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नहीं पूरी हो सकी थी जफर की आखिरी इच्छा, अंग्रेजों ने रंगून में चली थी यह चाल
जिस समय बहादुर शाह जफर की मौत हुई वह अपने वतन से बहुत दूर रंगून में थे। रंगून में उसी दिन शाम चार बजे 87 साल के इस मुगल शासक को दफना दिया गया।
नई दिल्ली: इतिहास में 7 नवंबर की तारीख इसलिए भी याद की जाती है क्योंकि इसी दिन अंतिम मुगल शासक बहादुर शाह जफर का निधन हुआ था। 1862 में भारत के आखिरी मुगल शासक बहादुर शाह जफर की म्यांमार के रंगून में मौत हुई थी।
उनकी तबीयत कई दिनों से खराब चल रही थी और वे मुश्किल से खाना खा पा रहे थे। आखिरकार 6 नवंबर को उन्हें लकवे का तीसरा दौरा पड़ा और 7 नवंबर की सुबह पांच बजे उनका देहांत हो गया। बहादुर शाह जफर की आखिरी इच्छा थी कि उन्हें दिल्ली के महरौली इलाके में दफनाया जाए मगर उनकी यह आखिरी इच्छा नहीं पूरी हो सकी।
कब्र की जमीन को कर दिया समतल
जिस समय बहादुर शाह जफर की मौत हुई वह अपने वतन से बहुत दूर रंगून में थे। रंगून में उसी दिन शाम चार बजे 87 साल के इस मुगल शासक को दफना दिया गया। ब्रिगेडियर जसबीर सिंह ने अपनी चर्चित किताब में बहादुर शाह जफर की मौत का जिक्र करते हुए लिखा है कि उन्हें रंगून के जिस घर में कैद करके रखा गया था, उसी घर के पीछे उनकी कब्र बनाई गई और उन्हें दफनाने के बाद कब्र की जमीन को समतल कर दिया गया।
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दरअसल अंग्रेज अधिकारी चाहते थे कि बाद में उनकी कब्र की पहचान न की जा सके और इसी कारण अंग्रेजों ने कब्र को समतल करवा दिया था। बहादुर शाह जफर के शव को दफनाते समय वहां उनके दो बेटे और एक भरोसेमंद एक कर्मचारी ही मौजूद था।
बहादुर शाह जफर की यह थी आखिरी इच्छा
मशहूर मुगलकालीन इतिहासकार हरवंश मुखिया के मुताबिक बहादुर शाह जफर की इच्छा थी कि उन्हें दिल्ली के महरौली में दफन किया जाए मगर उनकी यह आखिरी इच्छा नहीं पूरी हो सकी। मुखिया के मुताबिक अंग्रेजों ने कब्र को समतल करा दिया था और यही कारण है कि उनकी कब्र कहां है, इसे लेकर पूरे विश्वास से कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
पेड़ के करीब जीनत महल को दफनाया
एक और इतिहासकार विलियम डेरिम्पल ने अपनी मशहूर किताब द लास्ट मुगल में लिखा है कि जब 1882 में बहादुर शाह जफर की पत्नी जीनत महल की मौत हुई तब तक यह किसी को याद ही नहीं था कि बहादुर शाह जफर की कब्र कहां बनाई गई है। यही कारण था कि उनके शव को अंदाजा लगाकर उसी जगह एक पेड़ के करीब दफना दिया गया।
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प्रदर्शन के बाद कब्र पर लगा पत्थर
डेरिम्पल ने इस बात का भी जिक्र किया है कि जब 1903 में भारत से कुछ पर्यटक रंगून पहुंचे तो वे बहादुर शाह जफर की मजार पर जाकर उन्हें याद करना चाहते थे। उस समय तक लोग उस जगह को भी भूल चुके थे जहां पर जफर की कब्र बनाई गई थी। स्थानीय गाइड्स में एक पुराने पेड़ की ओर इशारा किया था।
दो साल बाद 1905 में रंगून में मुस्लिम समुदाय ने मुगल बादशाह की कब्र की पहचान करने और उसे सम्मान देने की मांग उठाई। इस मांग के समर्थन में कई महीनों तक प्रदर्शन का दौर चला जिसके बाद ब्रिटिश प्रशासन ने कब्र पर पत्थर लगवाने पर रजामंदी जाहिर की थी।
जफर ने 1837 में संभाली थी गद्दी
बहादुर शाह जफर 1837 के सितंबर महीने में पिता अकबर शाह द्वितीय की मौत के बाद गद्दीनशीं हुए थे। तब तक देश के काफी बड़े इलाके पर अंग्रेजों का आधिपत्य स्थापित हो चुका था। जब देश में 1857 की क्रांति की चिंगारी भड़की तो विद्रोही सैनिकों और राजा-महाराजाओं ने उन्हें हिंदुस्तान का सम्राट स्वीकार किया और उन्होंने भी अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने का आह्वान किया मगर बहादुर शाह जफर की अगुवाई में लड़ी गई लड़ाई कुछ ही दिन चल सकी।
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अंग्रेजों ने निर्ममतआपूर्वक इस क्रांति को कुचल दिया। अंग्रेजों ने 23 सितंबर को बहादुर शाह जफर को गिरफ्तार कर लिया। अंग्रेजों ने उन्हें रंगून निर्वासित करने के साथ ही उन पर मुकदमा भी चलाया। रंगून में ही बहादुर शाह जफर ने आखिरी सांसे लीं।
बेहतरीन शायर थे बहादुर शाह जफर
बहादुर शाह जफर कवि हृदय वाले मुगल शासक थे। जफर खुद बेहतरीन शायर थे और उनके शेरों में मानव जीवन की गहरी सच्चाई और भावनाओं का उभार दिखता है। रंगून में अंग्रेजों की कैद में रहते हुए भी जफर ने ग़ज़लें लिखीं।
जानकारों का कहना है कि कैदी के रूप में जफर को अंग्रेजों ने कलम तक नहीं दी थी मगर जफर ने जली हुई तीलियों से दीवारों पर गजलें लिख डाली थीं। जफर के दरबार में मोहम्मद गालिब और जौक जैसे बड़े शायर थे जो आज भी शायरों के लिए आदर्श माने जाते हैं।
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