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‘मेरा जिस्म, मेरी मर्जी’
महिला-दिवस पर पाकिस्तान में आजकल जबर्दस्त बहस चल रही है। जगह-जगह महिलाएं प्रदर्शन कर रही हैं, टीवी चैनलों और अखबारों में लोग एक-दूसरे पर शाब्दिक हमले कर रहे हैं।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
महिला-दिवस पर पाकिस्तान में आजकल जबर्दस्त बहस चल रही है। जगह-जगह महिलाएं प्रदर्शन कर रही हैं, टीवी चैनलों और अखबारों में लोग एक-दूसरे पर शाब्दिक हमले कर रहे हैं। ये हमले हो रहे हैं, औरतों के उस मार्च पर, जो ‘मेरा जिस्म, मेरी मर्जी’ के नारे पर आयोजित किए गए हैं। इस नारे के शब्द ही बड़े उत्तेजक हैं। उनका गलत अर्थ लगाया जाना एकदम आसान है। इस नारे का मतलब लोग यह निकाल रहे हैं कि औरतें अपने जिस्म का जो भी इस्तेमाल करना चाहें, वह हक उन्हें है और यदि नहीं है तो वह उन्हें मिलना चाहिए। अगर औरतें चाहें तो वे कई मर्दों से अपने जिस्मानी संबंध बना सकती हैं, वे अपनी पति से संबंध रखने से मना कर सकती हैं, वे चाहें तो शादी के पहले भी किसी से भी कोई रिश्ता बना सकती हैं। वे शादी करें, यह भी जरुरी नहीं है।
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वे शादी के बाद मां बनें या न बनें, यह भी उनकी मर्जी है। इस तरह के कई इल्जाम इस पाकिस्तानी तहरीक पर लगाए जा रहे हैं लेकिन यह सब इसलिए हो रहा है कि उसका नारा ही ऐसा है। उसका जो चाहे, वैसा मतलब लगा सकता है। उसके खिलाफ पाकिस्तान की कुछ औरतों ने ‘हया मार्च’ याने शालीनता मार्च भी निकाला। उन्होंने बाकायदा बुर्का वगैरह पहनकर ‘मेरा जिस्म, मेरी मर्जी’ का विरोध किया। उन्होंने इस्लामी कायदों और परंपरा के पालन पर जोर दिया। मेरी राय में ये दोनों तरह के जुलूस अतिवाद के परिचायक हैं।
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यदि नारी-मुक्ति के नाम पर हमारी महिलाएं यूरोप और अमेरिका की नकल करने लगेंगी तो परिवार नामक संस्था खत्म हो जाएगी और बेलगाम यौन-संबंध समाज को बेचैन बना देगा। दूसरी तरफ भारत और पाकिस्तान की महिलाएं यदि डेढ़ हजार साल पुराने अरबी रीति-रिवाजों का ही अनुकरण करती रहीं तो उनका जीना दूभर हो जाएगा। इस्लाम की मूल बातों को जरुर माना जाए लेकिन अरबों की अंधी नकल का कोई फायदा नहीं। बदलते हुए वक्त के साथ कदम से कदम मिलाकर चला जाना चाहिए। पाकिस्तान में महिलाओं के दो परस्पर-विरोधी आंदोलन मुझे अजीब-से लग रहे हैं। वहां तो ऐसा महिला-जागृति का आंदोलन चलना चाहिए, जो सारे इस्लामी जगत के लिए अनुकरणीय बन जाए।
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