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लॉकडाउन के बाद की दुनिया, तलाश खिड़की के बाहर जीवन की

घर में या यू कहें कि हर कमरे में एक खिड़की ज़रूर होनी चाहिए। घरमें सही दिशा में खुलने वाली खिड़की हो तो लगता है जीवन है और जीवन में गति बनी हुई है। चाहे वह खिड़की बंद ही क्यों न हो। देखना है लॉकडाउन के दौर में घरों में क़ैद और अंदर बाहर करने वाले समाज ने खिड़की बनाई है या नहीं।

राम केवी
Published on: 27 April 2020 6:59 AM GMT
लॉकडाउन के बाद की दुनिया, तलाश खिड़की के बाहर जीवन की
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योगेश मिश्र

लॉकडाउन के दौरान आपमें ज़रूर बहुत से विचार आये होंगे। आपने अपने आचार व्यवहार में बहुत से परिवर्तन किये होंगे। घरों में बंद रहने के दौरान खिड़की या बालकनी से बाहर की दुनिया देखनी चाही होगी। आपने ये ज़रूर सोचा होगा कि लॉकडाउन की बंदी के दौर में अपने शहर को काश अपनी आँखों से देख पाते! कुछ मट्ठी भर लोगों को ही यह सुविधा और सौभाग्य मयस्सर हुआ होगा। जिन लोगों को यह अवसर नहीं मिला होगा वे मन मसोस कर रह गये होंगे। जिनको मिला होगा उनके लिए दो चार दिन तो सन्नाटा बुनता शहर, एकदम ख़ाली पड़ी काली रपटीली सड़कों, भीड़भाड़ से मुक्ति ने लुत्फ़ दिया होगा। पर बाद में वह अभी काटने दौड़ने लगी होंगी।

ये वो शहर तो नहीं

सबसे पहले हम आपके लॉकडाउन के शहर के कुछ मंजर से आपको रूबरू कराते हैं। ऊर्जा से भरे युवाओं के दल, ठिठोली करती युवतियों का गोल, फेरीवाले सभी कुछ अदृश्य हैं। अगर लॉकडाउन के दौर में आपको बाहर निकलने का अवसर हाथ लगता है तो ये दृश्य एक पल को जीवंत होते हैं और फिर अदृश्य हो जाते हैं।

हवा साफ़ हो गई है। आसानी से साँस ले सकते हैं। बालकनी से आकाश अच्छा लगता है। आसमान साफ़ और नीला दिखने लगा है। शहरों में तो यह हमेशा भूरा दिखाई पड़ता था। आकाश की नीलिमा के आनंद का आनंद है। लगने लगा है कि चिड़ियां इतनी इतना मीठा बोलती हैं। चिड़ियों की चहचहाहट में गूँजते संगीत में डूबा उतराया जा सकता है।

नदी की आवाज और पत्तों की सरसराहट

यदि आपके शहर के बीच से कोई नदी गुज़रती हो तो आजकल उसकी हिलोरें सुनी जा सकती हैं। अलसाई दोपहरी में वह उनींदी नहीं रहती। कल कल करके बहती रहती है। पानी की ऊपरी सतह से नदी की तलहटी तक देखी जा सकती है। शिक्षण संस्थान गुम सुम हैं। बेतकल्लुफ बैठकें स्थगित हैं। धुएं से दम भी नहीं घुटता। हवा के साथ उड़ते सूखे पत्तों की सरसराहट सुनी जा सकती है।

आसपास गूंजती ख़ामोशी के साथ सुर मिलाया जा सकता है। मेट्रो की लयबद्ध ध्वनि बंद हैं। शहर इस वक़्त सन्नाटे को जी रहा है। उसकी गति पर विराम लग गया है। नीरवता के आनंद की सीमा होती है। शोर न हो सही और जीवंतता की अनुभूति तो होनी ही चाहिए। इस बदलाव का लुत्फ़ है। दुश्वारी भी। लेकिन उम्मीद है कि इस चुप्पी से नए संवाद का जन्म होगा।

कितना और क्या बदलेगा

अपने शहर के बारे में यह सब जानने समझने के बीच या उसके पहले-बाद में आपने ज़रूर सोचा होगा कि कोरोना संकट के बाद कि दुनिया और समाज कैसे होंगे? हमारे समाजार्थिक जीवन में कितना और क्या क्या बदलाव होगा? क्योंकि जिस दुनिया ने वैश्विकता के लिए नज़दीक आने का वादा किया था। वही समाज फ़ासला बनाने की प्रार्थना कर रहा है।

