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अकीदतमंदों से गुजारिश!
यह करबद्ध इल्तिजा है, मिन्नत है, अपील है, दरख्वास्त है हर दानीश्वर, इल्मी, ईमाम, अकीदतमंद, मजहबी रहनुमाओं से, खुदा, परवरदिगार और अल्लाह के नेक बंदों से, जो गंगाजमुनी तहजीब के रखवाले हैं, कौमी इकजहती के पैरोकार हैं।
के. विक्रम राव (K. Vikram Rao)
यह करबद्ध इल्तिजा है, मिन्नत है, अपील है, दरख्वास्त है हर दानीश्वर, इल्मी, ईमाम, अकीदतमंद, मजहबी रहनुमाओं से, खुदा, परवरदिगार और अल्लाह के नेक बंदों से, जो गंगाजमुनी तहजीब के रखवाले हैं, कौमी इकजहती के पैरोकार हैं। जरा इस पर गौर करें। सेक्युलर भारत में ऐसी बातें नहीं होनी चाहिये। पंथनिरपेक्ष भारत में ऐसा करना और मानना कदापि गवारा नहीं होगा। यह संविधान की भावना की हत्या करता है।
कुरान मजीद की कुछ आयातों पर यूपी के राजनेता जनाब वसीम रिजवी ने उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की है। इस पर सुनवाई होनी है। इन आयातों का हिन्दी अनुवाद इन्द्रसेन और राजकुमार ने पेश किया है। कुरान मजीद के अनुवादक मोहम्मद फारुख खां, प्रकाशक मक्तबा अल हस्नात, रामपुर उ.प्र. 1966 हैं। इनमें कुछ निम्नलिखित आयातों का एक पोस्टर छापा गया था। इसके कारण इन दोनों पर इण्डियन पीनल कोड की धारा 153ए और 265ए के अन्तर्गत (एफ.आई.आर. 237/83यू/एस, 235ए, 1 पीसी) हौजकाजी पुलिस स्टेशन, दिल्ली में दर्ज हुयी थी। फिर मुकदमा चलाया गया। इसमें उल्लेख हैं:
1— ''फिर, जब हराम के महीने बीत जाएं, तो 'मुश्रिको' को जहां-कहीं पाओ कत्ल करो, और पकड़ो और उन्हें घेरों और हर घातकी जगह उनकी ताक में बैठो। फिर यदि वे 'तौबा' कर लें 'नमाज' कायम करें और जकात दें तो उनका मार्ग छोड़ दो। निःसंदेह अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दया करने वाला है।'' (पा० 10, सूरा. 9, आयत 5,2 ख पृ. 368)।
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2— ''हे 'ईमान' लाने वालो! 'मुश्रिक' (मूर्तिपूजक) नापाक हैं।'' (10.9.28 पृ. 371)।
3— ''निःसंदेह 'काफिर तुम्हारे खुले दुश्मन हैं।'' (5.4.101 पृ. 239)।
4— ''हे 'ईमान' लाने वालों! (मुसलमानों) उन 'काफिरों' से लड़ो जो तुम्हारे आस पास हैं, और चाहिए कि वे तुममें सख्ती पायें।'' (11.9.123 पृ. 391)।
5— ''जिन लोगों ने हमारी ''आयातों'' का इन्कार किया, उन्हें हम जल्द अग्नि में झोंक देंगे। जब उनकी खालें पक जाएंगी तो हम उन्हें दूसरी खालों से बदल देंगे ताकि वे यातना का रसास्वादन कर लें। निःसन्देह अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वदर्शी हैं'' (5.4.56 पृ. 231)।
6— ''हे 'ईमान' लाने वालों! (मुसलमानों) अपने पिता और भाईयों को अपना मित्र मत बनाओ यदि वे ईमान की अपेक्षा 'कुफ्र' को पसन्द करें। और तुम में से जो कोई उनसे मित्रता का नाता जोड़ेगा, तो ऐसे ही लोग जालिम होंगे'' (10.9.23 पृ. 370)।
7— ''अल्लाह 'काफिर' लोगों को मार्ग नहीं दिखाता'' (10.9.37 पृ. 374)
8— ''हे नबी! 'काफिरों' और 'मुनाफिकों' के साथ जिहाद करो, और उन पर सख्ती करो और उनका ठिकाना 'जहन्नम' है, और बुरी जगह है जहां पहुंचे'' (28.66.9 पृ. 1055)।
9— ''अल्लाह ने इन 'मुनाफिक' (कपटाचारी) पुरुषों और मुनाफिक स्त्रियों और काफिरों से 'जहन्नम' की आग का वादा किया है जिसमें वे सदा रहेंगे। यही उन्हें बस है। अल्लाह ने उन्हें लानत की और उनके लिए स्थायी यातना है।'' (10.9.68 पृ. 379)।
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10— ''हे नबी! 'ईमान वालों' (मुसलमानों) को लड़ाई पर उभारो। यदि तुम में बीस जमे रहने वाले होंगे तो वे दो सौ पर प्रभुत्व प्राप्त करेंगे, और यदि तुम में सौ हो तो एक हजार काफिरों पर भारी रहेंगे, क्योंकि वे ऐसे लोग हैं जो समझबूझ नहीं रखते।'' (१०.८.६५ पृ. ३५८)।
11— ''हे 'ईमान' लाने वालों! तुम यहूदियों और ईसाईयों को मित्र न बनाओ। ये आपस में एक दूसरे के मित्र हैं। और जो कोई तुम में से उनको मित्र बनायेगा, वह उन्हीं में से होगा। निःसन्देह अल्लाह जुल्म करने वालों को मार्ग नहीं दिखाता।'' (6.5.51 पृ. 267)।
इसे प्रकाशित करने पर दिल्ली के थाने हौजकाजी पुलिस ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 153 ए और 265 ए के तहत प्राथमिकी (237/83/यू/एस, 235—ए—1) दर्ज की गयी थी। इसे आरोपी इन्द्रसेन और राजकुमार ने छापा था।
उन पर अदालती कार्रवाई की गयी। मेट्रोपोलिस मजिस्ट्रेट न्यायाधीश जेडएस लोहाट ने 31 जुलाई 1986 को निर्णय देते हुये दोनों आरोपियों को बाइज्जत निर्दोष करार दिया था।
न्यायाधीश ने फैसले में लिखा था: ''मैंने सभी आयातों को कुरान मजीद से मिलान किया और पाया कि सभी अधिकांशतः आयातें वैसे ही उद्धृत की गई हैं जैसी कि कुरान में हैं। लेखकों का सुझाव मात्र है कि यदि ऐसी आयातें न हटाईं गईं तो साम्प्रदायिक दंगे रोकना मुश्किल हो जाएगा। मैं अभियोजन पक्ष के वकील की इस बात से सहमत नहीं हूं कि आयातें 2,5,9,11 और 22 कुरान में नहीं है या उन्हें विकृत करके प्रस्तुत किया गया है।''
उक्त दोनों आरोपियों को बरी करते न्यायाधीश ने निर्णय दिया कि: ''कुरान मजीद'' की पवित्र पुस्तक के प्रति आदर रखते हुए उक्त आयातों के सूक्ष्म अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि इनसे एक तरफ मुसलमानों और दूसरी ओर देश के शेष समुदायों के बीच मतभेदों की पैदा होने की आशंका है।''
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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(यह लेखक के निजी विचार हैं)