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देशी सोच के प्रणेता कालजयी युगपुरुष पं. दीन दयाल उपाध्याय
संघ के एक शिविर में खाना खाने के बाद एक स्वयंसेवक उनका हाथ धुलवा रहा था। चुनाव का दौर था। स्वयंसेवक ने पूछा- अपने कितने जीतेंगे। दीन दयाल जी ने उत्तर दिया- 425 जीतेंगे। स्वयंसेवक ने कहा- कैसे? तो उन्होंने बताया- जो जीतेंगे सभी स्वयंसेवक होंगे।
योगेश मिश्र
रचनाकार, राजनेता अपने राजनीतिक चिंतन, विचारधारा व सांस्कृतिक-वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर महज बहस ही नहीं करते, लिखते ही नहीं, उस पर अड़े और खड़े भी रहते हैं। अपने सपनों को आकार देने के लिए ‘वोट देहि‘ की राजनीति से दूर राष्ट्र चिंतन की धारा में जनसाधारण एवं राजनेता के बीच निरन्तर होने वाले वार्तालाप और वैचारिक आदान-प्रदान को गति देते हैं। अपने आप को सत्ता के लोभ और सत्तालोक के आकर्षण से बचाते हुए स्वयं को चिंतनधारा से जोड़े रख कर राष्ट्र के बहुतेक समस्याओं पर चिंतन मनन करते हुए राष्ट्रीय अस्मिता तक उसकी पहचान बताने वाले तत्वों को आधार और गति प्रदान करते हैं। यद्यपि यह करना बहुत कठिन है, परन्तु कालजयी युगपुरुष पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद के नए सूत्र का सूत्रपात करते हुए इस काम को असाधारण ढंग से आकार दिया।
एकात्म मानववाद
उन्होंने ‘सम्पूर्ण व्यवस्था का केंद्र मानव होना चाहिए’ इस लिहाज से एकात्म मानववाद गढ़ा जो ‘यत् पिंडे ततब्रह्मांडे‘ के न्याय के अनुसार समष्टि का जीवमान प्रतिनिधि और उसका उपकरण है। भौतिक उपकरण मानववाद के सुख के साधन हैं, साध्य नहीं।
जिस व्यवस्था में, भिन्न रुचि लोक का विचार केवल एक औसत मानव अथवा शरीर, मन, बुद्धि व आत्मायुक्त उनके ऐषणाओं से प्रेरित पुरुषार्थ चातुष्ट्याशील, पूर्ण मानव के स्थान पर एकांगी मानव का ही विचार किया जाय, वह अधूरी है।
एकात्म मानववाद वह है जो एकात्म समष्टियों का एक साथ प्रतिनिधित्व करने की क्षमता रखता है। इसी दर्शन के साथ हमें जीवन की सभी व्यवस्थाओं का विकास करना होगा।
वह मानते थे कि ठहरे हुए जल जैसे विचार समाज और राष्ट्र को गति नहीं दे पाते। समाज और राष्ट्र को गति देने के लिए अनिवार्य शर्त यह है कि ऐसी विचारधारा हो जिसमें समस्याएं लहरों की तरह जन्म तो लें परन्तु उन्हें एक धारा अपने गतिचक्र में एकात्म कराती हुई समाधान के अनंत सागर की ओर लेती चली जाय।
पंडित दीन दयाल उपाध्याय जी ने मानव कल्याण के लिए जिस एकात्म मानववाद के दर्शन की स्थापना की, वह भारतीय मनीषा के हीरक कणों की ही मानिंद थे। भारतीय मानस को स्पर्श करने वाले प्रतीकों द्वारा व्याख्यायित किए गए थे।
अंत्योदय लक्ष्य बना
उनका स्वयं का जीवन बेहद अभाव में गुजरा। अभाव की छाया इतने गहरे तक पड़ी कि अंत्योदय लक्ष्य बन गया। खुद के बारे में न सोच कर वह यह सोचते थे कि किसी की स्थिति ऐसी न हो। इसी में वह लग पड़े।