जो समाज कभी एक दूसरे के प्रति कटुता का प्रदर्शन करता था। दयनीय रूप से विभाजित था। वह अब एक दूसरे के प्रति करुणा का प्रदर्शन करने के लिए रचनात्मक तरीक़े अपना रहा है। सोशल डिस्टेंसिंग मानव सभ्यता के लिए एक नयी क्रिया है। लॉकडाउन इसका दिलचस्प अनुप्रयोग।

हद में अलग थलग लेकिन अकेले नहीं

कह सकते हैं कि क़ुदरत ने इंसानों को उसकी हद बतायी है। इन दिनों सबको ख़ुद के साथ रहने का मौक़ा मिल रहा है। बड़े शहरों में फ़ैमिली लाइफ़ वापस आ रही है। अच्छी आदतों को पास बुलाया जा रहा है। जैसे हाथ धोने की आदत। साफ़ सफ़ाई की आदत। मास्क और सेनिटाइजर के इस्तेमाल करने जैसी अच्छी आदतें।

ये आगे तक क़ायम रही तो वायरल और मौसमी बीमारियों के प्रकोप में कमी आ सकती है। बिना वजह एक दूसरे का हालचाल पूछने की आदत। सूर्योदय और सूर्यास्त देखने की आदत। जीने से अधिक ज़िंदा रहने की चुनौती स्वीकार करने की आदत।

हमें एक दूसरे के लिए भावनात्मक सहारा बनना होगा। नरेंद्र मोदी के आह्वान पर बजाई गई तालियों के पीछे सामुदायिक आवेग भी है। जो बताता है हम बेशक़ अलग थलग हैं, लेकिन हम अकेले नहीं है। तालियों के छोटे स्वरों ने आपस में जुड़कर गली में कोलाहल रचा।

आदमी और चीजों की वैल्यू की समझ

दोस्तों को, रिश्तेदारों को, घर वालों को समझने की आदत। उन लोगों द्वारा आपको समझने की आदत। हर किसी को अपनी ज़िंदगी समझ में आई। यह भी समझ में आया कि आपको कौन कितना प्यार करता है। कौन किस तरह की भूमिका का निर्वाह कर रहा है ।

लोग आदमी और चीजों दोनों का वैल्यू करना सीखेंगे। अकेले रहने की समझ और क्षमता दोनों विकसित होगा। हम अपनी परिस्थितियों और महसूस होने वाले अभावों की तुलना करेंगे। जिसके चलते अनावश्यक आर्थिक और सामाजिक दबाव से मुक्ति मिल सकेगी।

सामाजिक ढांचे में बदलाव की शुरुआत

समाज वर्चुअल सोशल स्पेस में बदलने को तैयार है। लोग ऑन लाइन मीडिया की ओर रुख कर चुके हैं। नतीजतन, हम धीरे धीरे एक ऐसे समाज में बदलते जाएंगे जहाँ सीधा संवाद लगभग ख़त्म हो जाएगा। सब वर्चुअल, ऑनलाइन और डिजिटल टेक्नो संवादों के रूप में रह जाएगा।

दुनिया की डिजिटल निर्भरता बढ़ेगी। व्यापक स्तर पर ऑन लाइन शिक्षा दौर शुरू होगा। वर्क फ्राम होम का चलन तेज होगा। नौकरियां जाएंगी। वेतन में कटौती होगी। अर्थव्यवस्था में मंदी आयेंगी।

आदतों में बदलाव से क्या बदलेगा

बेरोज़गारी में प्रति एक फ़ीसदी वृद्धि का असर नशे में 3.5% वृद्धि के रूप में सामने आता है। लोगों के खानपान की आदतों में बदलाव होगा। घर के खाने पर निर्भरता बढेगी। लोग मांसाहार कम करेंगे। पर्यटन उद्योग को पलीता लग जायेगा। लोग यात्राएँ कम करेंगे। जिन्हें करना होगा इनमें अधिकांश अपने वाहनों का प्रयोग करेंगे। गले मिलने, आलिंगन, चुंबन का चलन ख़त्म होगा। नमस्ते प्रणाम चल निकलेंगें। पार्कों में जोड़े सटे बैठे नहीं दिखेंगें। होटल, रेस्टोरेंट के कारोबार बेहद छोटे आकार के हो जायेंगें।

घर के खाने पर बढ़ेगी निर्भरता

इसको इससे भी समझा जा सकता है कि ऑनलाइन कुकिंग ट्यूटोरियलस, रेसिपी वेबसाइट और फ़ूड ब्लॉग्स के प्रति लोगों की रुचि बढ़ी है। जो आना गाइनेस की पुस्तक ‘मैग्नोलिया टेबल, ए कलेक्शन ऑफ़ रेसिपी फ़ॉर गेदरिंग’ अमेजन पर दूसरी सबसे ज़्यादा बिकने वाली किताब है।

