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अमान्य है मुझे सुप्रीम कोर्ट का फैसला !

शाहीनबाग़ (दिल्ली) में 101 दिन (दिसंबर-मार्च 2020) तक प्रायोजित रास्ता रोको अभियान पर अपना निर्णय देकर सुप्रीम कोर्ट ने असंख्य भुक्तभोगियों को तनिक भी राहत नहीं दी|

Newstrack
Published on: 8 Oct 2020 9:46 AM GMT
अमान्य है मुझे सुप्रीम कोर्ट का फैसला !
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शाहीनबाग़ में प्रदर्शन में हुए नुक्सान पर SC के फैसले पर के. विक्रम राव का लेख (social media)

के. विक्रम राव

लखनऊ: शाहीनबाग़ (दिल्ली) में 101 दिन (दिसंबर-मार्च 2020) तक प्रायोजित रास्ता रोको अभियान पर अपना निर्णय देकर सुप्रीम कोर्ट ने असंख्य भुक्तभोगियों को तनिक भी राहत नहीं दी|

राजधानी के ये उपभोक्ता करोड़ों रूपये की हानि सह चुके हैं | सड़क पर रोज घंटों समय बर्बाद होना, कार्यालय में देरी के कारण उत्पादकता में घाटा होना, छात्रों के स्कूल, मरीज की एम्बुलेंस, यात्रियों के गंतव्य स्थल पहुँचने, फुटकर व्यापारियों का दैनिक कारोबार, सार्वजनिक संपत्ति को इरादतन क्षति इत्यादि बिन्दुओं पर अदालती निर्णय मौन है |

फैसला केवल अकादमिक है|

“सार्वजनिक स्थल पर विरोध प्रदर्शन का अधिकार किसी को भी नहीं है | क्योंकि इससे जनजीवन बाधित होता है |”

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बस ! वाह !!

मुद्दा यह है कि दोषकर्ता तो उन्मुक्त रहा, भुगतने वाला निरीह आम नागरिक बस यूं ही रफा-दफा कर दिया गया|

क्या हरजाना मिला ?

कौन है उनके अकूत हानि का दोषी ?

हानि पूर्ति कैसे और कब होगी ?

सवाल शीर्ष न्यायालय से है, जो गणराज्य में एकमात्र दंडाधिकारी है|

क्या न्यायाधीश-त्रय को इस बात का दर्द नहीं हुआ कि स्कूली बच्चों की बस फंसी रही घंटों तक?

मरीज के लिए एम्बुलेंस अटकी रही और बीमार मौत की ओर बढ़ता गया?

दो और तीन पहियों के चालकों के पेट्रोल का व्यय लम्बे रास्ते के कारण तीन माह में लाखों का हुआ होगा?

समय नष्ट होने के कारण कार्यालय को कितने परिमाण में नुकसान भुगतना पड़ा होगा ?

भला हो परवरदिगार का ! कहीं कम्युनिस्ट चीन और इस्लामी पाकिस्तान दिल्ली पर हमले कर देते तो ये नागरिकता कानून-विरोधी जमातें दिल्ली की सड़कों पर तीन–चार शाहीनबाग और सजा देतीं| रक्षा मंत्रालय निकट ही है|

क्या हश्र होता ?

मुद्दा बड़ा यह है कि सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठ वकीलों तथा एक बड़े प्रशासनिक अधिकारी को उपद्रव शांति हेतु वार्ता के लिए वह शाहीनबाग रवाना कर सकती है|

तो वार्ता विफल होते ही जज साहबान दिल्ली पुलिस को निर्देश क्यों नहीं दे सकते थे कि आम भारतीय नागरिक और राजमार्ग उपभोक्ता का उसका संविधानप्रदत्त मूलाधिकार मुक्त आवागमनवाला, क्यों न सुरक्षित रहे ?

मौलिक अधिकार व्यक्तिगत होते हैं| समाज या बहुसंख्यक भीड़ द्वारा उस मूलाधिकार को बाधित नहीं किया जा सकता है |

इसी सिद्धांत पर अमरीका के अश्वेतों को हक़ दिलाने के लिए सिविल वार हुआ था| राष्ट्रपति एब्राहम लिंकन की हत्या हुई थी| क्योंकि अमरीका संविधान की घोषणा है कि “समस्त मानव समान जन्मे हैं|”

शाहीनबाग के प्रदर्शनकारियों द्वारा किये गए विध्वंस का अभिप्राय यही था कि “हमारी मांगे पूरी हों, चाहे जो मजबूरी हो|”

एक व्यवस्थित समाज का सदस्य होने के नाते, मेरे वोट से निर्मित शासन से अपेक्षा करना मेरा हक़ है कि मेरी कानूनी सुविधाओं का हनन न हो| न्यायालय रक्षक बने|

अदालती जांच द्वारा स्पष्ट हो सकता था कि एक वैश्विक, मजहबी और नस्ली अभियान की मदद में इतना अकूत धन कहाँ से आ रहा था?