वह मानते थे कि व्यक्ति की तरह राष्ट्र के भी चार घटक होते हैं। राष्ट्र का भी शरीर होता है। वह भूमि और जनता होती है। राष्ट्र का मन साथ-साथ जीने मरने, एक साथ रहने के संकल्प के साथ जनता अपने विकास और अभ्युदय के लिए जिस आचार सारिणी का नियमन कराती है, वह राष्ट्र की बुद्धि है।
बुद्धि ही धर्म है। धर्म के अनुसार चलते हुए देश के सामूहिक लक्ष्य और आदर्श देश की आत्मा हैं। जिसे एकात्म मानववाद दर्शन से चित्रित किया गया है। ‘चिति’ राष्ट्र का मूलभूत स्व है। ‘स्व’ का विचार किये बिना स्वराज का कोई अर्थ नहीं। स्वतन्त्रता ही हमारे विकास और सुख का साधन बन सकती है।
परतंत्रता में स्व दब जाता है। इसीलिए सभी राष्ट्र, समाज, स्वराज की कामना करते हैं। इसके लिए बड़े से बड़े संघर्ष में जुटे रहते हैं। चिति संस्कृति की दिशा भी निर्णायक होती है। उनके लिए राष्ट्र महज़ एक भूगोल नहीं वरन एक संस्कृति है। एक निर्जीव भौगोलिक इकाई न होकर एक चैतन्य पूर्ण सन्देश है।
मानव की सांस्कृतिक यात्रा का शव के शिव में परिणत करने में भगीरथ प्रयत्नों का नर को नारायण में विकसित करने का अथक चिंतन के बारे में वह कहते थे कि ऐसा करने के लिए हमें एकात्म भाव अपनाते हुए परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली स्थितियों में समन्वय स्थापित करना चाहिए।
किसी भी समाज की संस्कृति उसके विकास के प्रवाह की दिशा निर्धारित कराती है। संस्कृति मूलतः समन्वयात्मक संस्कृति महज भावनात्मक सम्बोधन नहीं है। वह मूलतः जीवन तत्व है।
परिवर्तन औषधि
अतीत से जुड़ा हुआ उनका मस्तिष्क वर्तमान में सक्रिय रह कर भविष्य की चिंता करते हुए जीवन संबंधी भारतीय मान्यताओं और तकनीकी प्रगति की ओर तालमेल बैठाने की कोशिश करता था। उनका मानना था कि अनेक पुरानी संस्थाएं बदलेंगी। नयी जन्म लेंगी। इस परिवर्तन के कारण जिनका पुरानी संस्थाओं में निहित स्वार्थ है, उन्हें धक्का लगेगा।
कुछ लोग स्वभाव से ही अपरिवर्तनवादी होते हैं। उन्हें भी सुधार और सृजन के इन प्रयत्नों से कष्ट होगा। किन्तु बिना औषधि के रोग ठीक नहीं होता। अतः यथास्थिति का मोह त्याग कर नवनिर्माण करना चाहिए। परन्तु हमारी रचना में प्राचीन के प्रति अवज्ञा अथवा अश्रद्धा का भाव नहीं होना चाहिए और न ही उससे चिपटे रहने का दम्भ।
वह कहते थे कि हम अतीत के गौरव से अनुप्राणित होना चाहते हैं किन्तु उसे राष्ट्र जीवन का सर्वोच्च बिन्दु नहीं मानते। वे वर्तमान के प्रति यथार्थवादी रहे परन्तु उससे बंधे नहीं। हमारी आंखों में भविष्य के स्वर्णिम सपने होने चाहिए परन्तु हमें निद्रालु नहीं होना चाहिए बल्कि उन सपनों को साकार करने वाला जागरूक कर्मयोगी होना चाहिए। अनादि, अतीत, अस्थिर वर्तमान तथा चिरंतन भविष्य की कालजयी सनातन संस्कृति के हम पुजारी हैं।
केंद्रीयकरण का विरोध
वह मानते थे कि आर्थिक व राजनीतिक सामर्थ्य का केन्द्रीयकरण प्रजातंत्र के विरुद्ध है। एक व्यक्ति या संस्था के प्रति राजनीति, आर्थिक व सांस्कृतिक शक्ति का विकेन्द्रीकरण भी लोकतंत्र के मार्ग में बाधक है।