गूगल पर ऑनलाइन कुकिंग क्लासेस शब्द की खोज में पाँच गुना वृद्धि हुई है। मार्च के दूसरे हफ़्ते में यूट्यूब पर कुक विद मी शीर्षक वीडियो को औसतन रोज़ाना देखने वालों में सौ फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है। ख़राब आहार अमेरिका में मृत्यु दर का सबसे बड़ा कारण है। और ऐसा भोजन काफ़ी हद तकपेप्सी, कोला, चिक फ़िल ए और मैकडोनाल्ड जैसी कम्पनियां द्वारा दिया जाता है।

मितव्ययी जीवन की ओर

आमदनी घटने से लोग अपने ख़र्च में कमी करेंगे। लोग सिर्फ़ वही चीज़ें ख़रीदेंगे जो सबसे ज़रूरी हैं। अब लोग अपनी गैर-जरूरी खपत को कम करेंगे। लोग डेस्टिनेशन वेडिंग और इंटरनेशनल शेफ की प्राथमिकताएं बदल देंगे।

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जीवन की निस्सारता का सबक़ आगे की ज़िंदगी के उपभोग व रहन सहन की शैली को तय करने का आधार बनेगा। केवल स्थाई ऩशेबाज ही बचे रहेंगे। शौक़िया और नये पीने खाने वालों की आदत छूट चुकी होगी। भौतिक दूरी का दायरा बढ़ेगा। शहरों से मोहभंग होगा।

रिवर्स माइग्रेशन के प्रभाव

लॉकडाउन के बाद भूखे प्यासे मज़दूर जो गाँव लौट चुके हैं, उनकी बड़ी संख्या रोज़गार के लिए अब शहर नहीं लौटने वाली है। असंगठित क्षेत्र के ४० करोड़ लोग ग़रीबी के दायरे में आ जायेंगें। इस साल के शुरुआती 3 महीनों में फिक्स एसेट में निवेश पिछले साल की तुलना में 16.1 फ़ीसदी गिर गया है। रिवर्स माइग्रेशन का दौर शुरू होगा।

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बाइ सेपियन्स- ए ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ हम्यूमनकाइंड’ के लेखक इतिहासकार युवाल नोआह हरारी का कहना है कि हमारे पास दो विकल्प हो सकते हैं, इस संकट का सामना हम राष्ट्रवादी अलगाव से करेंगे या फिर फिर वैश्विक साझेदारी और एकजुटता प्रदर्शित करते हुए। वैश्विक तबाही और इसमें चीन की भूमिका को देखते हुए चीन के सामान की माँग नहीं रह जाएगी। इम्यूनिटी पासपोर्ट की बात चल निकलेगी।

चिकित्सा पेशा अपनी खोई हुई गरिमा वापस पा लेगा। सम्मान का हक़दार कूड़ा उठाने वाला भी बन जायेगा। बदनाम पुलिसवालों को भी हम नई नज़रों से देखने लगे लगेंगे।

खिड़की की जरूरत सभी को होगी

उम्र के बढ़ते जाने के साथ व्यक्ति का संसार सिकुड़ता जाता है। पर आपाधापी इतनी कि सुबह घर से निकलते तो शाम के पहले कभी घर लौटना उनके लिए संभव नहीं था। लेकिन उम्र के साथ वह अनिच्छा पूर्वक सिमटते चले गये। शहर से मोहल्ला, गली, उसके बाद घर, आँगन और अंत में कमरे तक।

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नये बच्चों के लिए यह सिमटना ठीक नहीं है। उन्हें तो विस्तार लेना है। घर में ज़िंदगी ठहर नहीं जाती है। घर में ही ज़िंदगी आगे बढ़ने के रास्ते ढूँढती है। घर में यह रास्ता मिलता है। पर ज़रूरी है कि घर में या यू कहें कि हर कमरे में एक खिड़की ज़रूर होनी चाहिए। घरमें सही दिशा में खुलने वाली खिड़की हो तो लगता है जीवन है और जीवन में गति बनी हुई है। चाहे वह खिड़की बंद ही क्यों न हो। देखना है लॉकडाउन के दौर में घरों में क़ैद और अंदर बाहर करने वाले समाज ने खिड़की बनाई है या नहीं।

( लेखक न्यूजट्रैक/अपना भारत के संपादक हैं)

राम केवी

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