रियाल, दीनार, डॉलर, पाउंड आदि ?

वे जो हजारों बकरे, बत्तख, मुर्गियां रोज हलाल होकर बिरयानी के आकार में इन कथित प्रदर्शनकारियों को उपभोग में मिलती थी|

इनका सप्लायर कौन था ?

बिल कौन भुगतान करता था ?

संसद द्वारा पारित विधान के विरोध में फौजी अंदाज में इतने सशक्त आक्रमण के पीछे कौन लोग थे ?

अपेक्षा थी कि एक जाँच समिति (न्यायमूर्ति की अध्यक्षता में) बनती और पैसों का हिसाब-किताब पता चल जाता|

यूं भी आतंकी हमलों का सामना करने में भारत का सालाना खरबों रुपया खर्च होता है| अपार जानमाल की क्षति होती है | जब इतना “बड़ा जनांदोलन” चले तो उसके प्रायोजकों के अपराध का निर्धारण तो कानूनी अपरिहार्यता है |

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प्रश्न भी उठता है|

यदि अपने मानवाधिकार के प्रति इन शाहीनबागियों में इतनी शिद्दत थी तो महज चीन के विषाणु से खौफ खाकर सब क्यों भाग गए?

जंग जीतने तक डटे रहते ! कोरोना योद्धा कहलाते| फ़तेह बहादुर बने रहते, रणछोड़ नहीं !

दिल्ली हाई कोर्ट से सर्वोच्च न्यायालय जवाब तलब कर सकता था कि उसने कैसे कह दिया कि यह पूरा मुद्दा पुलिस से जुड़ा है?

एक लाख ट्रकें खड़ी रहें| बारह घंटे तक बच्चे स्कूल न पहुँच सकें| बोर्ड परीक्षाएं छूट जाएँ| उद्योग केंद्र नोयडा दिल्ली से कट जाये| यह मानवी त्रासदी है|

इतने घोर अपराध पर भी इन उद्दंडों पर तनिक भी कार्रवाही नहीं !

चार महीने का शिशु मोहम्मद जहान शाहीनबाग के शिविर में जनवरी की ठण्ड से मर जाए|

उसके माता-पिता पर पुलिस द्वारा शिशु हत्या का मुकदमा क्यों नहीं चलाया गया?

जामिया मिलिया की अबोध छात्रा सफूरा जर्गर प्रदर्शनकारियों के शिविर में रात बिताने के बाद कुंवारी माँ (13 अप्रैल 2020) बन जाए, तो उस पुरुष पर क्या कदम उठाया गया ?

वह भी पाक रमजान महीने में ! क्या कानून से बचने हेतु यह हीला हवाली था ?

ऐसी वारदात पर तो शरियत कानून एकदम स्पष्ट है| ढेले, ईंटे, पत्थर और कंकड़ से चौराहे पर उसे मौत दिया जाता है| इस्लाम राष्ट्रों में यही दस्तूर है|

सर्वोच्च न्यायालय को योगी आदित्यनाथ के नियम को वैध करार देना चाहिए| जो भी प्रदर्शनकारी सार्वजनिक संपत्ति का तोड़फोड़ करता है, उसी का घर, जायदाद कुर्क कर, हरजाना वसूला जाए|

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ऐसे अदालती आदेशों की अपेक्षा थी|

सर्वोच्च न्यायालय ने बस भविष्य के लिए सचेत किया है | “आइन्दा” ऐसी हरकत की इजाजत न हो|

प्रश्न है कि जो घटा है उसका गुनहगार कौन ?

किसे सजा मिले ?

पीड़ितजन पुनर्विचार-याचिका द्वारा सर्वोच्च न्यायलय से मुआवजा दिलवाने की गुजारिश अवश्य करें| उनका अधिकार ही है और राष्ट्रीय कर्तव्य भी|

तब होगी लज्जतदार बिरयानी बेजायका !!

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