उनका निष्कर्ष था कि सामान्यतया राज्य की विभिन्न इकाइयों को प्रशासन के क्षेत्र से हट कर अर्थ के क्षेत्र में प्रवेश नहीं करना चाहिए। शक्तियों के विकेन्द्रीकरण के साथ-साथ उनका ज़ोर विभक्तिकरण पर भी था।
वे धर्म को एक व्यापक तत्व मानते थे, जिसमें कई सम्प्रदाय और कई उपासन पद्धतियां शामिल हैं। वे इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे की महज दण्डनीति समाज को चला नहीं सकती। उसके लिए धर्म का होना ज़रूरी है।
‘हर हाथ को काम और हर खेत को पानी‘ का नारा उनके जनसंघ का परचम था। वे ‘हर हाथ के काम’ के सिद्धांत को आर्थिक प्रजातंत्र का मापदंड मानते थे। काम को लेकर उनकी दृष्टि यह थी कि वह पहले जीविकोपार्जन हेतु हो, दूसरे उसे चुनने की स्वतंत्रता भी हो। यदि काम के बदले राष्ट्रीय आय का यथोचित भाग नहीं मिलता तो वे उस काम को बेगार की कोटि में रखते थे।
जीवन यात्रा
25 सितम्बर, 1916 को जन्मे पंडित दीनदयाल उपाध्याय को भारतीय जीवन दृष्टि से ओतप्रोत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में जाने का पहली बार अवसर अपने मित्र बालू जी महासबदे के साथ मिला। बीए की पढ़ाई के दौरान वह कानपुर में भाऊ राव देवरस जी के सान्निध्य में आये।
सन् 1942 में लखीमपुर जिले में प्रचारक के रूप में अपनी पूर्णकालिक सांस्कृतिक अधिष्ठाता यात्रा शुरू करते हुए 1945 में वह उत्तर प्रदेश के सहप्रांत प्रचारक बने। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर 1948 में लगाए गए प्रतिबन्ध के विरुद्ध जो देशव्यापी सत्याग्रह हुआ, उसका नेतृत्व उन्हीं के हाथों में था।
उन्होंने भारतीय संस्कृति के गौरवशाली पक्षों को उजागर करते हुए ‘सम्राट चन्द्रगुप्त‘ नामक किताब लिखी। ‘जगद्गुरु शंकराचार्य‘ उनके द्वारा लिखा गया उपन्यास है। ‘अखंड भारत क्यों’ और ‘भारतीय अर्थनीति की दिशा’ पुस्तकों में उनकी लेखकीय क्षमता का पता चलता है।
किताबों का लेखन व प्रकाशन
इसके अलावा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार के मराठी जीवन चरित्र का उन्होंने हिंदी अनुवाद भी किया। राष्ट्रजीवन की समस्याएं, एकात्म मानववाद, लोकमान्य तिलक की राजनीति, जनसंघ सिद्धांत और नीति, जीवन का ध्येय, राष्ट्रीय आत्मानुभूति, हमारा कश्मीर, अखंड भारत, भारतीय राष्ट्रीय धारा का पुनः प्रवाह, भारतीय संविधान पर एक दृष्टि, इनको भी आज़ादी चाहिए, टैक्स या लूट जैसी किताबें लिखने के साथ-साथ उन्होंने 1947 में ‘राष्ट्रधर्म‘ प्रकाशन की स्थापना की।
‘राष्ट्रधर्म‘ मासिक पत्रिका शुरू की। ‘स्वदेश‘ नामक दैनिक पत्र निकाला। अटलबिहारी वाजपेयी इसमें उनके सहयोगी रहे। ‘पाञ्चजन्य‘ का प्रकाशन भी इन्हीं के मार्गदर्शन में शुरू हुआ। सरकारी दमनचक्र के चलते ‘पाञ्चजन्य‘ के प्रकाशन को जब स्थगित करना पड़ा तब उन्होंने ‘हिमालय‘ नामक पत्रिका निकाली। इस पर भी प्रतिबन्ध लगा तो उन्होंने ‘देशभक्त‘ का प्रकाशन आरम्भ किया।
जनसंघ की स्थापना
