प्रक्रिया और अदालती फैसलों पर सवाल उठे वो एक प्रहरी की भूमिका के अंतर्गत किये थे। लेकिन ढेरों अन्य मामलों में मीडिया ने सीधे जजमेंट ही दे दिया।
मीडिया रिया को दोषी ठहरा चुका है
सुशांत सिंह राजपूत के कथित आत्महत्या या ह्त्या के मामले में अभी तक कोई कोई संदिग्ध या अभियुक्त नहीं है। लेकिन अधिकतर मीडिया का कवरेज सुशांत की दोस्त रिया चक्रवर्ती को दोषी ठहरा चुका है।
किसी पक्की ख़बर पर आधारित रिपोर्टिंग के बजाए मीडिया के एक वर्ग ने इस प्रकरण को एक तमाशे में बदल कर रख दिया है। मीडिया का एक वर्ग खुद ही जासूस, जज और जल्लाद की भूमिका निभा रहा है। यह तमाशा टीवी, समाचार पत्रों और सोशल मीडिया पर धड़ल्ले से चल रहा है । जांच एजेंसियां भी इसमें खुल कर मदद कर रहीं हैं।
मीडिया ट्रायल खतरनाक
क़ानून के विशेषज्ञों का मानना है कि मीडिया ट्रायल एक व्यक्ति के अधिकार को ख़तरे में डाल सकता है। मीडिया ट्रायल से न्यायालय की अवमानना भी हो सकती है।
तेलंगाना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रघुवेन्द्र सिंह चौहान ने 2011 में मीडिया ट्रायल पर अपने एक लेख में लिखा था – ‘प्री-ट्रायल पब्लिसिटी एक निष्पक्ष परीक्षण के लिए हानिकारक है।
अभियुक्त की गिरफ़्तारी और ट्रायल के पहले ही मीडिया का हल्ला शुरू हो जाता है। अभियुक्त को दोषी क़रार दे दिया जाता है। मीडिया अप्रासंगिक और जाली सबूतों को सच्चाई के रूप में पेश कर सकता है, ताकि लोगों को अभियुक्त के अपराध के बारे में आश्वस्त किया जा सके।’
सुप्रीट कोर्ट फटकार चुका है
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कई मौक़ों पर व्यक्तिगत पत्रकारों या मीडिया घरानों को सनसनीख़ेज़ और नाटकीय ख़बरें चलाने के लिए फ़टकार लगाई है। लेकिन जजों ने मीडिया के मामलों में हस्तक्षेप करने से काफ़ी हद तक परहेज़ किया है। सहारा इंडिया और सेबी के केस में सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया कवरेज के बारे में व्यवस्था दी थी।
देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस जे.एस.खेहर ने किसी भी मामले में संदिग्धों के मीडिया ट्रायल को लेकर चिंता जताई थी। उन्होंने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट इस बात को लेकर सीमा रेखा तय करेगा कि प्री-ट्रायल, जांच के दौरान पुलिसकर्मी कितनी बातें मीडिया को बता सकते हैं। क्योंकि मीडिया रिपोर्ट्स से कभी-कभी निष्पक्ष ट्रायल में दिक्कतें आने लगती हैं।
उन्होंने कहा था कि केंद्र सरकार की अडवाइजरी की तर्ज पर प्रस्तावित गाइडलाइंस में यह तय किया जाएगा कि क्या पुलिसकर्मी अभियुक्तों को कैमरे के सामने पेश कर सकते हैं या उनकी पहचान जाहिर की जा सकती है या नहीं। लेकिन अभी तक इस दिशा में कोई कदम नहीं बढाया गया है।
संविधान के मुताबिक़
- निष्पक्ष जांच का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 में दर्ज है और जिसे अनुच्छेद 14 से जोड़कर देखा जाना चाहिए।
- भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 19 में दर्ज है।
- भारत के संविधान का अनुच्छेद 19 (1) (ए) बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की गारंटी देता है।
- अनुच्छेद 19 (2) के अनुसार, यह अधिकार केवल ‘भारत की संप्रभुता और अखंडता के हितों, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता के संबंध में क़ानून द्वारा प्रतिबंधित किया जा सकता है।’
टीआरपी की जंग
बहरहाल, अदालतों ने समय समय पर मीडिया ट्रायल को रोकने का भी काम किया है। किन्हीं मामलों की कवरेज पर रोक लगाई है। सुशांत केस में भी कई जनहित याचिकाएं दाख़िल कीं गयीं हैं जिनमें मीडिया के एक वर्ग द्वारा किये जा रहे एक पक्षीय कवरेज पर रोक लगाये जाने की मांग की गयी है।
इसे भी पढ़ें समझिये अभी औरः तभी गांधी को मानेंगे, अपनाएंगे
