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भूचाल आ गयाः जब आईं दो चिट्ठियां, संतोख सिंह धीर की कहानी
कोई दो महीनों बाद मैं अपनी बैठक में किताब पढ़ रहा था कि रणजीत की बेटी आई और चें-चें करने लगी। ‘ताऊ जी, आपको मेरी दादी बुला रही है।‘ ‘अभी आ जाओ ताऊ जी।‘ कहती हुई लड़की चली गई।
संतोख सिंह धीर
मैं गली से जा रहा था कि उनके घर के सामने से निकलते ही ताई इंदू की अंदर से आवाज आई : ‘ओ काका संतोख सियान! इस चिट्ठी को जरा बता तो दे!’
‘ला ताई!’ मैंने कहा।
ताई ने खुशी-खुशी दरवाजे पर आकर मुझे खत पकड़ाया।
‘अमर की लगती है?’ मैं दरवाजे पर खड़ा-खड़ा लिफाफे का कोना फाड़ने लगा।
‘लगती तो उसी की है - अच्छी तरह टिकट जो लगा हुआ है।‘
‘उसी की है!’ मैंने कागज की तह खोलते हुए कहा।
धीरे-धीरे मुस्कराती रणजीत, घूँघट सँभालती सास के पीछे आकर खड़ी हो गई। सास-बहू अपने समुंदर पार के बोल सुनने को तरस जो रही थीं।
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कागज की चारों तहों में सुनहरे सपने थे। मैं पहले मन में ही पढ़ता रहा कि रफा-दफा सुना दूँगा। पर मेरे होठों पर हल्की-हल्की मुस्कान आ जाती। मेरी आँखें चिट्ठी पर लगी थीं और सास-बहू की मेरे चेहरे पर। वो मेरे चेहरे से पढ़ती चिट्ठी पर अपने अनुमान लगातीं। मेरी मुस्कान उनको समुंदर पार के बारे में एक तसल्ली दे जाती।
पर जिन बातों पर मुझे रह-रहकर हँसी आती, वह चिट्ठी की बोली और लिखने का ढंग था। न उर्दू, न पंजाबी और था भी सबकुछ। पता नहीं कौन-सी बोली थी पर मैं उसको फौजी बोली कह सकता था। एक-एक बात को कई-कई बार दोहराया गया था। बोली के बिना, चिट्ठी का विषय ही एक अजीब-सा था, जो मुझे खुल के हँसने भी नहीं दे रहा था। जैसे खिचड़ी की बोली में मक्खन का दिल डाल दिया हो।
लिखा था :
‘लिखता आपका बेटा अमर सिंह। किसी से पढ़वाती मेरी प्यारी माँ। दोनों हाथ जोड़के, माथा टेकने के बाद कहता हूँ कि यहाँ सब कुछ सुख-आनंद से है। और थोड़ा सुख-आनंद वाहे-गुरु जी से चाहता हूँ। क्या बात है अर्से से तुम्हारा खत नहीं आया है। सब ठीक तो है। या मुझसे नाराज हो। दास समझ के माफ कर दो।‘
‘और मौसम का क्या हाल है, दूध-छाछ कितना है? फसल अच्छी है? किस तरह की है। जीजे से कहना, अमरो को दो महीने को छोड़ दे। तीज के दिन हैं। और साथ ही माँ का दिल भी लगा रहेगा। जरूर जोर देके कहना और मेरी तरफ से भी याद कहना।‘
‘और रणजीत कौर को यह चिट्ठी जरूर सुनाना। उसको भी मेरा सत-श्री-अकाल कहना। और रणजीत कौर, तू जी लगाकर रहा कर। काम-धंधा किया कर। बूढ़ी माई को तकलीफ तो नहीं देती! मैं जल्दी ही छुट्टियों में आऊँगा। पर आजकल साहब कुछ कहता नहीं। पता नहीं कब तक आऊँगा।‘
‘और क्या सोचती है - फिक्र न कर रणजीत कौर! मुझे याद है। सैंडल और पॉउडर और सुर्खी भी ले आऊँगा। मुन्नी के खिलौने भी याद से ले आऊँगा।‘
मैंने पढ़ते-पढ़ते आँखें उठाकर देखा। रणजीत घूँघट में से मुझे प्यार से देख रही थी। उसकी काली मोटी आँखों में नशा उतरने लगा था। उसकी पलकें मेरे मुँह से झड़ते फूलों को बड़े आदर से उठा रही थीं। जैसे ये समुंदर पार किसी फौजी के दिल से निकले थे। मेरे होंठ उसको प्यारे लगते क्योंकि इसमें उसके पति का दिल बोल रहा था।