21 सितम्बर, 1951 को उन्होंने लखनऊ में एक सम्मेलन बुलाकर जनसंघ की स्थापना की। भारतीय जनसंघ ने अपने जन्म से ही देश की एकता, अखंडता, सामाजिक न्याय तथा देश के आर्थिक विकास तथा सुरक्षा के लिए उधार ली गयी विचारधारा को अनुपयुक्त मानना आरम्भ कर दिया था। वह 1951 में जनसंघ के अखिल भारतीय महामंत्री बनाये गए। 1967 के कालीकट में हुए जनसंघ के अधिवेशन में वह पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाये गए।
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इनकी तारीफ में यह कहा था कि यदि मुझे ऐसे दो दीनदयाल मिल जाए तो मैं देश का राजनीतिक नक्शा बदल दूंगा। देश के बाहर भी भारतीय मित्रों के बीच उन्होंने ‘लन्दन जनसंघ फोरम’ की स्थापना की।
वह मानते थे कि हिन्दू धर्म अनेक प्रचंड आघातों के बाद भी जिस संजीवनी पर जिन्दा है, वह है- ‘यत्पिंडम तत्ब्रह्मांडे सर्वमिदं खलुब्रह्मा तथा एकम साद विपरहा, बहुधा वदन्ति।‘ उनका मानना था कि यदि हम भारत की आत्मा को समझना चाहते हैं तो हमें उसे राजनीति और अर्थनीति के चश्मे से देखने के साथ-साथ सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी देखना चाहिए।
भूख से भूख पैदा करने का विरोध
भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही हो सकती है। वे राजनीति के माध्यम से एक भूख को मिटाने के लिए दूसरी भूख पैदा करने के सवाल के घोर विरोधी थे।
यही कारण है कि जब वे जौनपुर से अपने जीवन का पहला और अंतिम चुनाव लड़ रहे थे तो जातिगत आधार पर प्रस्तावित एक बैठक में बोलने से उन्होंने यह कह कर इनकार कर दिया था क्योंकि भारतीय जनसंघ का जीवन राष्ट्र श्रद्धा है।
जब जाति के आधार पर वोट चलने लगा, तब उन्होंने अपने सभी सहयोगियों को कह दिया कि आप सभी लोग दीपक छाप के लिए वोट मांगिये। अगर किसी ने यह कह दिया कि मै पंडित या ब्राह्मण हूं तो अगली गाड़ी से दिल्ली चला जाऊंगा। पं. दीन दयाल जी हर कीमत पर जीत नहीं चाहते थे।
उस चुनाव में उनके साथ काम करने वालों को आज इस बात का मलाल है कि देश के इस महान राजनीतिक व्यक्तित्व को चुनाव की शतरंगी चाल के चलते यहां का अवाम ठीक से समझ नहीं पाया।
एक जोड़ी कपड़े
गोपीपुर गांव के निवासी 88 वर्षीय हनुमान प्रसाद सिंह के मुताबिक उनके चाचा स्वर्गीय श्याम नारायण सिंह जनसंघ के समर्पित कार्यकर्ता थे। उनके चलते दीनदयाल जी उनके घर आये थे। चुनाव में कई बार वह उनके गांव गोपीपुर भी आये। सादगी की प्रतिमूर्ति दीनदयाल जी एक जोड़ी कपड़े पर ही जीवन गुज़ारते थे।
पंडित जी चाहते थे कि पहले गांव का विकास हो। उनका सपना था कि योजनाएं ऐसी हों कि गांव के अंतिम व्यक्ति तक विकास की किरण पहुंच सके। जब तक गांव का अंतिम व्यक्ति विकसित नहीं होगा तब तक देश के विकास की कल्पना अधूरी है।
वह सुबह भोर में उठ कर देर रात तक काम करते थे। सूर्योदय के साथ ही पूजा अर्चना कर जनसम्पर्क अभियान पर निकल जाते थे।
काशी की शरण में