भले ही इस केस में किसी तरह की रोक लग जाए लेकिन मीडिया ट्रायलबंद हो जाएगा इसमें संदेह है। क्योंकि मीडिया को अपनी टीआरपी नज़र आ रही है।
चैनलों में रिया से जुड़ी खबरों को लेकर गला काट प्रतिद्वंद्विता दिख रही है। मीडिया के एक बड़े वर्ग ने इसे सर्कस में बदल दिया है। इसमें बॉलीवुड कनेक्शन है, पैसा है, गर्लफ्रेंड है और ड्रग्स का कनेक्शन भी सामने आ चुका है।
ये हस्तयां खुलकर आईं
रिया के मीडिया ट्रायल के खिलाफ बॉलीवुड से राम गोपाल वर्मा, विद्या बालन, तापसी पन्नू, शिवानी दांडेकर, लक्ष्मी मंचू और स्वरा भास्कर आदि ने आवाज उठाने की हिम्मत दिखाई है।
स्वच्छ भारत अभियान की एंबेसडर लक्ष्मी मंचू का कहना है कि मीडिया ने एक लड़की को शैतान की शक्ल दे दी है। मैं काफी लोगों को इस मामले में चुप्पी साधे देख रही हूं। मैं सच नहीं जानती हूं मगर मैं सच जानना चाहती हूं।
विद्या बालन ने भी लक्ष्मी मंचू को इस मुद्दे पर अपनी बात रखने के लिए शुक्रिया अदा किया है। उधर कंगना रानौत भी सुशांत की तरफ़ से मुँह खेलते हुए बालीवुड में अंदर तक पैठी समूची गंदगी उजागर करने पर आमादा दिख रही हैं।
दुधारी तलवार
नेटफ्लिक्स ट्रायल बाय मीडिया नामक छह भाग की एक नई श्रृंखला है जिसमें अमेरिका में 6 प्रसिद्ध मामलों को चित्रित किया गया है। इस श्रृंखला से पता चलता है कि इन मामलों को मीडिया ने कैसे सनसनीखेज बनाया और इसने कितने लोगों के कैरियर और प्रतिष्ठा को नष्ट कर दिया। मीडिया ट्रायल अब एक दुधारी तलवार की शक्ल अख्तियार कर चुका है।
इसे भी पढ़ें लाख कोशिश करके देख लें, गांधी को मार नहीं पायेंगे जनाब!
पिछले दिनों सुशांत की तरह अभिनेता आशुतोष भाकरे और समीर शर्मा ने भी आत्महत्या की, लेकिन इन मामलों के बारे में मीडिया में कोई कानाफूसी तक भी नहीं हुई। उसे देश दुनिया में कोई और खबर नज़र ही नहीं आ रही है।
ये सवाल मीडिया के लिए बेमानी
देश के रक्षा मंत्री चीनी रक्षा मंत्री से बातचीत कर रहे हैं।
लोग कोरोना संक्रमण के चलते कितने परेशान है, कितने मर रहे हैं,
देश की अर्थव्यवस्था किधर जा रही है,
कोरोना से बचाव के टीके को लेकर क्या प्रगति है,
किसानों को खेतों के लिए खाद नहीं मिल पा रही है, ऐसे अनगिनत सवालों के जवाब जब मीडिया को जनता को सुझाने चाहिए या इन समस्याओं से परेशान जनता का प्रतिनिधित्व करना चाहिए तब वह रिया एपीसोड पर जुटी है।
गला तोड़ होड़
एंकर तो पार्टी हो गये हैं। दो मीडिया घरानों में एक दूसरे की खबर को ग़लत बताने की होड़ है। अपनी खबर को सही बताने का दौर पीछे छूट गया है।
फ़िल्म जगत में ड्रग्स के कारोबार व उसके विस्तार का जो चित्र प्रस्तुत किया जा रहा है वह तो बेहद डराने वाला है, सुशांत सिंह की हत्या हुई, मैं यह काम जाँच एजेंसियों पर छोड़े हुए हूँ।
इसलिए मीडिया के साथी हमें माफ़ करेंगे, इसे साबित करने में जुटा मीडिया जो कुछ दावा कर रहा है, वह सही है तो हमारे लिए यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम कहाँ आ गये हैं।
अंत में
हमारा समाज कहाँ पहुँच गया है। इस समाज के बूते हम दुनिया में विश्व गुरू बन पायेंगे यह संभव नहीं है। और यदि यह सब जो दावे से मीडिया द्वारा बताया व जताया जा रहा है वह हमारे समाज के एक हिस्से का ही सच है तो नि: संदेह हम कह सकते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है।
इसे भी पढ़ें अमेरिकी चुनावः जो बिडेन को भारी पड़ रही हैं कमला हैरिस
इस कसौटी पर फ़िल्म व मीडिया दोनों खरे नहीं उतर पा रहे हैं। दोनों एक झूठ को सौ बार बोल कर सच साबित करने के काम को अंजाम दे रहे हैं। या एक अधूरे सच को पूरे समाज का सच बताने का पाप कर रहे हैं।
राष्ट्र कवि दिनकर ने अपनी एक कालजयी कविता में जो तटस्थ हैं उनके भी अपराध इतिहास द्वारा लिखे जाने की बात कही है। पर यहाँ जो पक्ष विपक्ष में हैं, उन्हें दिनकर जी के शब्दों के बाद अपने बारे में सोचना चाहिए ।