‘और आगे रणजीत कौर! तुझे मैं हुक्म देता हूँ, क्योंकि तुम पर मेरा हक है, तू खुद मुझे खत लिखवाया कर। हंटीवाले पंडित राम दियाल ताऊ से लिखवाया कर। खूब लिखवाया कर दिल का घूँघट खोल के। घर की सारी खबर कह दिया कर। खूब लंबा खत होना चाहिए, कई पेजों का, जिसको मैं आगे-आगे पढ़ता जाऊँ, पीछे-पीछे भूलता जाऊँ...।‘
चुन्नी से भिंच-भिंच कर रखी हुई हँसी रणजीत अब छुपा न सकी। वह खुल के हँसने लगी। वह सचमुच खुलके हँसने लगी, ताई इंदू और गली-मोहल्ले के दूसरे लोग भी चिट्ठी सुन के हँसने लगे। परदेसी की चिट्ठी को, गाँव में, गली-मोहल्ला इकट्ठा होकर सुनता है।
ताई इंदू, बहू को हँसते देख मस्त हो रही थीं। वह खुश थीं कि रोज चुप रहने वाली बहू, कभी-कभी चिट्ठी आने पर खुश हो जाती है। साथ ही उसे यह भी खुशी थी कि बहू का बेटे पर विश्वास पक्का हो जाता।
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‘आगे लिखा है ताई!’ मैंने भी मुस्कराते हुए चिट्ठी आगे पढ़ना शुरु की :
‘और रणजीत कौर! दूसरों की चालों का ख्याल रखना। किसी को अपने भेद मत बताना। यह जमाना बड़ा खराब है। और माँ जी को पता है कि रणजीत कौर को कहीं जाने नहीं देना। मैं जल्दी ही आऊँगा। और खत का जवाब जल्दी देना। संधु के बखतौर को मेरी याद कहना। धोबी निहाली को माथा टेकना और बच्ची को प्यार है। सब लोगों को वाहे-गुरु जी की फतेह कहना। खत का जवाब जल्दी देना है।‘
मैंने चिट्ठी तह की, लिफाफे में डाली और ताई इंदू के हाथ में दे दी और मैं चला गया। पर मैं सोचने लगा, ‘फौजियों की पत्नियाँ जीवन में कितनी बार विधवा का जीवन जीती हैं और फौजी कितनी बार जीवन में खुशियाँ मनाते हैं।‘
इससे पहले कई बार अमर सिंह की चिट्ठी आई। मैं उसी तरह सुनाता और कई बार जवाब भी लिखता। हर चिट्ठी में आने के लिए आज-कल लिखा होता। पर अमर सिंह आ नहीं सका। लड़ाई के दिनों में छुट्टी मुश्किल से मिलती है।
दो सप्ताह हो गए। अमर सिंह की कोई चिट्ठी भी नहीं आई। और न ही ताई इंदू ने मुझे आवाज ही मारी। अमर सिंह की चिट्ठी पढ़ने का मुझे कुछ चस्का पड़ गया था। साथ ही कभी-कभी मुझे भी याद आ जाती थी। इसलिए मैं ताई इंदू के दरवाजे के आगे से जरूर निकलता। पर ताई ने मुझे कभी आवाज नहीं दी। साथ ही, मैं जब कभी गली-दरवाजे पर घूमता-फिरता, ताई इंदू से मिलता, तो कई बार पूछती : ‘ओ काका, कोई खबर सुनी, लड़ाई का क्या हाल है? तू तो अखबार पढ़ता है।‘
‘अखबारवाले भी कौन-सी सारी सच्ची बातें लिखते हैं ताई! अपनी-अपनी मन-गढ़ंत कहे जाते हैं।‘
ताई मायूस होकर बोली, ‘यह सब कब खत्म होगा?’ फिर वह निराश होकर मेरे मुँह को ताकने लगती।
एक दिन फिर, ‘...सुन ताई, कोई अमर की चिट्ठी...?’
‘कहाँ आई है! चिट्ठी आने की सोचकर ही यहाँ खड़ी हूँ।‘ ताई काफ़ी उदास थी।
‘खैर! कोई बात नहीं ताई, घबरा मत! जरूर आएगी चिट्ठी...। लड़ाई के कारण आजकल परदेसी डाक आती-जाती नहीं है। बस, दो-एक महीने तक समुंदर के रास्ते खुल जाएँगे। फिर आएगी, अमर की चिट्ठी।‘
‘लो - दो महीने भी होने को आए।‘ ताई ने जान लिया कि जो मैंने कहा वो नहीं हुआ।
सब कुछ जानती थी वह। फिर भी मैं इस तरह की तसल्ली देकर उसके पास से आ जाता। एक तो ताई इंदू वहमी बहुत थी। छोटी-छोटी बातों पर विचार करती। घर से निकलती बहू को कहीं ब्राह्मण, नंबरदार मिल जाता, तो झट पीछे मुड़ जाती। शाम, कोठियों पर भूतों का वास होता है, कुत्ते-कुतियों को दूर से धमकाती हुई कई बार वह कहती : ‘पता नहीं आज ये क्या करके रहेंगे?’
