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India Freedom Struggle: मेरे अनुभव दो जंगे आजादी के: 42-भारत छोड़ो, 75-एमर्जेंसी !

India Freedom Struggle: आज आजादी की जयंती पर मेरा गर्वित होना स्वाभाविक है। मैं भारत के स्वाधीनता जनसंघर्ष की उपज हूं। हमारे पिता संपादक स्व. के. रामा राव को अगस्त 1942 को यूपी पुलिस पकड़ ले गई थी। लखनऊ जिला जेल में कैद रखा।

K Vikram Rao
Published on: 29 Aug 2023 5:59 PM IST
India Freedom Struggle: मेरे अनुभव दो जंगे आजादी के: 42-भारत छोड़ो, 75-एमर्जेंसी !
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के. विक्रम राव- मेरे अनुभव दो जंगे आजादी के: Photo-Newstrack

India Freedom Struggle: आज आजादी की जयंती पर मेरा गर्वित होना स्वाभाविक है। मैं भारत के स्वाधीनता जनसंघर्ष की उपज हूं। हमारे पिता संपादक स्व. के. रामा राव को अगस्त 1942 को यूपी पुलिस पकड़ ले गई थी। लखनऊ जिला जेल में कैद रखा। उनका राष्ट्रवादी दैनिक “नेशनल हेराल्ड” बंद करा दिया गया था। ब्रिटिश राज द्वारा यातना का सिलसिला लंबाता रहा। बड़े भाई स्व. के. प्रताप राव लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र नेता थे। पुलिस को सरगर्मी से उनकी तलाश थी। तब का एक वाकया मानस पटल पर स्पष्ट हो आता है। सोमवार, 3 सितंबर 1945, की शाम थी। स्कूल से घर आकर मैंने बस्ता रखा। कक्षा दो का छात्र था। बाहर (मुहल्ला नजरबाग की) सड़क पर कोलाहल सुनाई पड़ा। आसमान से ब्रिटिश वायुसेना के जहाज रंगीन धारीधार झंडे बरसा रहे थे। अंग्रेजों का यूनियन जैक था। उत्सुक बच्चे उन्हें सब जमा कर अपनी छतों पर फहराना चाहते थे। उसी दिन जापान ने अमेरिका के समक्ष समर्पण कर दिया था। द्वितीय विश्वयुद्ध का एशिया क्षेत्र में अंत हो गया था। हिरोशिमा और नागासाकी अणुबम से ध्वस्त हो चुके थे।

तभी बड़े भाई श्री के. नारायण राव, (अधुना IAAS से रिटायर, बंगलूरवासी प्रतिष्ठित ज्योतिषी) ने हमें डांटा। आदेश दिया कि सड़क पर इन झंडों का ढेर लगाओ। मिट्टी का तेल और माचिस मंगवाई। होलिका दहन हो गया। हम सभी को तब एहसास हो गया था कि हम गुलाम हैं। गांधीजी को इन गोरों ने जेल में कैद किया है। तो ऐसा था मुझ शिशु का जंगे आजादी में प्रवेश का प्रथम सोपान। तब हमने जाना कि एक देश का दूसरे देश पर राज करना दासता कहलाता है। उसका विरोध होना चाहिए।

जब “नेशनल हेराल्ड” कार्यालय (कैसरबाग) में पड़ा छापा

तो ऐसा था मेरे जीवन का प्रथम दृश्य, साम्राज्यवाद के विरुद्ध। भारत की आजादी के लिए। तब 14 अगस्त, 1942 मेरे संपादक-पिता स्व. के. रामाराव को जिला जेल में रखा गया। नजरबाग के घर पर छापा डाला था। स्वाधीनता संग्राम से संबंधित दस्तावेज आदि की तलाश थी। फिर “नेशनल हेराल्ड” कार्यालय (कैसरबाग) में छापा पड़ा। अंग्रेजी शासकों की दृष्टि में वह सब क्रांतिकारी सामग्री थी।

तो ऐसा रहा मेरा बचपन। जब बच्चे जू या पार्क जाते थे, मेरा दौर अंग्रेजों के यूनियन जैक की चिता बनाने में गुजरता था। फिर एक अद्भुत, यादगार घटना हुई। जेल से छूटकर पिताजी आए। हम सबको रेल में बैठाकर नागपुर ले गए। पहली बार मैं रेल में बैठा था। तब तक सिर्फ सुना और पढ़ा था। वर्धा गए। वहां बजाजवाडी में रहे। इसे उद्योगपति जमनालालजी, महात्मा गांधी के दत्तक पुत्र, ने बसाया था। दो कमरेवाले घर में हम छः बच्चे रहे। एक सुबह पिताजी हम सबको बापू के दर्शन के लिए ले गए। सुबह उनका टहलने का समय था। हम सबने पैर छुए। अहोभाग्य थे।

मेरा बाल्यकाल अभाव में गुजरा। एक शाम घर लखनऊ में रसोई ठंडी थी। अनाज खत्म हो गया था। मोहल्ले के पंसारी ने पुराना बकाया न चुकाने तक नया राशन देने से इंकार कर दिया था। पिताजी जेल में। हम आठ भाई-बहन, उसमें सबसे बड़े प्रताप केवल अठारह वर्ष के। बड़े होने पर मां ने बताया कि कांग्रेस नेता और “हेराल्ड” के डायरेक्टर रफी अहमद किदवई ने अपने साथी अजित प्रसाद जैन (बाद में केंद्रीय मंत्री) को युवराजदत्त सिंह, राजासाहब ओयल (लखीमपुर खीरी), के पास भेजा। सहायता राशि लाकर उन्होंने पंसारी का पुराना उधार चुकाया। दानापानी लाये। रसोई फिर गर्म हुई। भूख दूर हुई।