मड़ियाहूं तहसील के 75 वर्षीय अवकाश प्राप्त शिक्षक रामजी मौर्या के मुताबिक वे दीनदयालजी के संपर्क में अपने ससुर हरिश्चंद्र मौर्या के चलते आये। चुनाव के दौर में दीनदयाल जी कहा करते थे, मैं कृष्ण की नगरी से आकर काशी की शरण में हूं। मेरी इच्छा यमदग्नि ऋषि की तपस्स्थली की सेवा करना है।
महरूपुर गांव के निवासी टी.डी.पी.जी. कॉलेज के प्रबंधक 79 वर्षीय अशोक कुमार सिंह के मुताबिक उनका परिवार पहले जनसंघ का हिस्सा था, आज भाजपा का। जौनपुर जनसंघ की बेहद सुरक्षित सीट मानी जाती थी। ज़िले की जनता जनसंघ के एक नेता की साज़िश की शिकार न होती तो दीनदयाल जी ने यहां विजय का ध्वज फहराया होता।
अशोक जी के बड़े भाई उमानाथ सिंह ने जनसंघ के टिकट पर विधानसभा का प्रतिनिधित्व भी किया। अवकाश प्राप्त शिक्षक और पत्रकार रहे 75 वर्षीय हरिश्चंद्र श्रीवास्तव, नदौली के निवासी पंडित रामराज उपाध्याय तथा वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश सिंह, कजगांव निवासी इंद्रदेव सिंह, परशुरामपुर गांव के रहने वाले पी.सी. विश्वकर्मा के मुताबिक चुनाव हारने के बाद दीनदयाल जी दो दिन जौनपुर में रुके।
ठिकाना कार्यकर्ताओं का घर या राजा की हवेली
चुनाव में खर्च करने वालों का हिसाब चुकता करने के बाद यहां से गये। 86 वर्षीय वरिष्ठ पत्रकार पंडित चंद्रेश मिश्र बताते हैं कि 1962 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार आचार्य बीरबल सिंह को जनसंघ प्रत्याशी ब्रह्मजीत सिंह ने हराया था। उनके निधन के बाद उपचुनाव में सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट और जनसंघ सहित सम्पूर्ण विपक्ष ने संयुक्त उमीदवार के रूप में दीनदयाल जी को उतारा था।
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इस चुनाव में दीनदयाल जी के प्रचार में डॉ. लोहिया, जेबी कृपलानी, अटल बिहारी वाजपेयी और डाॅ. मुरली मनोहर जोशी ने घर-घर जाकर प्रचार किया था। चुनाव के दौरान दीनदयाल जी जनसंघ के कार्यकर्ताओं के घर या राजा की हवेली में ही रुकते थे।
उस चुनाव में दीनदयाल जी के सहयोगी रहे 79 वर्षीय कैलाश नाथ विश्वकर्मा के अनुसार दीनदयाल जी ने एक सप्ताह पूर्व बता दिया था कि वह चुनाव नहीं जीत रहे हैं। वह अपने भाषण में विकास की जगह एकात्म मानववाद और अंत्योदय की बातें करते थे।
अपने जीवन की सार्थकता को रेखांकित करते हुए वह कहते थे कि सभी देशवासी हमारे बांधव हैं। जब तक हम इन सभी बंधुओं को भारत माता के सपूत होने का सच्चा गौरव प्रदान नहीं करा देंगे, तब तक चुप नहीं बैठेंगे।
जूता चमकाने को दे दिया गमछा
जौनपुर के रामदयालगंज के 70 वर्षीय रामकृष्ण त्रिपाठी की मानें तो जिस दिन दीनदयाल जी की मौत की खबर आयी, उस दिन संघ के सर संघ चालक माधव राव सदाशिव गोलवरकर जी जौनपुर के टीडी कॉलेज में आयोजित संघ के तीन दिवसीय प्रशिक्षण शिविर में मौजूद थे।
दीन दयाल जी की सहृदयता बनावटी नहीं थी। रेल के डिब्बे में जा रहे थे तो सामने बैठे एक अधिकारी के जूते पर पॉलिश करने एक बच्चा आया लेकिन उस बच्चे के पास जूता चमकाने का कपड़ा नहीं था। नतीजतन, उस अफसर ने पॉलिश कराने से मना कर दिया। बच्चा निराश हुआ।