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कभी-कभी रणजीत का दिल भी उसके साथ ही बोलने लगता।
अब, जब मैं उनकी गली से निकलता था, तो उनके घर में झाँकते, कई बार मेरी नजर रणजीत कौर पर जाती। वह मुझसे पल्ला कर लेती थी तो मैं उस ओर देखना छोड़ देता। पर रणजीत के घूँघट किये जाने पर भी मैं देखता कि उसकी शरबती आँखों में अब वो नशा नहीं रहा, पर वो रंग-बिरंगे सपनों से लदी हुई जरूर है। उसकी घूँघट ओढ़े आँखें जरूर कोई काल्पनिक फिल्म देख रही हैं : ‘आकाश को चीरते हुए जहाज से आएगा - वर्दी पहने हुए, काली-काली दाढ़ी और तीखा नोकदार साफा, सामने होगा मेरा बाँका।‘
कई बार, ताई इंदू घर नहीं होतीं। रणजीत अकेली होती तो मैं घर जाने से झिझकता था। पर मैं दिल से चाहता था कि चलती बातों से ही रणजीत को भी तसल्ली दे आऊँ। आखिर एक दिन मैं पैर मलते-मलते, अंदर चला ही गया।
‘भाई, कोई अमर की चिट्ठी-विट्ठी नहीं आई रणजीत?’
‘कोई नहीं आई जी!’ घूँघट की ओट करके वह मेरे सामने पीठ फेरके बैठ गई।
‘खैर, कोई नहीं। आजकल रास्ते बंद हैं। तू भी ज्यादा फिक्र मत किया कर रणजीत।‘
‘लो जी, खयाल करके क्या बनेगा, मैं तो कुछ खयाल नहीं करती। लड़की याद करने लग जाती है। फिर मेरा भी दिल..।‘
‘ठीक है, चिड़चिड़ाया मत कर, ताई कहाँ गई है?’
‘खेत पर गई है जी, सवेरे की।‘
‘अच्छा।‘
इतनी ही तसल्लियाँ देकर मैं चला आया। कई बार इस तरह की बातें अब मैं यों ही कर लेता था।
कोई दो महीनों बाद मैं अपनी बैठक में किताब पढ़ रहा था कि रणजीत की बेटी आई और चें-चें करने लगी। ‘ताऊ जी, आपको मेरी दादी बुला रही है।‘ ‘अभी आ जाओ ताऊ जी।‘ कहती हुई लड़की चली गई।
मेरे जाते ही ताई दरवाजे की चौखट पर लिफाफा लिए खड़ी थी और बड़े चाव से उसी तरह पीछे थी रणजीत। खुशी-खुशी बड़े प्यार से और मिठास लिए ताई बोली :
‘देख तो बेटा खोलकर।‘
‘अमर की लगती है,’ मैं दरवाजे पर खड़ा-खड़ा लिफाफे का कोना फाड़ने लगा।
‘लगती तो उसी की है, अच्छी तरह टिकट जो लगा हुआ है।‘
‘उसी की... है?’ मैं रुक गया। ‘न...हीं’, धीरे-से, अपने आपसे मैंने कहा।
मेरे पैरों के नीचे से धरती खिसक गई। मैं कैसे शब्द वापस लूँ? क्या देखा, मेरी नजरें चिट्ठी पर थीं और सास-बहू की मेरे चेहरे पर। वे बड़ी बेबसी से मेरे होठों पर मुस्कान ढूँढ़ती रहीं। उनके कलेजों में एक खुशी थी। वे मुझे तसल्लियों से देखती रहीं, पर मैं डरने लगा।
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‘क्यों, कुछ कह तो सही बेटा? क्या लिखा है।‘
‘लिखा है ताई... अँग्रेजी में है...’ मेरी जान-जुबान बंद हो रही थी।
‘फिर... क्या लिखा है? वे हैरान-परेशान मुझे देख रही थीं।
‘किसकी है? क्या लिखा है?’ ताई पूछती रहीं, जैसे कोई बेगाना पूछ रहा हो।
‘कमांडर ने... खबर... की है... आपको।‘
ताई की आँखें फैलकर चौड़ी हो गई थीं।
‘लिखा है।‘ मैंने कहना शुरू किया।
‘अफसोस के साथ आपको यह खबर दी जाती है कि आपका बेटा, अमर सिंह, सिपाही नं. 506179, मोर्चे में छाती पर गोली लगने से...।‘
चीख-चीख कर, ताई ने छाती पीट ली। रणजीत बाल खींचती कंधों को टक्करें मारने लगी। घर की दीवारें हिल गयीं। गली में भूचाल आ गया। कोठे पर भूत और कुत्ते हो-हो कर लोटने लगे।
(अनुवाद - नेहा चौहान)