राष्ट्रवादी दैनिक “नेशनल हेराल्ड” को जब इसके संस्थापक-संपादक मेरे पिता श्री के. रामा राव ने सितम्बर 1938 में प्रथम अंक निकाला था, तभी स्पष्ट कर दिया था कि लंगर उठाया है तूफान का सर देखने के लिए। बहुतेरे तूफान उठे, पर हेरल्ड की कश्ती सफर तय करती रही। दौर था द्वितीय विश्वयुद्ध का। छपाई के खर्चे और कागज के दाम बढ़ गये थे। हेरल्ड तीन साल के अन्दर ही बंदी की कगार पर था। संपादक के हम कुटम्बीजन तब माता-पिता के साथ नजरबाग के तीन मंजिला मकान में रहते थे। किराया था तीस रूपये हर माह। तभी अचानक एक दिन पिता जी हम सबको दयानिधान पार्क के सामने वाली गोपालकृष्ण लेन के छोटे से मकाने में ले आये। किराया था सत्रह रूपये। दूध में कटौती की गयी। रोटी ही बनती थी क्योंकि गेहूं रूपये में दस सेर था और चावल बहुत मंहगा था, रूपये में सिर्फ छह सेर मिलता था। हम दक्षिण भारतीयों की पसन्द चावल है। फिर भी लोभ संवरण कर हमें गेहूं खाना पड़ा। यह सारी बचत, कटौती, कमी बस इसलिए कि ‘हेरल्ड’छपता रहे। यह परिपाटी ‘हेरल्ड’ के श्रमिकों को सदैव उत्प्रेरित करती रही, हर उत्सर्ग के लिए।

अगला अनुभव मेरा हुआ, बिल्कुल निजी और गहरा था। प्रजातांत्रिक गणराज्य में कोर्ट द्वारा गैरकानूनी करार देने के बाद भी प्रधानमंत्री की गद्दी से चिपकी रहीं, तो यह अमान्य है। उनका विरोध होना चाहिए। आजादी जिसका मतलब है, उसका यह तकाजा है। मुझ जैसे साधारण श्रमजीवी पत्रकार ने इस दूसरी जंगे-आजादी में प्राणपण से शिरकत की। आरोप था डाइनामाइट से आतंक फैलाने का। पिताश्री की 1942 की याद ताजा हो आयी। लोकनायक जयप्रकाश नारायण दूसरे गांधीजी थे। मैं तब लोकतंत्र प्रहरी बना। एमर्जेंसी राज था। मैं पांच जेलों में तेरह महीने रखा गया।

मैं रोज 15 से 18 अखबार पढ़ता था

मुझ पत्रकार को बडौदा सेंट्रल जेल की तन्हा काल कोठरी में नजरबंद रखा गया था। सर्वाधिक अभाव अखरता था दैनिक अखबार न मिलना। जबकि “टाइम्स आफ इंडिया” के संवाददाता होने के नाते रोज 15 से 18 अखबार पढ़ता था। अब जीवन बड़ा अवसादग्रस्त हो गया था। यूं भी हम डायनामाइट केस के अभियुक्त को संजाए मौत तय थी। पर जीते जी पत्रकार को अखबार न मिलना ही मौत सरीखा हो गया था। जेलर मोहम्मद मलिक से मैंने प्रार्थना की कि अखबार दिलवा दें।

तभी मैंने जाना एक कर्मठ स्वयंसेवक के बारे में। वे मुझ संकटग्रस्त, पीड़ित नागरिक के बड़े मददगार थे। इसीलिए याद हैं। वे एक स्वयंसेवक तथा लोकतंत्र हेतु जनसंघर्ष में संघर्षरत थे। बात मई 1976 की है। संघ का यह कर्मठ तरुण स्वयंसेवक बड़ौदा में तैनात था। दायित्व था कि जेल में बंद लोकतंत्र प्रहरियों के परिवार की देखभाल करना। जेलर मालिक साहब ने बड़ौदा के संघ कार्यालय तक मेरी दुख की गाथा पहुंचा दी। फिर एक तरुण रोज जेल में समाचारपत्र के बंडल दे जाता था।

मुझे पता भी न चलता कि वह तरुण कौन था ? पर लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जयंती पर (11 अक्टूबर 2015) थी। नई दिल्ली के विज्ञान भवन में लोकतंत्र-प्रहरियों का सम्मान आयोजित था। स्व. कल्याण सिंह जी भी सम्मानित हुए थे। केंद्रीय मंत्री वेंकय्या नायडू (बाद में उपराष्ट्रपति) समारोह के आयोजक थे। मुझे ताम्रपत्र देते नरेंद्र मोदी ने कहा : “विक्रमभाई आप नहीं जानते होगें, मैं ही बड़ौदा जेल में समाचार पत्र दे जाता था।” मैं प्रफुल्लित हो गया। इतने करुणामय हैं नरेंद्र मोदी। गौरव महसूस होता है कि मेरे स्व. पिता और मैं दोनों भारत को आजाद और लोकतांत्रिक बनाए रखने में क्रियाशील रहे।

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। E-mail –[email protected])

K Vikram Rao

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