दीन दयाल जी उठे और अपनी अटैची से अपना गमछा निकाला। उसका एक सिरा फाड़ कर बच्चे को पकड़ा दिया और कहा- पॉलिश कर दो। एक छोटा सा कपड़ा न होने के कारण तुम्हारा नुकसान हुआ। कपड़ा रखा करो।
425 जीतेंगे
संघ के एक शिविर में खाना खाने के बाद एक स्वयंसेवक उनका हाथ धुलवा रहा था। चुनाव का दौर था। स्वयंसेवक ने पूछा- अपने कितने जीतेंगे। दीन दयाल जी ने उत्तर दिया- 425 जीतेंगे। स्वयंसेवक ने कहा- कैसे? तो उन्होंने बताया- जो जीतेंगे सभी स्वयंसेवक होंगे।
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अगर तुम यह पूछते कि भारतीय जनसंघ के कितने जीतेंगे तो मेरा उत्तर दूसरा होता। कर्म उनकी साधना था। एक बार बैठक में वह रात 12 बजे तक जगे, इसके बाद बिस्तर पर जाकर आधी रज़ाई ओढ़ी और आधी बिछा ली। फिर प्रस्ताव का अंग्रेज़ी अनुवाद करने लगे।
इसी बीच गोविंदाचार्य जी उनके पास आ गए। दीन दयाल जी ने गोविंदाचार्य जी से कहा, ‘मुझे 5 बजे उठा सकते हो? चाय पिला सकते हो?’ गोविंदाचार्य जी ने उन्हें सुबह उठाया और चाय पिलाई। 5 बजे ही वह शाखा के लिए निकल पड़े।
सात विधायकों को निकाल दिया
किसी पर हॉवी नहीं होना उनका स्वभाव था, पर वह अपनी बात को दृढ़ता से कहते और रखते थे। दृढ़ता से करते भी थे। राजस्थान में ज़मींदारी उन्मूलन का सवाल था। जनसंघ ज़मींदारों के पक्ष में नहीं था। वह ज़मींदारी उन्मूलन चाहता था। लेकिन राजस्थान में भारतीय जनसंघ के 9 में से 7 विधायक पार्टी के इस प्रस्ताव के खिलाफ थे। उनके रियासतों से ताल्लुक थे।
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दीनदयाल जी को जब यह पता लगा तो वह राजस्थान पहुंच गए। उन्होंने सात विधायकों को पार्टी से निकाल दिया। केवल दो विधायक बचे, जिसमें एक भैरो सिंह शेखावत थे। सिद्धांतों के प्रति दृढ़ता उनकी आदत थी। हालांकि व्यवहार में वह ओवरबेयरिंग नहीं करना चाहते थे।
देशी सोच की सरकार
पं. दीनदयाल जी और डाॅ. लोहिया जी दोनों मिलकर ‘देशी सोच की राजनीति और अर्थनीति’ का दस्तावेज़ तैयार कर रहे थे। सन् 1967 की संयुक्त सरकार में डॉ. लोहिया जी ने बहुत सोच समझ कर तमाम मुद्दों पर विचार-विमर्श के बाद जनसंघ के साथ सरकार बनाने का फैसला किया था।
यह फैसला भी देसी सोच की राजनीति और अर्थनीति के दस्तावेजों का कुछ अध्याय था। जिसके मुताबिक समाजवाद कभी भी अपना घोषित लक्ष्य प्राप्त कर सका तो ऐसा इसी भारतीय संस्कृति के आधार पर ही हो सकेगा।
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पर फरवरी में पं. दीनदयाल जी हम सबको छोड़ कर चले गए। उनकी पूरी संपत्ति उनकी अटैची थी। सन् 1967 में ही अक्टूबर में डाॅ.लोहिया जी चले गए थे। पं. दीनदयाल जी को डाॅ. लोहिया के बाद सिर्फ चार महीने मिले। उनके निधन के साथ ही उनकी एकमात्र संपत्ति अटैची भी इस देशी सोच के दस्तावेजों से खाली मिली।